Monday, November 8, 2010

असमंजस की मुद्रा

अर्थार्थ
साख बचे तो (आर्थिक) सेहत जाए? ताज मिले तो ताकत जाए? एक रहे तो भी कमजोर और बिखर गए तो संकट घोर?? बिल्कुल ठीक समझे आप, हम पहेलियां ही बुझा रहे हैं, जो दुनिया की तीन सबसे बड़ी मुद्राओं अर्थात अमेरिकी डॉलर, चीन का युआन और यूरो (क्रमश:) से जुड़ी हैं। दरअसल करेंसी यानी मुद्राओं की पूरी दुनिया ही पेचीदा उलटबांसियों से मुठभेड़ कर रही है। व्यापार के मैदान में अपनी मुद्रा को कमजोर करने की जंग यानी करेंसी वार का बिगुल बजते ही एक लंबी ऊहापोह बाजार को घेर को बैठ गई है। कोई नहीं जानता कि दुनिया की रिजर्व करेंसी का ताज अमेरिकी डॉलर के पास कब तक रहेगा? युआन को कमजोर रखने की चीनी नीति पर कमजोर डॉलर कितना भारी पड़ेगा? क्या माओ के उत्तराधिकारियों की नई पीढ़ी युआन को दुनिया की रिजर्व करेंसी बनाने का दांव चलेगी? यूरो का जोखिम कितना लंबा खिंचेगा। क्या दुनिया में अब कई रिजर्व करेंसी होंगी? दुनिया के कुछ हिस्से आठवें दशक के लैटिन अमेरिका की तरह दर्जनों विनिमय दरों का अजायबघर बन जाएंगे? ... सवालों की झड़ी लगी है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा बाजार असमंजस में नाखून चबा रहा है।
दुविधा का नाम डॉलर
विश्व के करीब 60 फीसदी विदेशी मुद्रा भंडारों में भरा ताकतवर अमेरिकी डॉलर ऊहापोह की सबसे बड़ी गठरी है। अमेरिकी नीतियों ने डॉलर को हमेशा ताकत की दवा दी ताकि अमेरिकी उपभोक्ताओं की क्रय शक्ति महंगाई से महफूज रहे। मजबूत डॉलर, सस्ते आयात व नियंत्रित मुद्रास्फीति अमेरिका के मौद्रिक प्रबंधन की बुनियाद है। सस्ते उत्पादन और अवमूल्यित मुद्रा के महारथी चीन ने इसी नीति का फायदा लेकर अमेरिकी बाजार को अपने उत्पादों से पाटकर अमेरिका को जबर्दस्त व्यापार घाटे का तोहफा दिया है। सस्ते आयात को रोकने के लिए विश्व व्यापार में डॉलर को प्रतिस्पर्धात्मक रखना अमेरिकी नीति का दूसरा पहलू है। अलबत्ता 1980-90 में जापान ने इसे सर के बल खड़ा किया था और अब चीन इसे दोहरा रहा है। इस अतीत को पीठ पर लादे विश्व की यह सबसे मजबूत रिजर्व करेंसी अब तक की सबसे जटिल चुनौतियों से मुकाबिल है। जीडीपी के अनुपात में 62 फीसदी विदेशी कर्ज (अमेरिकी बांडों में विदेशी निवेश) अमेरिका के भविष्य पर
कालिख पोत रहा है। इसका तुरत-फुरत इलाज तो कमजोर डॉलर व ऊंची मुद्रास्फीति है ताकि कर्ज का वास्तविक मूल्य घट जाए, जबकि इस का स्थायी इलाज तेज निर्यात, आर्थिक वृद्धि और बेहतर राजस्व से निकलेगा। दोनों ही स्थितियों में कमजोर डॉलर पहली शर्त है और यहीं से अमेरिका के लिए दुविधा का दरवाजा खुलता है। डॉलर की कमजोरी का नुस्खा रिजर्व करेंसी के तौर पर दुनिया में डॉलर की साख खत्म कर देगा, क्योंकि एक कमजोर व गिरती मुद्रा पर कोई भी अपने विदेशी मुद्रा भंडारों का शामियाना नहीं बांधेगा। कमजोर डॉलर अमेरिकी बांडों की कीमत में गिरावट, निवेश रणनीतियों में उलटफेर, जिंस बाजार में तेजी जैसे दुष्चक्र शुरू कर सकता है, जिससे अमेरिका की बीमारी और बढ़ सकती है। अमेरिका को डॉलर की ताकत और घरेलू अर्थव्यवस्था की सेहत के बीच में एक को चुनना है। यही चुनाव दुनिया के मुद्रा बाजार का नया नक्शा बनाएगा, क्योंकि दुनिया की अन्य मुद्राएं डॉलर को देखकर अपने पैंतरे तय करेंगी।
