अर्थार्थ
जरा देखिये तो शर्म से लाल हुए चेहरों की कैसी अंतरराष्ट्रीय नुमाइश चल रही है। अमेरिका से अरब तक और भारत से यूरोप तक मुंह छिपा रहे राजनयिकों ने नहीं सोचा था कि विकीलीक्स ( एक व्हिसिल ब्लोइंग वेबसाइट) सच की सीटी इतनी तेज बजायेगी कि कूटनीतिक रिश्तों पर बन आएगी। दुनिया के बैंक समझ नहीं पा रहे हैं कि आखिर सब उनकी कारोबारी गोपनीयता को उघाड़ क्यों देना चाहते हैं। कहीं (भारत में) कारोबारी लामबंदी बनाम निजता बहस की गरम है क्यों कि कुछ फोन टेप कई बड़े लोगों को शर्मिंदा कर रहे हैं। अदालतें सरकारी फाइलों में घुस कर सच खंगाल रही हैं। पूरी दुनिया में पारदर्शिता के आग्रहों की एक नई पीढ़ी सक्रिय है, जो संवेदनशीलता, गोपनीयता,निजता की मान्यताओं को तकनीक के मूसल से कूट रही है और सच बताने के पारंपरिक जिम्मेंदारों को पीछे छोड़ रही है। कूटनीति, राजनीति, कारोबार सभी इसके निशाने पर हैं। कहे कोई कुछ भी मगर, घपलों, घोटालों, संस्थागत भ्रष्टाचार और दसियों तरह के झूठ से आजिज आम लोगों को यह दो टूक तेवर भा रहे हैं। दुनिया सोच रही है कि जब घोटाले इतने उम्दा किस्म के हो चले हैं तो फिर गोपनीयता के पैमाने पत्थर युग के क्यों हैं ?
खतरनाक गोपनीयता
ग्रीस की संप्रभु सरकार अपने कानूनों के तहत ही अपनी घाटे की गंदगी छिपा रही थी। पर्दा उठा तो ग्रीस ढह गया। ग्रीस के झूठ की कीमत चुकाई लाखों आम लोगों ने, जो पलक झपकते दीवालिया देश के नागरिक बन गए । यूरोप अमेरिका की वित्तीय संस्थामओं ने नीतियों के पर्दे में बैठकर तबाही रच दी। अमेरिका लेकर आयरलैंड तक आम लोग अपने बैंकों के दरवाजे पीट कर यही तो पूछ रहे हैं कि यह कैसी कारोबारी गोपनीयता थी जिसमें उनका सब कुछ लुट
गया। एनरॉन, वर्ल्ड कॉम से लेकर सत्यम और एलआईसी हाउसिंग तक सब इसी किस्म की गोपनीयता की खौफनाक नजीरें हैं। अमेरिका में प्रति सांसद लॉबीइंग का खर्च दो लाख डॉलर पर पहुंच रहा है। करीब 1600 लाबीइंग एजेंसियां नीतियों को अपने हिसाब से मोड़ने पर 2.8 अरब डॉलर फूक डालती हैं। ब्रसेल्स में 1500 कंपनियां यूरोपीय समुदाय की नीतियों को प्रभावित करने के पेशे में लगी हैं। हमारे यहां नीरा राडिया जैसे कई इनकी नुमाइंदगी करते हैं। जनता को यह जानने का हक है कि कारोबारी या नीतिगत गोपनीयता के पीछे क्यां है। इसलिए भारत के एक प्रतिष्ठित कारपोरेट घराने को जिस टेप से निजता की सीमायें टूटती दिखती हैं उसी में अगर जनता को कारोबारी ईमानदारी का जनाजा निकलता दिखे तो क्या बुरा है। भ्रष्टा राजनेताओं,लालची कंपनियों और धोखेबाज बैंकों ने पारदर्शिता बनाम गोपनीयता के पुराने पैमानों को सर के बल खड़ा कर दिया है। गोपनीयता की मौजूदा परंपरा संकट पालने लगी है। मगर मुश्किल यह है कि इतने कड़े खोल तोड़ कर सच बताने के लिए जिद्दी किस्म के नए प्रतिष्ठानों की जरुरत पड़ती है। विकीलीक्स वाकई धमाकेदार है।
