अर्थार्थ
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दस फीसदी की धार से छीलती महंगाई, महंगा होता कर्ज, अस्थिर खेती, सुस्त निवेश, चरमराता बुनियादी ढांचा और सौ जोखिम भरी वित्तीय दुनिया!!!! फिर भी अर्थव्यवस्था में आठ फीसदी से ऊपर की कुलांचें? ..कुछ भी तो माफिक नहीं है, मगर गाड़ी बेधड़क दौड़े चली जा रही है। किसे श्रेय देंगे आप इस करिश्मे का? ..कहीं दूर मत जाइए, अपना हाथ पीछे ले जाकर अपनी पीठ थपथपाइए!! यह सब आपकी मेहरबानी है। आप यानी भारतीय उपभोक्ता देश की अर्थव्यवस्था को पूरी दुनिया में सबसे पहले मंदी के गर्त से बाहर खींच लाए हैं। दाद देनी होगी हिम्मत की कि इतनी महंगाई के बावजूद हम खर्च कर रहे हैं और उद्योग चहक रहे हैं। यह बात दीगर है कि इस वीरता की कीमत कहीं और वसूल हो रही है। कमाई, उत्पादन और खर्च तीनों बढ़े हैं, लेकिन आम लोगों की बचत में वृद्धि पिछले तीन-चार साल से थम सी गई है। दरअसल खर्च नही, बल्कि शायद आपकी बचत महंगाई का शिकार बनी है।
खर्च का जादू
मंदी से दूभर दुनिया में भारत की अर्थव्यवस्था इतनी जल्दी पटरी पर लौटना हैरतअंगेज है। मांग का यह मौसम कौन लाया है? भारत तो चीन की तरह कोई बड़ा निर्यातक भी नहीं है। यहां तो निर्यात हमेशा से नकारात्मक अर्थात आयात से कम रहा है। दरअसल बाजार में ताजी मांग खालिस स्वदेशी है। माहौल बदलते ही भारत के उपभोक्ताओं ने अपने बटुए व क्रेडिट कार्ड निकाल लिये और आर्थिक विकास दर थिरकने लगी। इस साल जनवरी से मार्च के दौरान भारत में उपभोग फिर 4 से 4.5 फीसदी की गति दिखाने लगा है। खासतौर पर निजी उपभोग खर्च तो मार्च में 10.4 फीसदी पर आ गया है। इसी के बूते रिजर्व बैंक नौ फीसदी की आर्थिक विकास दर की उम्मीद बांध रहा है। करीब 36 फीसदी निर्धन आबादी के बावजूद भारत का 55-60 करोड़ आबादी वाला मध्य वर्ग इतना खर्च कर रहा है कि अर्थव्यवस्था आराम से दौड़ जाए। भारत के बाजार में 60 फीसदी मांग अब विशुद्ध रूप से खपत से निकलती है। पिछले कुछ वर्षो में आय व खर्च में वृद्धि तकरीबन बराबर हो गई है। बल्कि आर्थिक सर्वेक्षण तो बताता है कि हाल की मंदी से पहले के वर्ष (2008-09) में तो प्रति व्यक्ति खर्च, प्रति व्यक्ति आय की वृद्धि से ज्यादा तेज दौड़ रहा था। अर्थातलोगों ने कर्ज के सहारे खर्च किया। वह दौर भी भारत में उपभोक्ता कर्जो में रिकार्ड वृद्घि का था। मैकेंजी ने एक ताजा अध्ययन में माना है कि अगले एक दशक में भारत का निजी उपभोग खर्च 1500 बिलियन डॉलर तक हो जाएगा। अर्थात खर्च का जादू जारी रहेगा।
खर्च से खुशहाल
पिछले कुछ महीनों के दौरान आए औद्योगिक उत्पादन के आंकड़े दिलचस्प सूचनाएं बांट रहे हैं। भारत में उपभोक्ता उत्पादों के उत्पादन की वृद्धि दर जनवरी के तीन फीसदी से बढ़कर अप्रैल में 14.3 फीसदी हो गई। इसमें भी कंज्यूमर ड्यूरेबल्स यानी तमाम तरह के इलेक्ट्रानिक सामान आदि का उत्पादन 37 फीसदी की अचंभित करने वाली गति दिखा रहा है और सबूत दे रहा है कि बाजार में नई ग्राहकी आ पहुंची है। भारत में उपभोक्ता खर्च के कुछ हालिया (आर्थिक समीक्षा 