ऊहापोह का युआनव्यापार बाजार के नए सूरमा की उलझन भी कम दिलचस्प नहीं है। कमजोर डॉलर चीन की दो ट्रिलियन डॉलर ( विदेशी मुद्रा भंडार) की मेहनत पर पानी फेरने लगा है। इन डॉलरों का ठिकाना तो अमेरिकी बांड ही हैं, जिनकी कीमत गिरते ही चीन को अपनी कमाई बेकार लगने लगेगी। विदेशी मुद्रा भंडार की कीमत घटना चीन के लिए एक बड़ा राष्ट्रीय नुकसान है। इसलिए डॉलर बटोरने पर दुविधा लाजिमी है। हालांकि डॉलर को टूटता देख विश्व नई रिजर्व करेंसी के लिए युआन पर दांव लगा सकता है, मगर इसी बिंदु से चीन के लिए असमंजस के अंधेरे की शुरुआत हो जाती है। घटते डॉलर की मार से अपने विदेशी मुद्रा खजाने को बचाने और दुनिया की रिजर्व करेंसी बनने का दांव लगाने के लिए चीन को अपने युआन में ताकत भरनी होगी। जबकि चीन में तो डॉलरों के ढेर से लेकर तेज विकास तक सारा करिश्मा इसी कमजोर युआन का है। यानी मजबूत युआन का मतलब है निर्यात व आर्थिक विकास के फायदों से समझौता। चीन के लिए फैसला करना आसान नहीं है, क्योंकि उसका समाधानडॉलर की दुविधाओं का भविष्य तय करेगा। अगर युआन मजबूत हुआ तो अमेरिका सहित बहुतों की समस्याओं का हल मिल जाएगा है। इनमें पिछले बीस साल में चार बार मंदी झेलने वाला जापान भी है, जो निर्यात बढ़ाने के लिए येन को कमजोर करना चाहता है यानी कि युआन की मजबूती से जापान का पुनरोद्धार भी निकलेगा।
दोराहे पर यूरो
रिजर्व करेंसी की संभावनाओं और उम्मीदों के साथ जन्मा यूरो का कुनबा इसे रखने या छोडऩे के असमंजस में फंसा है। यूरोप की 16 बेमेल (फ्रांस, जर्मनी जैसी बड़ी और साइप्रस व माल्टा जैसी छोटी) अर्थव्यवस्थाओं ने यूरो के फायदे कितने बांटे यह तो पता नहीं, लेकिन संकट बहुत कायदे से बंटा और पूरे यूरोप की रीढ़ कांप गई। ग्रीस, पुर्तगाल, स्पेन को देख यूरोपीय मुद्रासंघ ने सख्ती के शिकंजे कसे हैं, लेकिन जर्मनी, फ्रांस जैसे दिग्गज ताजा संकट से हिल गए हैं। वक्त की करवट से पता चलेगा कि फ्रांस, जर्मनी अपने मार्क फ्रैंक लेकर अलग हो जाएंगे या उनकी ताकत के सहारे यूरो बना रहेगा। इधर ब्रिटेन में ताजा कर्ज ब्रिटिश पौंड के भविष्य को भी दांव पर लगा रहा है।
दरअसल सबसे बड़ा रहस्य भावी रिजर्व करेंसी को लेकर है। डॉलर, युआन व यूरो की परस्पर विरोधी दुविधाएं मिलकर इस गुत्थी को सख्त करती जा रही हैं। पहली बड़ी लड़ाई से पहले तक दुनिया का ज्यादातर कारोबार ब्रिटिश पौंड, फ्रेंच फ्रैंक व जर्मन मार्क में होता था। कुछ वर्षों तक अमेरिकी डॉलर व पौंड ने इस ताज का साझा किया और फिर उसके बाद यूरो के आने तक अमेरिकी डॉलर अकेली प्रमुख रिजर्व करेंसी बना रहा। ताजी ऊहापोह के बाद अब दुनिया में कई रिजर्व करेंसी होने के आकलन हैं और विदेशी मुद्रा भंडारों का 40 फीसदी हिस्सा समेटे विविध मुद्राएं इन विश्लेषणों को मजबूत कर रही हैं। लेकिन यह कोई नहीं जानता कि अगर बहुसंख्य करेंसी का दौर आया तो करीब चार ट्रिलियन डॉलर के दैनिक कारोबार वाले मुद्रा बाजार को दर्जनों विनिमय दरों की अस्थिरता और कई मुद्राओं के जोखिमों से बचाने का इंतजाम क्या होगा? 1980 के दशक में लैटिन अमेरिका मुद्राओं और विनिमय दरों की एक कष्टप्रद प्रयोगशाला बन गया था, हैरत की बात नहीं कि दुनिया के किसी बड़े हिस्से में यह प्रयोगवाद फिर दोहरा दिया जाए। मुद्राओं (करेंसी) की दुनिया में इस समय असमंजस की मुद्रा बड़ी मजबूत है, शायद किसी बड़ी उथल-पुथल का इंतजार हो रहा है।
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