गया। एनरॉन, वर्ल्ड कॉम से लेकर सत्यम और एलआईसी हाउसिंग तक सब इसी किस्म की गोपनीयता की खौफनाक नजीरें हैं। अमेरिका में प्रति सांसद लॉबीइंग का खर्च दो लाख डॉलर पर पहुंच रहा है। करीब 1600 लाबीइंग एजेंसियां नीतियों को अपने हिसाब से मोड़ने पर 2.8 अरब डॉलर फूक डालती हैं। ब्रसेल्स में 1500 कंपनियां यूरोपीय समुदाय की नीतियों को प्रभावित करने के पेशे में लगी हैं। हमारे यहां नीरा राडिया जैसे कई इनकी नुमाइंदगी करते हैं। जनता को यह जानने का हक है कि कारोबारी या नीतिगत गोपनीयता के पीछे क्यां है। इसलिए भारत के एक प्रतिष्ठित कारपोरेट घराने को जिस टेप से निजता की सीमायें टूटती दिखती हैं उसी में अगर जनता को कारोबारी ईमानदारी का जनाजा निकलता दिखे तो क्या बुरा है। भ्रष्टा राजनेताओं,लालची कंपनियों और धोखेबाज बैंकों ने पारदर्शिता बनाम गोपनीयता के पुराने पैमानों को सर के बल खड़ा कर दिया है। गोपनीयता की मौजूदा परंपरा संकट पालने लगी है। मगर मुश्किल यह है कि इतने कड़े खोल तोड़ कर सच बताने के लिए जिद्दी किस्म के नए प्रतिष्ठानों की जरुरत पड़ती है। विकीलीक्स वाकई धमाकेदार है।
नए सच नए प्रवक्ता
उड़ीसा के लांजीगढ़ में खनन कंपनी वेदांत की कारगुजारी स्वेयंसेवी संगठनों के जरिये दुनिया के सामने आई। मंत्री से लेकर प्रधानमंत्री से सबको कठघरे में खड़ा करने वाला स्पेक्ट्रम घोटाला अदालत के पास एक एनजीओ के जरिये पहुंचा। एक पुलिसवाले ने छद्म नाम से लिखे अपने ब्लॉग में ब्रिटेन की पुलिस की पोल खोल दी तो ताजा वित्तीय संकट की चेतावनी बाजार के पहरेदारों से नहीं बल्कि अर्थशास्त्रियों के बौद्धिक विमर्श से निकली। यकीनन पूरी दुनिया अपने राजनबयिकों से ऐसे दोहरे आचरण की अपेक्षा नहीं रखती जैसा कि विकीलीक्स के केबलगेट में दिखा है। भ्रष्ट और रिश्वतखोर दुनिया का चेहरा अब ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल जैसे एनजीओ दिखाते हैं। पर्यावरण और आदिवासी हितों से जुड़े सच अब और कोई बोल रहा है। भारत में अदालतें सरकारी फाइलों को खोलकर सच निकलवाती हैं हालांकि उनके आंगन में भी बड़ी गंदगी है। इस सबके बीच, सच बताने वाले पारंपरिक प्रतिष्ठानों (मीडिया, नियामक, संवैधानिक पहरुए) का नेपथ्य में चला जाना हैरतंअगेज है। सभी लोकतंत्रों में एक ऐसा तंत्र जरुर है जो सिर्फ पारदर्शिता तय करने के लिए बना है, मगर इन सैकड़ों के किस्म के नियामकों के मुंह से वक्त पर कभी कोई सच्ची चेतावनी नहीं फूटती। सच बोलने के आग्रहों पर अदना समझौते भारी पड़ रहे हैं इसलिए लोग भी अब सच के नए प्रवक्ताओं की तरफ देखने लगे हैं। सूचना का संसार गजब का लोकतांत्रिक है। अखबारों व टीवी चैनलों की सुर्खियां विकीलीक्स से बनती है।