2009-10) आंकड़े प्रमाण हैं कि उद्योग क्यों झूम रहे हैं। उपभोक्ताओं के कुल खर्च में परिवहन व संचार पर खर्च का हिस्सा पिछले कुछ वर्षो में 20 फीसदी पर पहुंच गया है। इसे आप सीधे आटोमोबाइल व संचार कंपनियों के यहां चल रहे त्यौहार से जोड़ सकते हैं। यात्रा करने पर खर्च बढ़ने की रफ्तार बीते चार वर्षो में पांच फीसदी से बढ़कर 12.3 फीसदी हो गई है। आटोमोबाइल बढ़ा तो ईधन पर खर्च भी उछल गया। मनोरंजन, चिकित्सा, शिक्षा और यहां तक कि फर्निशिंग जैसे उद्योग उपभोक्ताओं की कृपा से बाग-बाग हुए जा रहे हैं। खाने पर खर्च की वृद्धि दर घट गई है। मार्च में कुल निजी उपभोग खर्च 35.71 लाख करोड़ रुपये रहा है, लेकिन यह भारत मंं उपभोक्ता खर्च की आधी तस्वीर है। भारत के उपभोक्ताओं का बहुत बड़ा खर्च असंगठित खुदरा बाजार में होता है। देश के पूर्व सांख्यिकी प्रमुख प्रनब सेन ने हाल में कहा था कि देश के कुल कारोबार में संगठित खुदरा कारोबार का हिस्सा पांच-छह फीसदी ही है, इसलिए भारत में खपत को सही तरह से आंकना मुश्किल है।
खर्च का शिकार
भयानक महंगाई और फिर भी बढ़ता खर्च? ..उलटबांसी ही तो है, क्योंकि महंगाई तो खर्च को सिकोड़ देती है। भारत में इस संदर्भ में पूरा परिदृश्य बड़ा रोचक है। यहां महंगाई ने खर्च को नहीं बचत को सिकोड़ा है। भारत में उपभोक्तावाद का ताजा दौर 2004-05 के बाद शुरू हुआ था, जब अर्थव्यवस्था ने आठ-नौ फीसदी की रफ्तार दिखाई। उस समय महंगाई की दर चार फीसदी के आसपास थी। आय बढ़ी, बाजार बढ़ा, सस्ते कर्ज मिले तो उपभोक्ताओं ने बिंदास खर्च किया। आय व खर्च का स्वर्ण युग 2008-09 के अंत तक चला। इसी वक्त महंगाई और मंदी ने अपने नख दंत दिखाए, जिससे खपत कुछ धीमी पड़ गई, लेकिन शॉपिंग की नई संस्कृति तो तब तक जम चुकी थी। इसलिए जैसे ही छठवें वेतन आयोग का तोहफा मिला, सरकारी कर्मचारी झोला उठाकर बाजार में पहुंच गए। हालात सुधरते ही बढ़े वेतन के साथ निजी नौकरियों वाले भी शॉपिंग लिस्ट लेकर निकल पड़े। महंगाई ने खर्च के उत्साह को यकीनन तोड़ा है, लेकिन खर्च को नहीं। खर्च के इस मौसम में कुर्बान तो हुई है बचत। उपभोक्तावाद की ऋतु के आने के बाद से आम लोगों की बचत पिछले पांच साल से औसत 22-23 फीसदी (जीडीपी के अनुपात में) पर स्थिर है। वित्तीय बचत भी अर्से से 10-11 फीसदी पर घूम रही है।
इस गफलत में रहने की जरूरत नहीं कि महंगाई असर नहीं करती। महंगाई कम और कमजोर आय वालों का खर्च चाट गई तो मध्यम आय वर्ग की बचत उसके पेट में गई है। अलबत्ता खर्च का त्यौहार जारी है और इसलिए तमाम बाधाओं के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था ने मंदी की बाजी सबसे पहले पलट दी है। चीन की कामयाबी भारी निर्यात और निवेश से निकली है, मगर भारत खपत व उपभोग की गौरव गाथा लिख रहा है, नया निवेश भी इसी उपभोग का दामन पकड़ कर आ रहा है। ..सरकार तो उपभोक्ताओं को सलाम करने से रही, लेकिन कम से कम आप तो खुद को शाबासी दे ही लीजिए.. महंगाई से जूझते हुए आपने सचमुच करिश्मा किया है।
