अर्थार्थ
अगर आर्थिक सुधारों के लिए संकट जरुरी है तो भारत सौ फीसदी यह शर्त पूरी करता है। यदि संकट टालने के लिए सुधार जरुरी हैं तो हम यह शर्त भी पूरी करते हैं। और यदि संतुलित ढंग से विकसित होते रहने के लिए सुधार जरुरी हैं तो भारत इस शर्त पर भी पूरी तरह खरा है। यानी कि आर्थिक सुधारों की नई हवा अब अनिवार्य है। लेकिन कौन से सुधार ?? प्रधानमंत्री (ताजी प्रेस वार्ता) की राजनीतिक निगाहों में खाद्य सुरक्षा, ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन नए सुधार हैं लेकिन उद्योग कहता है उहं, यह क्या् बात हुई ? सुधारों का मतलब तो विदेशी निवेश का उदारीकरण, वित्तीसय बाजार में नए बदलाव, बुनियादी ढांचे में भारी निवेश आदि आदि है।... दरअसल जरुरत कुछ हाइब्रिड किस्म के सुधारों की है यानी सामाजिक व आर्थिक दोनों जरुरतों को पूरा करने वाले सुधार। हम जिन सुधारों की बात आगे करेंगे वह किसी बौद्धिक आर्थिक विमर्श से नहीं निकले बल्कि संकटों के कारण जरुरी हो गए हैं। यदि यह बजट इन्हें या इनकी तर्ज (नाम कोई भी हो) पर कुछ कर सके तो तय मानिये कि यह असली ड्रीम बजट होगा क्यों कि यह उन उम्मीदों और सपनों को सहारा देगा जो पिछले कुछ महीनों दौरान टूटने लगे हैं।
स्पेशल एग्रीकल्चर जोन
हम बडे नामों वाली स्कीमों के आदी हैं इसलिए इस सुधार को एसएजेड कह सकते हैं। मकसद या अपेक्षा खेती में सुधार की है। केवल कृषि उत्पादों की मार्केटिंग के सुधार की नहीं (जैसा कि प्रधानमंत्री सोचते हैं और खेती का जिम्मा राज्यों के खाते में छोड़ते हैं।) बल्कि खेती के कच्चे माल (जमीन, बीज, खाद पानी) से लेकर उत्पादन तक हर पहलू की। अब देश में फसलों के आधार पर विशेष् जोन
तय किये जाने चाहिए। मसलन अमुक राज्य जिले के अमुक जिले अनाज उत्पादन जोन होंगे और कुछ दूसरे जिले तिलहन दलहन, कपास जोन। सरकार जब स्पेशल इकोनॉमिक जोन, एक्सेपोर्ट प्रोसेसिंग जोन आदि आदि बना सकती है और किसी क्षेत्र में किसी विशेष उद्योग को प्रतिबंधित या् प्रोत्साहित कर सकती है तो एग्री जोन बना कर किसी क्षेत्र में चुनिंदा फसलों के संगठित उत्पादन को भी सुनिश्चित किया जा सकता है वह भी भूमि की मिल्कियत बदले बिना। इन एग्री जोन को इकोनॉमिक जोन की तरह बुनियादी ढांचे, शोध, नए प्रयोग, भंडारण, पारदर्शी बाजार आदि से लैस किया जा सकता है। यही रणनीतिक जोन क्षेत्रीय बाजारों का अनाज कटोरा बन जाएंगे। इधर दूसरी तरफ शहरों के इर्दगिर्द स्पेशल हार्टीकल्चर जोन इस सुधार को पूरा कर देंगे। यानी सिर्फ सब्जियों के उत्पादन के लिए संरंक्षित क्षेत्र, बिल्डरों की धमा चौकड़ी से महफूज। क्यों कि सरकारी हार्टीकल्चर पता कहां चल रही है सब्जियों फलों की कीमतें तो शहरी उपभोक्ताओं को निचोड़ रही हैं। पूरा सुधार दरअसल अनाज उत्पादन के क्षेत्रीय केंद्रीकरण और सब्जियों की उपज को विकेंद्रीकृत करने का है। एक पहलू पर हमें उपज का बड़ा और संगठित पैमाना चाहिए जबकि दूसरे पहलू पर बाजारों के निकट उत्पादन। इसके बस कृषि उपजों की अंतरराज्यीय आवाजाही मुक्त हो जाए तो बाकी काम बाजार खुद कर लेगा। यानी खेती में निवेश, रोजगार, कमाई भी और खाद्य उत्पादों की महंगाई का इलाज भी।
