Sunday, March 11, 2018

राजनीति का 'स्वर्णकाल'


वामपंथी शासन वाले त्रिपुरा या बंगाल के गरीब और बेरोजगारों की जिंदगी, भाजपा के शासन वाले झारखंड या छत्तीसगढ़ के गरीबों की जिंदगी से कितनी अलग थी ?

क्या हरियाणा के अस्पताल कर्नाटक के अस्पतालों से बेहतर हो गए हैं?

मध्य प्रदेश का भ्रष्टाचार, पंजाब से कितना अलग है?

गुजरात का नेता-कंपनी गठजोड़, पश्चिम बंगाल या तमिलनाडु से किस तरह अलग है?

वामपंथी शासन वाले राज्यों में आर्थिक समानता का कौन-सा महाप्रयोग हो गया? भाजपा के शासन वाले राज्यों में निवेश और नौकरियों का कौन-सा वसंत उतर आया है? सर्वसमावेशी कांग्रेस ने कौन-सा आदर्श प्रशासन दिया?
इन सवालों को उठाने का यह सबसे सही वक्त है.

क्योंकि भारत के लोगों ने लाल, भगवा, हरे, नीले, सफेद सभी रंगों की सरकारें देख ली हैं.

खुद से यह पूछना जरूरी है कि किसी सियासी विचार की चुनावी सफलता से या विफलता से हमारी जिंदगी पर क्या फर्क पड़ता है? व्यावहारिक रूप से लोगों के जीवन में अंतर सिर्फ इस बात से आता है कि चुनाव से कैसी सरकार निकली.

ढहाते रहिए लेनिन की मूर्ति, खड़े करते रहिए शिवा जी और सरदार पटेल के पुतले या सजाते रहिए आंबेडकर पार्क. एक संवैधानिक लोकतंत्र में कोई राजनैतिक विचार अगर एक अच्छी सरकार नहीं दे सकता तो उसकी हैसियत किसी कबायली संगठन से ज्यादा हरगिज नहीं, जो विरोधी की मूर्तियां ढहाने या अपनी बनाने पर केंद्रित है, लोगों की जिंदगी बनाने या बेहतर करने पर नहीं.

अलग-अलग विचारों की सरकारें लोगों को उनका हक देने के मामले में एक जैसी ही क्यों पाई जाती हैं?

इसकी दो वजहें हैं:

पहलीसरकार में आने और आदर्श सरकार होने में राई-पहाड़ जैसा फर्क है. आमतौर पर राजनैतिक विचारधाराओं के पास सरकार या गवर्नेंस का कोई नया विचार नहीं होता. उदाहरण के लिए पिछले चार वर्षों में हर साल किसी न किसी राज्य में बारहवीं के पर्चे से लेकर मेडिकल और जुडिशियरी की परीक्षाओं के पर्चे लीक हुए हैं. कर्मचारी चयन आयोग की परीक्षा का पर्चा लीक इसी क्रम में है. हर साल लाखों युवाओं की मेहनत मिट्टी हो जाती है लेकिन किसी भी विचारधारा की सरकार के पास परीक्षाओं को निरापद बनाने की कोई नई सूझ नहीं है.

दशकों के बाद देश के 22 राज्यों और करीब 60 फीसदी जीडीपी पर एक ही दल (गठबंधन) के शासन के बावजूद बैंकों से लेकर खेती तक और अस्पताल से अदालत तक सब जगह काठ की पुरानी हांडियां नए रंग-रोगन के साथ चढ़ाई जा रही हैं. कहीं कोई गुणात्मक बदलाव नहीं दिखता.

दूसरी—सरकारों को संविधान की राजनैतिक निरपेक्षता से खासी तकलीफ होती है. संविधान ने सरकारों को किस्म-किस्म के संस्थागत परीक्षणों से गुजारने की लंबी व्यवस्था बनाई. सरकारें इन संस्थाओं को कमजोर करती हैं या फिर इन अराजनैतिक संस्थाओं पर राजनैतिक विचार थोपने की कोशिश करती हैं ताकि दूसरे विचार का खौफ दिखाकर सत्ता में रहा जा सके.

अचरज नहीं कि एक दल की दबंगई वाली सरकारों की तुलना में मिले-जुले राजनैतिक विचारों की सरकारें, कमोबेश ज्यादा उत्पादक रहीं हैं. वे शायद कोई एक विचार दिखाकर भरमाने की स्थिति में नहीं थीं.

राजनीति अब जन पक्ष का स्थायी विपक्ष हो चली है. राजनेता अंदरखाने जनता से एक लड़ाई लड़ते हैं. उनका सबसे बड़ा डर यह है कि लोग कहीं वह न समझ जाएं जो उन्हें समझना चाहिए. नेताओं की यह जंग समझ, तर्क और प्रश्न के खिलाफ है.

प्रश्न स्वाभाविक रूप से उनकी सरकार से पूछे जाएंगे जो ठोस और मूर्त है. अमूर्त विचारधारा से यह कौन पूछने जा रहा है कि बैंक में घोटाले क्यों हो रहे हैं? लोगों को अच्छी सरकार चाहिए, विचार तो विचारकों और प्रचारकों के लिए हैं.

प्रश्न साहस की सृष्टि करते हैं और भ्रम से जन्म लेता है भय. भ्रम का चरम ही राजनीति का स्वर्ण युग है.

लोग रस्सी को सांप समझ लें और विचार को सरकार, सियासत को और क्या चाहिए?

ध्यान रहे कि लेनिन की जो मूर्ति ढहाई गई, वह जनता की जमीन पर जनता के पैसे से बनी थी और पटेल की जो मूर्ति बनाई जा रही है, उसमें भी करदाताओं का पैसा लगा है.

चुनाव में हम सरकार चुनते हैं, विचार नहीं. यदि हम चाहते हैं कि हमें विध्वंसक या नपुंसक विचारों के बदले ठोस और जवाबदेह सरकारें मिलें तो क्या हर पांच साल में प्रत्येक सरकार के साथ वही करना होगा जो त्रिपुरा के लोगों ने माणिक सरकार के साथ 25 साल बाद किया?

यानी कि चलो पलटाई!


1 comment:

mrigendrasite said...

जबरदस्त विश्लेषण । इन नाकारा सरकारों को देखकर संशय होता है कि आखिर किसको चुनें लेकिन एक विचार बचता है। चलो पलटाई।।