दस फीसदी की धार से छीलती महंगाई, महंगा होता कर्ज, अस्थिर खेती, सुस्त निवेश, चरमराता बुनियादी ढांचा और सौ जोखिम भरी वित्तीय दुनिया!!!! फिर भी अर्थव्यवस्था में आठ फीसदी से ऊपर की कुलांचें? ..कुछ भी तो माफिक नहीं है, मगर गाड़ी बेधड़क दौड़े चली जा रही है। किसे श्रेय देंगे आप इस करिश्मे का? ..कहीं दूर मत जाइए, अपना हाथ पीछे ले जाकर अपनी पीठ थपथपाइए!! यह सब आपकी मेहरबानी है। आप यानी भारतीय उपभोक्ता देश की अर्थव्यवस्था को पूरी दुनिया में सबसे पहले मंदी के गर्त से बाहर खींच लाए हैं। दाद देनी होगी हिम्मत की कि इतनी महंगाई के बावजूद हम खर्च कर रहे हैं और उद्योग चहक रहे हैं। यह बात दीगर है कि इस वीरता की कीमत कहीं और वसूल हो रही है। कमाई, उत्पादन और खर्च तीनों बढ़े हैं, लेकिन आम लोगों की बचत में वृद्धि पिछले तीन-चार साल से थम सी गई है। दरअसल खर्च नही, बल्कि शायद आपकी बचत महंगाई का शिकार बनी है।
खर्च का जादू
मंदी से दूभर दुनिया में भारत की अर्थव्यवस्था इतनी जल्दी पटरी पर लौटना हैरतअंगेज है। मांग का यह मौसम कौन लाया है? भारत तो चीन की तरह कोई बड़ा निर्यातक भी नहीं है। यहां तो निर्यात हमेशा से नकारात्मक अर्थात आयात से कम रहा है। दरअसल बाजार में ताजी मांग खालिस स्वदेशी है। माहौल बदलते ही भारत के उपभोक्ताओं ने अपने बटुए व क्रेडिट कार्ड निकाल लिये और आर्थिक विकास दर थिरकने लगी। इस साल जनवरी से मार्च के दौरान भारत में उपभोग फिर 4 से 4.5 फीसदी की गति दिखाने लगा है। खासतौर पर निजी उपभोग खर्च तो मार्च में 10.4 फीसदी पर आ गया है। इसी के बूते रिजर्व बैंक नौ फीसदी की आर्थिक विकास दर की उम्मीद बांध रहा है। करीब 36 फीसदी निर्धन आबादी के बावजूद भारत का 55-60 करोड़ आबादी वाला मध्य वर्ग इतना खर्च कर रहा है कि अर्थव्यवस्था आराम से दौड़ जाए। भारत के बाजार में 60 फीसदी मांग अब विशुद्ध रूप से खपत से निकलती है। पिछले कुछ वर्षो में आय व खर्च में वृद्धि तकरीबन बराबर हो गई है। बल्कि आर्थिक सर्वेक्षण तो बताता है कि हाल की मंदी से पहले के वर्ष (2008-09) में तो प्रति व्यक्ति खर्च, प्रति व्यक्ति आय की वृद्धि से ज्यादा तेज दौड़ रहा था। अर्थातलोगों ने कर्ज के सहारे खर्च किया। वह दौर भी भारत में उपभोक्ता कर्जो में रिकार्ड वृद्घि का था। मैकेंजी ने एक ताजा अध्ययन में माना है कि अगले एक दशक में भारत का निजी उपभोग खर्च 1500 बिलियन डॉलर तक हो जाएगा। अर्थात खर्च का जादू जारी रहेगा।
खर्च से खुशहाल
पिछले कुछ महीनों के दौरान आए औद्योगिक उत्पादन के आंकड़े दिलचस्प सूचनाएं बांट रहे हैं। भारत में उपभोक्ता उत्पादों के उत्पादन की वृद्धि दर जनवरी के तीन फीसदी से बढ़कर अप्रैल में 14.3 फीसदी हो गई। इसमें भी कंज्यूमर ड्यूरेबल्स यानी तमाम तरह के इलेक्ट्रानिक सामान आदि का उत्पादन 37 फीसदी की अचंभित करने वाली गति दिखा रहा है और सबूत दे रहा है कि बाजार में नई ग्राहकी आ पहुंची है। भारत में उपभोक्ता खर्च के कुछ हालिया (आर्थिक समीक्षा 2009-10) आंकड़े प्रमाण हैं कि उद्योग क्यों झूम रहे हैं। उपभोक्ताओं के कुल खर्च में परिवहन व संचार पर खर्च