Monday, June 27, 2011

पारदर्शिता का खौफ

र सबको लगता है.. सरकारों को भी। पारदर्शिता के खौफ से सर्वशक्तिमान सरकारें भी ठंडा पसीना छोड़ जाती हैं। पारदर्शिता की एक मुहिम ताकत की तलवारों से लैस और कानूनों के कवच में घिरे सत्ता प्रतिष्ठानों को चूजा बना देती है। भारत में इस समय पारदर्शिता से डरे चेहरों की परेड चल रही है। हमारे पास एक बेचैन सरकार है जो पारदर्शिता के आग्रहों से घबरा कर जंग लगे तर्कों के खोल में घुस गई है और युवा, खुलते व उदार होते देश पर अपनी जिद लाद रही है। पारदर्शिता से मुंह चुराता हुआ एक विपक्ष भी हमें मिला है जो अजीबोगरीब तर्कों की कला‍बाजियों से देश का मन बहला रहा है। यकीनन, पारदर्शिता का खौफ बड़ा विकट है। यह डर लोकपाल का है ही नहीं, राजनेताओं का कुनबा तो दरअसल अपने विशेषाधिकारों, विवेकाधिकारों व कानून से परे दर्जे को बचाने के लिए कांप रहा है जो पारदर्शिता की ताजी कोशिशों के कारण खतरे में हैं। पूरी सियासत सत्ता के शिखरों (प्रधानमंत्री, सुप्रीम कोर्ट आदि आदि) लेकर नीचे तक सब कुछ ढंका छिपा रखना चाहती है। नेताओं पर पारदर्शिता का यह आतंक भूमंडलीय किस्म का है। भ्रष्टाचार विरोधी कोशिशें पूरी दुनिया में, भारत जैसी ही जिदों से टकरा रही हैं। भारत तो विशेषाधिकारों का जंगल है। इसलिए पारदर्शिता की हांक लगते ही छिपने-छिपाने के आग्रह हमलावर हो गए हैं। गौर से देखिये विरोध करने वालों या जवाब से बचने वालों की दाढी में बहुत से तिनके हैं।
सीजर की बीबियां
पॉम्पेयी को तलाक देते हुए जूलियस सीजर ने यूं ही नहीं कहा था कि सम्राट की पत्नी को संदेह से परे (सीजर्स वाइफ मस्ट बी अबव सस्पिशन) होना चाहिए। सार्वजनिक जीवन में शुचिता के इस महामंत्र को सीजर की तमाम आधुनिक बीबियां यानी राजनेता (अपने प्रधानमंत्री भी) उवाचते रहे हैं। मगर पारदर्शिता का कत्ल इन बड़ों के दफ्तर में ही होता है। दुनिया राजनीतिक भ्रष्टाचार पर देर से जागी है। आठवें दशक के अंत में कुछ बड़े जन आंदोलनों ( चीन, ब्राजील, बंगलादेश, फिलीपींस) के बाद भ्रष्टाचार के खिलाफ राष्ट्रीय व बहुपक्षीय मुहिम ( इंटर अमेरिकन कन्वेशन अगेंस्ट करप्‍शन 1996, ओईसीडी कन्वेशन अगेंस्ट ब्राइबरी 1997, यूएन कोड ऑफ कंडक्ट फॉर पब्लिक आफिशियल्‍स 1996 ) शुरु हुईं जो दिसंबर 2003 में भ्रष्टाचार पर संयुक्त राष्ट्र की सहमति तक पहुंची। मगर इसके बाद की राह
राजनेताओं के विशेषाधिकार व कानून से ऊपर दर्जे (प्रिविलजेज एंड इम्यूनिटीज) ने रोक ली है। प्रतिष्ठित अंतरराष्‍ट्रीय गैलप सर्वेक्षण में 63 फीसदी लोगों ने नेताओं के मिले इस खास दर्जे को भ्रष्टाचार की जड़ बताया था क्यों कि पारदर्शी जांच के लिए कानून की निगाह में सबका समान होना जरुरी है। जनप्रतिनिधियों को विशेषाधिकारों ब्रितानी व फ्रांसीसी दोनों मॉडल इस्तेहमाल में आते हैं। एक के तहत चुने हुए नुमाइंदों को कानून व अदालत, अपनी बात रखने से नहीं रोक सकते। जबकि फ्रांसीसी मॉडल यह आजादी तो देता है मगर प्रतिनिधि सभा (विधायिका) इसे सीमित कर सकती है। संसदीय और न्याआयिक विशेषाधिकारों की हर देश में अपनी               व्यवस्था है, जिसमें सांसदों के लिए गिरफ्तारी से बचने का अधिकार तक है। विशेषाधिकारों के तंत्र ने ऐसे लोगों का समूह तैयार कर दिया है, जो कानून से ऊपर और लोकतंत्र पर भारी हैं।
विरोधियों की जमात
