Monday, September 29, 2014

प्रतिस्पर्धी कूटनीति का रोमांच



मोदी ने भारत की ठंडी कूटनीति को तेज रफ्तार फिल्मों के प्रतिस्पर्धी रोमांच से भर दिया है. यह बात दूसरी है कि उनके कूटनीतिक अभियान चमकदार शुरुआत के बाद यथार्थ के धरातल पर आ टिके हैं. लेकिन अब बारी कठिन अौर निर्णायक कूटनीति की है.


ताजा इतिहास में ऐसे उदाहरण मुश्किल हैं कि जब कोई राष्ट्र प्रमुख अपने पड़ोसी की मेजबानी में संबंधों का कथित नया युग गढ़ रहा हो और उसकी सेना उसी पड़ोसी की सीमा में घुसकर तंबू लगाने लगे. लेकिन यह भी कम अचरज भरा नहीं था कि एक प्रधानमंत्री ने अपनी पहली विदेश यात्रा में ही दो पारंपरिक शत्रुओं में एक की मेजबानी का आनंद लेते हुए दूसरे को उसकी सीमाएं (चीन के विस्तारवाद पर जापान में भारतीय प्रधानमंत्री का बयान) बता डालीं. हैरत तब और बढ़ी जब मोदी ने जापान से लौटते ही यूरेनियम आपूर्ति पर ऑस्ट्रेलिया से समझौता कर लिया. परमाणु अप्रसार संधि पर दस्तखत न करने वाले किसी देश के साथ ऑस्ट्रेलिया का यह पहला समझौता, भारत की नाभिकीय ऊर्जा तैयारियों को लेकर जापान के अलग-थलग पडऩे का संदेश था. बात यहीं पूरी नहीं होती. चीन के राष्ट्रपति जब साबरमती के तट पर दोस्ती के हिंडोले में बैठे थे तब हनोई में, राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की मौजूदगी में भारत, दक्षिण चीन सागर में तेल खोज के लिए विएतनाम के साथ करार कर रहा रहा था और चीन का विदेश मंत्रालय इसके विरोध का बयान तैयार कर था.
दरअसल, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सौ दिनों में भारत की ठंडी कूटनीति को तेज रफ्तार फिल्मों के प्रतिस्पर्धी रोमांच से भर दिया है. अमेरिका उनके कूटनीतिक सफर का निर्णायक पड़ाव है. वाशिंगटन में यह तय नहीं होगा कि भारत में तत्काल कितना अमेरिकी निवेश आएगा बल्कि विश्व यह देखना चाहेगा कि भारतीय प्रधानमंत्री, अपनी कूटनीतिक तुर्शी के साथ भारत को विश्व फलक में किस धुरी के पास स्थापित करेंगे.
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1 comment:

Unknown said...

Narendra Modi ka Real Examination Time Sir...