का हिस्सा पिछले कुछ वर्षो में 20 फीसदी पर पहुंच गया है। इसे आप सीधे आटोमोबाइल व संचार कंपनियों के यहां चल रहे त्यौहार से जोड़ सकते हैं। यात्रा करने पर खर्च बढ़ने की रफ्तार बीते चार वर्षो में पांच फीसदी से बढ़कर 12.3 फीसदी हो गई है। आटोमोबाइल बढ़ा तो ईधन पर खर्च भी उछल गया। मनोरंजन, चिकित्सा, शिक्षा और यहां तक कि फर्निशिंग जैसे उद्योग उपभोक्ताओं की कृपा से बाग-बाग हुए जा रहे हैं। खाने पर खर्च की वृद्धि दर घट गई है। मार्च में कुल निजी उपभोग खर्च 35.71 लाख करोड़ रुपये रहा है, लेकिन यह भारत मंं उपभोक्ता खर्च की आधी तस्वीर है। भारत के उपभोक्ताओं का बहुत बड़ा खर्च असंगठित खुदरा बाजार में होता है। देश के पूर्व सांख्यिकी प्रमुख प्रनब सेन ने हाल में कहा था कि देश के कुल कारोबार में संगठित खुदरा कारोबार का हिस्सा पांच-छह फीसदी ही है, इसलिए भारत में खपत को सही तरह से आंकना मुश्किल है।
खर्च का शिकार
भयानक महंगाई और फिर भी बढ़ता खर्च? ..उलटबांसी ही तो है, क्योंकि महंगाई तो खर्च को सिकोड़ देती है। भारत में इस संदर्भ में पूरा परिदृश्य बड़ा रोचक है। यहां महंगाई ने खर्च को नहीं बचत को सिकोड़ा है। भारत में उपभोक्तावाद का ताजा दौर 2004-05 के बाद शुरू हुआ था, जब अर्थव्यवस्था ने आठ-नौ फीसदी की रफ्तार दिखाई। उस समय महंगाई की दर चार फीसदी के आसपास थी। आय बढ़ी, बाजार बढ़ा, सस्ते कर्ज मिले तो उपभोक्ताओं ने बिंदास खर्च किया। आय व खर्च का स्वर्ण युग 2008-09 के अंत तक चला। इसी वक्त महंगाई और मंदी ने अपने नख दंत दिखाए, जिससे खपत कुछ धीमी पड़ गई, लेकिन शॉपिंग की नई संस्कृति तो तब तक जम चुकी थी। इसलिए जैसे ही छठवें वेतन आयोग का तोहफा मिला, सरकारी कर्मचारी झोला उठाकर बाजार में पहुंच गए। हालात सुधरते ही बढ़े वेतन के साथ निजी नौकरियों वाले भी शॉपिंग लिस्ट लेकर निकल पड़े। महंगाई ने खर्च के उत्साह को यकीनन तोड़ा है, लेकिन खर्च को नहीं। खर्च के इस मौसम में कुर्बान तो हुई है बचत। उपभोक्तावाद की ऋतु के आने के बाद से आम लोगों की बचत पिछले पांच साल से औसत 22-23 फीसदी (जीडीपी के अनुपात में) पर स्थिर है। वित्तीय बचत भी अर्से से 10-11 फीसदी पर घूम रही है।
इस गफलत में रहने की जरूरत नहीं कि महंगाई असर नहीं करती। महंगाई कम और कमजोर आय वालों का खर्च चाट गई तो मध्यम आय वर्ग की बचत उसके पेट में गई है। अलबत्ता खर्च का त्यौहार जारी है और इसलिए तमाम बाधाओं के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था ने मंदी की बाजी सबसे पहले पलट दी है। चीन की कामयाबी भारी निर्यात और निवेश से निकली है, मगर भारत खपत व उपभोग की गौरव गाथा लिख रहा है, नया निवेश भी इसी उपभोग का दामन पकड़ कर आ रहा है। ..सरकार तो उपभोक्ताओं को सलाम करने से रही, लेकिन कम से कम आप तो खुद को शाबासी दे ही लीजिए.. महंगाई से जूझते हुए आपने सचमुच करिश्मा किया है।
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चलिए, खुद को शाबासी दे लेते हैं. अच्छा आलेख.
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