अपवाद नहीं आदत
विकीलीक्स या टेपलीक्स या एनजीओ की सक्रियता का स्वागत है लेकिन इस तरह के उत्साही प्रयोगों के जरिये साफ सफाई की अपनी सीमा है। पारदर्शिता आंदोलन से नहीं आती बल्कि यह एक लोकतांत्रिक संस्कार है। हर सिस्टम को इसकी आदत होनी चाहिए और इसे सुनिश्चित करने वाले प्रतिष्ठानों को अपनी प्रतिष्ठा के मुताबिक चलना चाहिए। अमेरिका में जब वर्ल्डकॉम डूबी तो कंपनियों में साफ सुथरी अकाउंटिंग के लिए सरबेंस ऑक्सले एक्ट बना मगर बैंक इससे बाहर रह गए सो उनकी क्रियेटिव अकाउंटिंग ने विभीषिका रच दी। अब अमेरिका सबसे सख्त वित्तीय नियमों में महारथ हासिल कर रहा है। यूरोप बैंकों का स्ट्रेस टेस्ट ले रहा है और विभिन्न देशों के बजटों में पेंचदार गलियां बंद की जा रही हैं। ब्रिटेन का ऑफिस ऑफ फेयर ट्रेडिंग कंपनियों के कार्टेलों की खुफिया जानकारी जुटाने के लिए लाखों पाउंड ईनाम देता है। अमेरिका में फाल्स क्ले्म एक्ट भी ऐसी कोशिश है। दरअस झूठ और घोटाले जितने बढ़ते हैं पारदर्शिता के आग्रह के उतने सघन होते जाते हैं। हर नया घोटाला गोपनीयता का एक पर्दा नोच देता है और एक नया कानून या नियामक उस पर्दे को खुला रखने की ड्यूटी पर तैनात हो जाता है। तभी तो हर बैंक की पूंछ उठाकर (बाजार की भाषा में टेल रिस्क) असलियत जानने का दौर शुरु हो चुका है।
अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (आईएईए) दुनिया परमाणु संयंत्रों में शायद न भी झांक पाए मगर एक अंतरराष्ट्रीय नियामक दुनिया के हर देशों व उनके बैंकों की बैलेंस शीट में जल्दं ही झांकने लगेगा। ताकि यह पता चले कि वित्तीय विध्वंस के कितने हथियार कहा जमा हैं। संप्रभुता का पर्दा भी तो अब मंजूर नहीं है क्यों कि एक लेहमैन, ग्रीस या आयरलैंड अपनी संप्रभुता की ओट लेकर पूरी दुनिया को रुला सकते हें। गोपनीयता के पैरोकार अक्सर यह भूल जाते हैं कि पारदर्शिता समाज पर किया गया कोई अहसान नहीं है। यह एक स्वाभाविक व्यवस्था है, जिसमें सब बंधे हैं और जिसके टूटने पर सबको भुगतना पड़ता है। घोटालों की जली दुनिया को कोई पर्देदारी मंजूर नहीं है। आम लोग कुछ खतरनाक छिपे रह जाने को लेकर बेचैन हैं। सच के कुछ ज्यादा उघड़ जाने से शायद उन्हें बहुत दिक्कत नहीं है। दअरसल सच का भी तो अपना एक बाजार है, जो आजकल बहुत गरम है। फरेब की आपूर्ति भी तो कितनी बढ़ गई है।. है न ?
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- पारदर्शिता में भी बहुत कुछ छिपता है, an enigmatic world of cognitive biases and behavioral economics http://anayrathanshuman.blogspot.com/2010/06/blog-post.html
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