राजनेताओं की यह चालाक और ताकतवर जमात आसानी से मानती कहां है, इसलिए भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम के हाथ सफलतायें देर से लगती हैं और आंदोलन धैर्य की चरम परीक्षा होते हैं। पारदर्शिता का गला घोंटने की कोशिशें हमारे ताजा इतिहास के दागदार किस्से हैं। इटली के प्रधानमंत्री सिल्वियो बर्लुस्कोनी ने 2003 में संसद के कानून के सहारे खुद को अभियोजन से परे कर लिया। पिछले साल अक्टूबर में संसद ने यह कानून बदला और तब जाकर बर्लो जांच के दायरे में आए। सन 2000 में कजाकस्तान का राष्ट्रपति बनते ही में नूरसुल्तांन नजरबायेव ने खुद को आजीवन अभियोजन से मुक्त घोषित कर दिया। 2003 में यही काम किर्गिजिस्तान के राष्टपति अस्कर अकायेव ने किया। 2003 में फ्रांस के राष्ट्रपति जैक शिराक भ्रष्टाचार के आरोपों और अपने विशेषाधिकार बढ़वाने की कोशिशों के कारण विवाद में घिरे थे। पिछले एक दशक के दौरान दुनिया में कम से कम छह ऐसे मामले आए हैं जब राष्ट्राध्यक्षों या संसद के स्तर पर विशेषाधिकार बढ़ाए गए हैं। किर्गीज व कजाकस्तान, फ्रांस इटली जैसे ही ग्रीस, ग्वाटेमाला और अजरबैजान में सियासत ने इसी तर्ज पर नई ताकत हासिल कर ली और पारदर्शिता की कोशिशों को ठिकाने लगा दिया। कानून से ऊपर रहने के अधिकार बचाने के लिए पक्ष विपक्ष हमेशा एक हो जाते हैं, इसलिए नीचे वाले राजनीतिक शीर्ष को पारदर्शिता से बचाते हैं और शीर्ष नेतृत्‍व अपने अनुयायियों को। भारत में यह स्थिति साफ देखी जा सकती हैं।
उम्मीद की रोशनी
सिब्बल साहब कहते रहे कि दुनिया में कहीं कुछ नहीं बदला मगर नेताओं के विशेषाधिकारों कतरने व छीनने की कोशिशें सफल हो रही हैं। अल्बानिया ने इस फरवरी में पूर्व राष्ट्रपति का विशेषाधिकार छीन कर उन्हें जांच के सामने धकेल दिया। नेपाल में संसद की इजाजत के बिना प्रधानमंत्री व सांसदों के खिलाफ जांच शुरु करने का कानून मंजूर हो चुका है। 2002 में निकारागुआ की संसद ने पूर्व राष्ट्रपति का विशेषाधिकार खत्म कर दिया और जाम्बिया की संसद व सुप्रीम कोर्ट ने मिलकर (2003) राष्ट्रपति चिलुबा का विशेषाधिकार निरस्त कर दिया। आदर्श व्यवस्था की एक थाती नीदरलैंड के पास 1884 से है, जहां चुने हुए प्रतिनिधि आपराधिक व कानूनी मामलों में आम नागरिक जैसे हैं, विशेषाधिकार केवल संसद में कामकाज तक सीमित हैं। इसे आजमाने की कोशिश कई जगह हो रही है। बेल्जियम में पुलिस सांसदों के यहां छापा मारने व जांच को स्वतंत्र है। स्वीडन व फिनलैंड सांसदों विशेषाधिकार कम कर रहे हैं। दरअसल जन प्रतिनिधियों को विशेषाधिकार लोकतंत्र की हिफाजत के लिए मिले थे जो अब भ्रष्टतंत्र का कवच बन गए हैं। कोई जिंदा समाज आखिर कब तक यह होते देख सकता है।
 लोग यह समझ नहीं पाते पारदर्शिता की रोशनी से सियासत व सरकारें क्यों डरती हैं। आखिर वह छिपाना क्या चाहती हैं। खौफ दरअसल अपने खास होने का दर्जा छिन जाने का है। सियासत से समाज सेवा जैसे तर्क बोदे हैं, कानून से ऊपर होना ही सियासत के पेशे का एकलौता आकर्षण है। सियासत वीआईपी हो कर राज करने का नाम है जबकि पारदर्शिता इसे नियमों में बंधी ड्यूटी बना देती है। मगर समस्या यह है कि सत्‍ता के शिखरों को कानून से परे रखकर मिलने वाली पारदर्शिता सिर्फ कॉमेडी ही होगी। सीजर की बीबियां ( जनसेवक, जनप्रतिनिधि) अब खुले अपराधों में गले तक धंसी हैं, इसलिए लोग सियासत के पर्दे नोचने को बेताब हैं। 2002 में निकारागुआ में पांच लाख लोगों ने एक जन याचिका जरिये भ्रष्ट राष्ट्रपति अर्नाल्डो अलेमान पर मुकदमा चलाने के लिए संसद को बाध्य कर दिया था। आंदोलन, अदालत या वोट .. रास्ता कोई भी हो सकता है लेकिन सीजर की बीबियों को शक से परे होना ही चाहिए। इससे कम में काम नहीं चलेगा।
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