बाल बाल बचा !!! कौन ? ग्रीस ? नहीं यूरोप अमेरिका को चलाने वाला एंग्लो सैक्सन आर्थिक मॉडल। ग्रीस अगर दिनदहाडे़ डूब जाता तो पूरा जी 20 ही बेसबब हो जाता। ग्रीस की विपत्ति टालने के लिए यूरोप में बैंकों की बलि का उत्सव शुरु हो गया है। बैंकों से कुर्बानी लेकर अटलांटिक के दोनों किनारों पर (अमेरिकी यूरोपीय) सियासत ने अपनी इज्जत बचा ली है नतीजतन ओबामा-मर्केल-सरकोजी-कैमरुन (अमेरिका, जर्मन फ्रांस, ब्रिटेन राष्ट्राध्यक्षों) की चौकडी जी 20 की कान्स पंचायत को अपना चेहरा दिखा सकेंगे। ग्रीस राहत पैकेज के बाद फिल्मों के शहर कांस (फ्रांस) में विश्व संकट निवारण थियेटर का कार्यक्रम बदल गया है। यहां अब भारत चीन जैसी उभरती ताकतों के शो ज्यादा गौर से देखे जाएंगे। इन नए अमीरों को यूरोप को उबारने में मदद करनी है और विकसित मुल्कों से अपनी शर्तें भी मनवानी हैं। विश्व के बीस दिग्गज रहनुमाओं के शो पर पूरी दुनिया की निगाहें हैं। कांस का मेला बतायेगा कि विश्व नेतृत्व ने ताजा वित्तीय हॉरर फिल्म की सिक्रप्ट बदलने की कितनी ईमानदार कोशिश की और यह संकट का यह सिनेमा कहां जाकर खत्म होगा।
और ग्रीस डूब गया
यूरोपीय सियासत की चपेट में आर्थिक परिभाषायें बदलने लगी हैं। शास्त्रीय अर्थों में मूलधन या ब्याज को चुकाने में असफल होने वाला देश संप्रभु दीवालिया (सॉवरिन डिफॉल्ट) है। इस हिसाब से बैंकों की कृपा ( तकनीकी भाषा में 50 फीसदी हेयरकट) का मतलब ग्रीस का दीवालिया होना है। मगर यूरोपीय सियासत इसे कर्ज माफी कह रही है। पिछली सदी के सातवें दशक में अर्जेंटीना यही हाल हुआ था और बाजार ने उसे दीवालिया ही माना था। यूरोप व तीसरी दुनिया में यही फर्क है। ग्रीस का ताजा पैकेज 2008 अमेरिकी लीमैन संकट की तर्ज पर है यानी कि बैंकर्ज माफ करेंगे और बाद में सरकारें बैंकों को
उबारेंगी। ग्रीस राहत पैकेज के तहत इस परेशान देश पर बैंको का 50 फीसदी बकाया कर्ज खत्म हो जाएगा। संकट में फंसी यूरोपीय सरकारों के बांडों को, यूरोपीय समुदाय एक विशेष फंड ( यूरोपीय फाइनेंशियल स्टेबिलिटी फैसिलिटी) से और ज्यादा सुरक्षा गारंटी मिलेगी। साथ ही अमीर चीन व अन्य देशों से यूरोपीय बांडों में निवेश का रास्ता निकाला जाएगा। इस पूरी कवायद से यूरोप क नेताओं ने वित्तीय बाजार में कोहराम रोक लिया है मगर वह ग्रीस को डूबने से नहीं बचा सके। ग्रीस की सरकार कहती है कि इस डील के बाद कर्ज जीडीपी अनुपात 2020 तक 120 फीसदी (वर्तमान 160 फीसदी) पर आ सकेगा। यानी ग्रीस फिर भी खतरे में है। ग्रीस पर दया दिखाने के एवज में बैंकों को करीब 30 अरब डॉलर की पूंजी मिलेगी लेकिन अगर संकट से जूझते यूरोप के अन्य देशों को उबारने लायक बनाने के लिए बैंकों को 140 अरब डॉलर की पूंजी चाहिए। इस पूंजी का स्रोत पता नहीं है। शायद यही वजह है, फिच सहित दुनिया के बैंक व रेटिंग एजेंसियां इस उद्धार परियोजना को ग्रीस को डिफॉल्ट मान रही हैं।
उबारेंगी। ग्रीस राहत पैकेज के तहत इस परेशान देश पर बैंको का 50 फीसदी बकाया कर्ज खत्म हो जाएगा। संकट में फंसी यूरोपीय सरकारों के बांडों को, यूरोपीय समुदाय एक विशेष फंड ( यूरोपीय फाइनेंशियल स्टेबिलिटी फैसिलिटी) से और ज्यादा सुरक्षा गारंटी मिलेगी। साथ ही अमीर चीन व अन्य देशों से यूरोपीय बांडों में निवेश का रास्ता निकाला जाएगा। इस पूरी कवायद से यूरोप क नेताओं ने वित्तीय बाजार में कोहराम रोक लिया है मगर वह ग्रीस को डूबने से नहीं बचा सके। ग्रीस की सरकार कहती है कि इस डील के बाद कर्ज जीडीपी अनुपात 2020 तक 120 फीसदी (वर्तमान 160 फीसदी) पर आ सकेगा। यानी ग्रीस फिर भी खतरे में है। ग्रीस पर दया दिखाने के एवज में बैंकों को करीब 30 अरब डॉलर की पूंजी मिलेगी लेकिन अगर संकट से जूझते यूरोप के अन्य देशों को उबारने लायक बनाने के लिए बैंकों को 140 अरब डॉलर की पूंजी चाहिए। इस पूंजी का स्रोत पता नहीं है। शायद यही वजह है, फिच सहित दुनिया के बैंक व रेटिंग एजेंसियां इस उद्धार परियोजना को ग्रीस को डिफॉल्ट मान रही हैं।
