Monday, June 18, 2018

दुनिया न माने



संकेतोंअन्यर्थों और वाक्पटुताओं से सजी-संवरी विदेश नीति की कामयाबी को बताने किन आंकड़ों या तथ्यों का इस्‍तेमाल होना चाहिए 

यह चिरंतन सवाल ट्रंप और कोरियाई तानाशाह किम की गलबहियों के बाद वापस लौट आया है और भारत के हालिया भव्य कूटनीतिक अभियानों की दहलीज घेर कर बैठ गया है.

विदेश नीति की सफलता की शास्त्रीय मान्यताओं की तलाश हमें अमेरिका के तीसरे राष्ट्रपति थॉमस जेफरसन (1743-1826) तक ले जाएगीजिन्होंने अमेरिका की (ब्रिटेन से) स्वतंत्रता का घोषणापत्र तैयार किया. वे शांतिमित्रता और व्यापार को विदेश नीति का आधार मानते थे. 

तब से दुनिया बदली है लेकिन विदेश नीति का आधार नहीं बदला है. चूंकि किसी देश के लिए किम-ट्रंप शिखर बैठक जैसे मौके या अंतरराष्ट्रीय मंचों पर नेतृत्व के मौके बेहद दुर्लभ हैंइसलिए कूटनीतिक कामयाबी की ठोस पैमाइश अंतरराष्ट्रीय कारोबार से ही होती है.

विदेश नीति की अधिकांश कवायद बाजारों के लेन-देन यानी निर्यात की है जिससे आयात के वास्ते विदेशी मुद्रा आती है. भारत के जीडीपी में निर्यात का हिस्सा 19 फीसदी तक रहा है. निर्यात में भी 40 फीसदी हिस्सा‍ छोटे उद्योगों का है यानी कि निर्यात बढ़े तो रोजगार बढ़े. 

यकीनन मोदी सरकार के कूटनीतिक अभियान लीक से हटकर "आक्रामक'' थे लेकिन पहली यह है कि विदेश व्यापार को कौन-सा ड्रैगन सूंघ गया?

- पिछले चार वर्षों में भारत का (मर्चेंडाइज) निर्यात बुरी तरह पिटा. 2013 से पहले दो वर्षों में 40 और 22 फीसदी की रफ्तार से बढऩे वाला निर्यात बाद के पांच वर्षों में नकारात्मक से लेकर पांच फीसदी ग्रोथ के बीच झूलता रहा. पिछले वित्त वर्ष में बमुश्किल दस फीसदी की विकास दर पिछले तीन साल में एशियाई प्रतिस्पर्धी देशों (थाइलैंडमलेशियाइंडोनेशियाकोरियाकी निर्यात वृद्धि से काफी कम है.

- पिछले दो वर्षों (2016-3.2%: 2017-3.7%) में दुनिया की विकास दर में तेजी नजर आई. मुद्रा कोष (आइएमएफ) का आकलन है कि 2018 में यह 3.9 फीसदी रहेगी.

- विश्व व्यापार भी बढ़ा. डब्ल्यूटीओ ने बताया कि लगभग एक दशक बाद विश्व व्यापार तीन फीसदी की औसत विकास दर को पार कर  (2016 में 2.4%2017 में 4.7% की गति से बढ़ा. 

लेकिन भारत विश्व व्यापार में तेजी का कोई लाभ नहीं ले सका.

- पिछले पांच वर्षों में चीन ने सस्ता सामान मसलन कपड़ेजूतेखिलौने आदि का उत्पादन सीमित करते हुए मझोली व उच्च‍ तकनीक के उत्पादों पर ध्यान केंद्रित किया. यह बाजार विएतनामबांग्लादेश जैसे छोटे देशों के पास जा रहा है. 

- भारत निर्यात के उन क्षेत्रों में पिछड़ रहा है जहां पारंपरिक तौर पर बढ़त उसके पास थी. क्रिसिल की ताजा रिपोर्ट बताती हैकच्चे माल में बढ़त होने के बावजूद परिधान और फुटवियर निर्यात में विएतनाम और बांग्लादेश ज्यादा प्रतिस्पर्धी हैं और बड़ा बाजार ले रहे हैं. टो पुर्जे और इंजीनियरिंग निर्यात में भी बढ़ोतरी पिछले वर्षों से काफी कम रही है.





- भारत में जिस समय निर्यात को नई ताकत की जरूरत थी ठीक उस समय नोटबंदी और जीएसटी थोप दिए गएनतीजतन जीडीपी में निर्यात का हिस्सा 2017-18 में 15 साल के सबसे निचले स्तर पर आ गया. सबसे ज्यादा गिरावट आई कपड़ाचमड़ाआभूषण जैसे क्षेत्रों मेंजहां सबसे ज्यादा रोजगार हैं.

- ध्यान रखना जरूरी है कि यह सब उस वक्त हुआ जब भारत में मेक इन इंडिया की मुहिम चल रही थी. शुक्र है कि भारतीय शेयर बाजार में विदेशी निवेश आ रहा था और तेल की कीमतें कम थींनहीं तो निर्यात के भरोसे तो विदेशी मुद्रा के मोर्चे पर पसीना बहने लगता.

- अंकटाड की ताजा रिपोर्ट ने भारत में विदेशी निवेश घटने की चेतावनी दी है जबकि विदेशी निवेश के उदारीकरण में मोदी सरकार ने कोई कसर नहीं छोड़ी.

विदेश व्यापार की उलटी गति को देखकर पिछले चार साल की विदेश नीति एक पहेली बन जाती है. दुनिया से जुडऩे की प्रधानमंत्री मोदी की ताबड़तोड़ कोशिशों के बावजूद भारत को नए बाजार क्यों नहीं मिले जबकि विश्व बाजार हमारी मदद को तैयार था?

हालात तेजी से बदलते रहते हैं. जब तक हम समझ पाते तब तक अमेरिका ने भारत से आयात पर बाधाएं लगानी शुरू कर दीं. आइएमएफ बता रहा है कि आने वाले वर्षों में अमेरिका और यूरोपीय समुदाय में आयात घटेगा. 

लगता है कि जिस तरह हमने सस्ते तेल के फायदे गंवा दिए ठीक उसी तरह निर्यात बढ़ाने व नए बाजार हासिल करने का अवसर भी खो दिया है.



क्या यही वजह है कि चार साल के स्वमूल्यांकन में सरकार ने विदेश नीति की सफलताओं पर बहुत रोशनी नहीं डाली है?

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