Tuesday, November 10, 2015

बेचारे बैंक


बैंकों की बदहाली के लिए अब इसके लिए केवल पिछली कांग्रेस सरकार जिम्मेदार नहीं हैमोदी सरकार ने कहीं ज्यादा तेजी से बैंकों को मुसीबत की तरफ ढकेल दिया है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस सप्ताह जब चरमराते बैंकों के कंधे पर सोना के बदले ब्याज देने की स्कीम लाद रहे थे और स्कीम की सफलता को लेकर बैंकिंग उद्योग में बुनियादी शक-शुबहों की चर्चा चल रही थी, तब हेनरी फोर्ड याद आ गए जिन्होंने कहा था कि आम लोग अगर यह जान जाएं कि बैंक कैसे काम करते हैं तो बगावत हो जाएगी. दरअसल, इस कहावत का जिक्रहाल में ही एक विदेशी निवेशक ने भारतीय बैंकिंग के संदर्भ में किया था. हम मोदी सरकार में आर्थिक सुधारों पर चर्चा कर रहे थे इसी दौरान निवेशक ने कहा कि अगर निवेशक भारतीय बैंकों की ताजा हालत की अनदेखी न करें तो शेयर बाजार में बगावत हो जाएगी. ग्लोबल बैंकिंग के ताजे खौफनाक तजुर्बों की रोशनी में वह निवेशक न केवल भारतीय बैकों के बुरे हाल को लेकर परेशान था बल्कि इस बात पर झुंझला रहा था कि कोई सरकार इतनी बेफिक्र कैसे हो सकती है कि जब उसके बैंक भारी बकाया कर्जों और किस्म-किस्म के घोटालों के जखीरे पर बैठे हों तब बैंकों में सुधार की बजाए वह उनके लोकलुभावन इस्तेमाल के नए तरीके तलाश रही है. 
चुनाव के दौरान बीजेपी जब आर्थिक सुधारों की तीसरी पीढ़ी लागू करने का वादा कर रही थी तब यही अनुमान था कि बैंक सुधार सरकार की सबसे पहली वरीयता पर होंगे क्योंकि यह लंबे अर्से से लंबित हैं. इस बीच पिछले पांच वर्षों की मंदी के कारण बैंकों के कर्ज की उगाही बड़े पैमाने पर अधर में लटक गई है. बैंकों का सरकार नियंत्रित तंत्र गहरी अपारदर्शिता से भर गया है जिसका नतीजा किस्म-किस्म के घोटालों के तौर पर सामने आया. भारतीय बैंकिंग सिर्फ संकट में ही नहीं है बल्कि ग्लोबल पैमानों पर आधुनिक होने के लिए बैंकों का पुनर्गठन, सुधार, निजीकरण और इनमें सरकारी दखल की समाप्ति अनिवार्य हो गई है ताकि इन्हें उत्पादक निवेश के वित्त पोषण के लायक बनाया जा सके.
इन अपेक्षाओं की रोशनी में बैंकों को लेकर मोदी सरकार की नीतियां निराश करती हैं. पिछले सोलह माह में मोदी सरकार ने परेशानहाल बैंकों का कुछ इस तरह इस्तेमाल शुरू कर दिया है, जिसे देखकर अस्सी के दशक के हालात याद आ जाते हैं. बैंकों की हालत, क्षमता और अपेक्षाओं को समझे बिना सरकार ने अपने लोकलुभावन मिशन बैंकों पर लाद दिए. मिसाल के तौर पर जनधन को ही लें. बैंकिंग के स्वाभाविक और लाभप्रद विस्तार के लिए बैंकों को सक्षम बनाने की जरूरत थी लेकिन जनधन जैसी स्कीम उस समय आई जब बैंकों के पास कर्ज के ग्राहक नहीं हैं और जमा की ग्रोथ 51 साल के सबसे निचले स्तर पर है. जनधन ने बैंकों की लागत में इजाफा कर दिया और ऐसे खातों का अंबार लगा दिया जिनमें कोई संचालन नहीं होता. महंगाई और मंदी के कारण बैंक बचत घट रही हैं और सरकार के पास भी फिलहाल इन खातों के जरिए देने के लिए कुछ नहीं है, इसलिए जनधन बैंकों के लिए बोझ जैसी ही है. ठीक यही हाल जन सुरक्षा बीमा बांटने का हुआ, जहां बैंकों ने बढ़ती लागत और वित्तीय दिक्कतों के कारण बहुत बढ़-चढ़कर भाग नहीं लिया.