मगर सियासत उबरी
सरकोजी, मर्केल और ओबामा की सियासत बचाने के लिए बैंकों की कुर्बानी जरुरी थी। यूरोप की राजनीति भंवर में है। अगले साल चुनाव की तैयारी कर रहे सरकोजी के लिए यह पैकेज तो डूबते को सहारा जैसा है। मर्केल की घटती साख और मंदी की तरफ खिसकते ब्रिटेन व ढहते वित्तीय बाजार से परेशान कैमरुन के लिए बड़ी राहत है। चुनावी दो राहे पर खड़े इटली, पुर्तगाल सहित कई यूरोपीय देशों में सियासत का तापमान अब कुछ कम होगा। मगर यूरोप ने सबसे बड़ी मदद अमेरिकी राष्ट्रपति की बराक ओबामा को दी है, जिनके चुनाव का रास्ता बर्लिन व पेरिस से होकर गुजरता है। यूरोप के संकट से व्हाइट हाउस दोहरा हुआ जा रहा है। अमेरिका में राजनीतिक व आर्थिक समस्याओं का तूफान यूरोप से ताकत ले रहा है। अमेरिकी बैंक दुनिया के बाजारों में करीब 500 बिलियन डॉलर लगाये बैठे हैं यदि यूरोप यह इलाज न करता तो वित्तीय बाजार में तबाही और मंदी ओबामा का राजनीतिक भविष्य ले डूबती। इसलिए अमेरिकी वित्त् मंत्री टिमोथी गेइथनर इस यूरोप की इस भीतरी कवायद में अप्रत्याशित तौर पर सक्रिय थे और ओबामा यूरोप संकट सुलझाने में समय जाया होने पर बेचैन हो रहे थे। इस कसरत के बाद अब जी 20 के मंच पर एंगलो सैक्सन राजनीति को एक दूसरे पीठ ठोंकने और संकटों से बचने की नसीहतें बांटने का मौका मिल गया है।
नए अमीरों की बारी
2009 की लंदन बैठक के बाद कान्स की पंचायत इस साल की सबसे अहम अंतरराष्ट्रीय जुटान है। दुनिया में भयानक नेतृत्व शून्य है यही वजह है कि ताजा संकट की शुरुआत के बाद करीब छह माह बाद दुनिया के दिग्गज रहनुमा एक दूसरे नजरें मिलाने की हिम्मत जुटा सके है। अब यह बैठक भारत, चीन रुस और ब्राजील आदि उभरते देशों पर केंद्रित है। यूरोप को इस समय पूंजी चाहिए जो कि चीन जैसे ताजा अमीर मुल्क से मिल सकती है। जबकि अमेरिका तीसरी दुनिया में अच्छी ग्रोथ चाहता है ताकि विकसित बाजार यहां माल बेचकर मंदी से उबर सकें। इधर उभरती हुई आर्थिक ताकतें एक वैकल्पिक विश्व करेंसी, आईएमएफ, विश्व बैंक में सुधार और पेट्रो कीमतों पर लगाम का एजेंडा लेकर आएंगी। पुराने अमीरों और नए अमीरों के बीच यह सौदेबाजी देखना दिलचस्प होगा। इसके साथ ही कान्स यह भी बतायेगा कि 2011-12 के संकट का गॉर्डन ब्राउन (लीमैन संकट के बाद पूरे दुनिया को एकजुट कर रास्ता निकाला था।) कौन है यानी कि दुनिया की कमान किस नेता के हाथ है।
कान्स फिल्म मेले का शहर है जहां विश्व अर्थव्यवस्था के गुड बैड एंड द अगली (एजेंडा क्लाइंट ईस्टवुड की क्लासिक फिल्म) तीनों मौजूद हैं। उभरती अर्थव्यवस्थायें गुड हैं, अमेरिका बैड है और यूरोप अगली (बदहाल)। कांस में जुटने वाले ज्यूरी के सामने विश्व की सबसे भयानक हॉरर फिल्म चल रही है। पूंजीवाद और बाजारवाद का हिट फार्मूला अब पिट रहा है। कर्ज लेकर घी पीने वाले यूरोपीय देश त्रासदी लिख रहे हैं और अमेरिका उदारवाद का कार्टून बन गया है, जबकि तीसरी दुनिया लडखड़ा रही है। दुनिया को संकट उबारने इससे बड़ा मौका और मंच दूसरा कोई नहीं है। मौजूदा संकट के नायक, खलनायक और संभावित संकटमोचक सभी यहां एक साथ बैठेंगे। कान्स दुनिया के नेतृत्व की आर्थिक व राजनीतिक दूरंदेशी का सबसे बडा इम्तिहान है। कांस की ज्यूरी का फैसला विश्व का भविष्य तय करेगा।
---------
अदभुत है यह थियेटर, जहां मरते हुए नवउदारवाद का मातम मनाया जाएगा। हो सकता है कि यहां लगातार ताकतवर होती जा रही तीसरी दुनिया से कोमा में जी रहे पूंजीवाद के लिए थोडी सी...सौ ग्राम जिंदगी की भीख भी मांग ली जाए। देखते हैं रहनुमाओं को रहम आएगा या नहीं... सर प्रणाम बहुत ही शानदार लिखते हैं आप। आप का कॉलम पढकर पूरी दुनिया का अर्थशास्त्र आंखों के आगे घूम जाता है। दिनेश मिश्र
ReplyDelete