तय किये जाने चाहिए। मसलन अमुक राज्य जिले के अमुक जिले अनाज उत्पादन जोन होंगे और कुछ दूसरे जिले तिलहन दलहन, कपास जोन। सरकार जब स्पेशल इकोनॉमिक जोन, एक्सेपोर्ट प्रोसेसिंग जोन आदि आदि बना सकती है और किसी क्षेत्र में किसी विशेष उद्योग को प्रतिबंधित या् प्रोत्साहित कर सकती है तो एग्री जोन बना कर किसी क्षेत्र में चुनिंदा फसलों के संगठित उत्पादन को भी सुनिश्चित किया जा सकता है वह भी भूमि की मिल्कियत बदले बिना। इन एग्री जोन को इकोनॉमिक जोन की तरह बुनियादी ढांचे, शोध, नए प्रयोग, भंडारण, पारदर्शी बाजार आदि से लैस किया जा सकता है। यही रणनीतिक जोन क्षेत्रीय बाजारों का अनाज कटोरा बन जाएंगे। इधर दूसरी तरफ शहरों के इर्दगिर्द स्पेशल हार्टीकल्चर जोन इस सुधार को पूरा कर देंगे। यानी सिर्फ सब्जियों के उत्पादन के लिए संरंक्षित क्षेत्र, बिल्डरों की धमा चौकड़ी से महफूज। क्यों कि सरकारी हार्टीकल्चर पता कहां चल रही है सब्जियों फलों की कीमतें तो शहरी उपभोक्ताओं को निचोड़ रही हैं। पूरा सुधार दरअसल अनाज उत्पादन के क्षेत्रीय केंद्रीकरण और सब्जियों की उपज को विकेंद्रीकृत करने का है। एक पहलू पर हमें उपज का बड़ा और संगठित पैमाना चाहिए जबकि दूसरे पहलू पर बाजारों के निकट उत्पादन। इसके बस कृषि उपजों की अंतरराज्यीय आवाजाही मुक्त हो जाए तो बाकी काम बाजार खुद कर लेगा। यानी खेती में निवेश, रोजगार, कमाई भी और खाद्य उत्पादों की महंगाई का इलाज भी।
सॉवरिन वेल्थ फंड
हम मांग नहीं आपूर्ति की किल्लात से जूझ रहे हैं , एक दूसरे अर्थों में यह अपेक्षा के मुताबिक क्षमताओं की कमी है। आपूर्ति की पुरानी किल्लो तो बुनियादी ढांचे में है, जबकि खनिजों व कच्चे माल कमी अब नई चुनौती है। यह दोनों मिलकर उत्पादन की लागत और नतीजतन महंगाई बढ़ा रहे हैं। दोनों के इलाज के लिए भारत अब एक सॉवरिन वेल्थ फंड की बना सकता है, जिससे विदेशी मुद्रा भंडार का सही इस्तेलमाल हो। यह फंड देश के भीतर बुनियादी ढांचा बनाने के काम आएगा और विदेश में संसाधन खरीदने में , क्यों कि ईंधन से लेकर खनिज तक भारत की अर्थव्यवस्था की खुराक अब केवल देशी स्रोतों से पूरी नहीं हो सकती। चीन ने इसी तरह के फंड के सहारे दुनिया अफ्रीका में यूरेनियम से लेकर आस्ट्रेलिया में कोयले तक और ग्रीस में बंदरगाह से लेकर फ्रांस अंगूर के बागों तक बहुत कुछ खरीद लिया है। नौ फीसदी की ग्रोथ के खुराक के लायक बिजली, सड़क, रेल, पुल बंदरगाह कुछ भी हमारे पास नहीं हैं। इधर बुनियादी ढांचे के लिए सरकार के पास पैसा नहीं है। निजी क्षेत्र से भागीदारी (पीपीपी) का मंत्र जाप चल रहा है मगर निजी क्षेत्र को लंबी अवधि की पूंजी जुटाने का जरिया चाहिए। बस एक वेल्थ फंड और अच्छा व गहरा बांड बाजार। यह दोनों मिलकर बिजली सड़क की आपूर्ति व बुनियादी ढांचे की समस्या हल कर सकते हैं। इसके बाद भारत की उद्यमिता रोजगार भी दे देगी, अपना रास्ता निकाल लेगी और सस्ता माल भी बेच लेगी।