गोल्ड मॉनेटाइजेशन स्कीम को देखकर ही बैंकों ने हाथ खड़़े कर दिए हैं. सोने के कारोबार से जुड़े जोखिम और मुनाफों पर दबाव के कारण सोना रखने पर बैंक अच्छा ब्याज नहीं दे सकते. रिजर्व बैंक की अधिसूचना के मुताबिक, सोना जमा करने पर महज दो से ढाई फीसदी का ब्याज मिलेगा जो इस स्कीम को अनाकर्षक बनाने के लिए पर्याप्त है. मुद्रा बैंक के माध्यम से लगाए गए लोन मेले, शायद बैंकों के इस्तेमाल की पराकाष्ठा हैं. सरकार ने इसके जरिए बगैर जमानत के छोटे कर्ज बांटने का अभियान चलाने की कोशिश की है लेकिन बैंक इस हालत में हैं ही नहीं कि वे इस तरह की रेवडिय़ा बांट सकें.
ये स्कीमें सत्तर-अस्सी के दशक की याद दिलाती हैं जब सरकारें बैंकों का इस्तेमाल लोकलुभावन राजनीति में करती थीं और उसे सामाजिक बैंकिंग कहा जाता था. दरअसल, भारतीय बैंकों की ताजा हकीकत तो कंपनियों-बैंकों का गठजोड़ यानी क्रोनी बैंकिंग है जो सामाजिक बैंकिंग की अपेक्षाओं के बिल्कुल विपरीत है. बैंकों के फंसे हुए कर्जों (एनपीए) का सबसे बदसूरत चेहरा यह है कि बैंकों का अधिकांश बकाया कर्ज आम लोगों, छोटे उद्यमियों, उपभोक्ताओं के पास नहीं बल्कि चुनिंदा उद्योगों के पास है. क्रेडिट सुइस की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक, भारतीय बैंकों की तरफ से दिया गया 17 फीसदी कर्ज मुश्किल में है. यह आंकड़ा रिजर्व बैंक के शुरुआती आकलन (11 फीसदी) से बड़ा है. रिपोर्ट कहती हैं कि भारत के दस बड़े औद्योगिक समूह 113 अरब डॉलर का कर्ज लिए बैठे हैं. यह कर्ज बैंकों की सक्षमता का गला घोंट कर उन्हें ऊंची ब्याज दर रखने पर मजबूर किए हुए है जबकि देश का शेष क्षेत्रउत्पादक, निवेश या उपभोग के लिए बैंक कर्ज के लिए तरस रहा है.
बैंकिंग को लेकर सरकार से दो बड़ी अपेक्षाएं थीं. एक: क्रोनी बैंकिंग पर सख्ती होगी और बैंकों के एनपीए कम किये जाएंगे ताकि कर्ज सस्ता करने का रास्ता बन सके. दो: बैंकों में सरकार अपना हिस्सा घटाएगी, निजीकरण करेगी और दखल समाप्त करेगी, क्योंकि ग्रोथ के लिए सस्ता कर्ज बुनियादी जरूरत है. ग्रोथ का ताजा इतिहास तेज विकास और सस्ते कर्ज के बीच रिश्ते का सबसे ठोस प्रमाण है. 2005 से 2011 की 7 से 8 फीसदी की विकास दर दरअसल सस्ते और बड़ी मात्रा में बैंक कर्ज की देन थी. बाद के वर्षों में ब्याज दरें, कर्ज का प्रवाह घटा और ग्रोथ भी बैठ गई.
सरकार को अच्छी तरह यह पता है कि बैंकों के पुनर्गठन के बिना सस्ते कर्ज की वापसी नामुमकिन है. इसके बावजूद बैंकों का नया और बेधड़क लोकलुभावन इस्तेमाल निराश करता है. सिर्फ यही नहीं, क्रोनी बैंकिंग को बदलने और बैंकों को फंसे कर्ज से निजात दिलाने के लिए करदाताओं के पैसे यानी बजट से बैंकों को 700 अरब रुपए की पूंजी मिलने जा रही है. एक बड़ा संकट बैंकों की दहलीज पर है और अब इसके लिए केवल पिछली कांग्रेस सरकार जिम्मेदार नहीं है, मोदी सरकार ने कहीं ज्यादा तेजी से बैंकों को मुसीबत की तरफ ढकेल दिया है.

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