उद्योग रोजगार गारंटी स्कीम
श्रमिकों की कमी आने वाले वर्षों में भारत की सबसे बड़ी चुनौती है। देश के अधिकांश उद्योग खासतौर पर भारी रोजगार देने वाले छोटे उद्योग श्रमिकों की कमी से जूझ रहे हैं जबकि मनरेगा गांवों में कच्चा विकास कर रही है। रोजगार की कोई ऐसी गारंटी लंबी व टिकाऊ नहीं हो सकती जो सरकार के बजट में सब्सिडी का छेद बढ़ाती जाए और दूसरी तरफ रोजगार देने वाली फैक्ट्रियों बाहर कर्मचारियों की आवश्य कता बताने वाले बोर्ड टंगे रहें। मनरेगा को उद्योगों से जोड़ना जरुरी है। आज नहीं तो दो साल बाद सरकार को यह करना ही होगा क्योंट कि मनरेगा के तहत होने वाले कामों की एक सीमा है और सबसे बड़ी बात यह कि स्थायी रोजगार ही असली रोजगार है जो सिर्फ उद्योग ( या उद्योग की तर्ज पर खेती भी) दे सकते हैं। मनरेगा को भ्रष्टाचार का कीड़ा लग गया है, कुछ दिन बाद यह अफसर रोजगार गारंटी स्कीम हो जाएगी। अगर सरकार इसे लघु उद्योगों से जोड़ दे तो शायद रोजगार की गारंटी मजबूत व पारदर्शी होगी। अब उद्योगों को भी यह समझ में आ गया श्रमिकों को उचित वेतन देना ग्रोथ की गारंटी है। मनरेगा को औद्योगिक रोजगार से जोड़ने से यह कौशल आधारित स्कीम हो जाएगी और हमें अकुशल की जगह कुशल श्रमिकों के बाजार के तरफ बढ़ने में मदद करेगी।
प्रधानमंत्री सुधारों के सवाल पर सब्सिडी वाली लोकलुभावन स्कीमें गिनाने लगते हैं। पता नहीं यह गफलत है या फिर एक अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री के लिए सुधारों की परिभाषा ही बदल गई है। अलबत्ता। वक्त अब आर्थिक व सामाजिक सुधारों की एक नई हाइब्रिड पीढी को आवाज दे रहा है। आर्थिक व सामाजिक कारकों ने मिलकर महंगाई, बुनियादी ढांचा, आपूर्ति, श्रम जैसी ताजी चुनौतियां को गढ़ा है इसलिए इनका इलाज भी साझा होना चाहिए। थोड़ी सी नई सोच, दूरगामी नजरिया, कुछ साहस, जरुरी पारदर्शिता, थोड़ा सा राष्ट्र प्रेम और कुछ मुट्ठी ईमानदारी चाहिए, बस इसके बाद का बाकी काम देश की महाप्रतापी जनता खुद कर लेगी। महंगाई और भ्रष्टाचार ने अर्थव्यिवस्था में उत्साह को तोड़ दिया है। मगर उम्मीदें मरी नहीं हैं वह बजट उंगली पकड़ कर खड़ी होना चाहती हैं। सुधारो के तीसरे दशक के इस पहले बजट पर बहुत कुछ निर्भर है। इसलिए माननीय वित्त मंत्री जी! बजट को नए सुधारों की पिच पर टिकाइये और जौहर दिखाइये।.... देश दम साध कर 28 फरवरी के फाइनल का इंतजार कर रहा है।
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