समय हमेशा न्याय ही नहीं करता। वह कुछ देशों, जगहों, तारीखों और वर्षों के खाते में इतना इतिहास रख देता है कि आने वाली पीढि़यां सिर्फ हिसाब लगाती रह जाती हैं। विधवंसों-विपत्तियों, विरोधों-बगावतों, संकटों-समस्याओं और अप्रतयाशित व अपूर्व परिवर्तनों से लंदे फंदे 2011 को पिछले सौ सालों का सबसे घटनाबहुल वर्ष मानने की बहस शुरु हो गई है। ग्यारह की घटनायें इतनी धमाकेदार थीं कि इनके घटकर निबट जाने से कुछ खत्म नहीं हुआ बल्कि असली कहानी तो इन घटनाओं के असर से बनेगी। अर्थात ग्यारह का गुबार इसकी घटनाओं से ज्यादा बड़ा होगा।
....यह रहे उस गुबार के कुछ नमूने, घटनायें तो हमें अच्छी तरह याद हैं।
1.अमेरिका का शोध
अमेरिका की वित्तीय साख घटने से अगर विज्ञान की प्रगति की रफ्तार थमने लगे तो समझिये कि बात कितनी दूर तक गई है। अमेरिका में खर्च कटौती की मुहिम नए शोध के कदम रोकने वाली है। नई दवाओं, कंप्यूटरों, तकनीकों, आविष्कारों और प्रणालियों के जरिये अमेरिकी शोध ने पिछली एक सदी की ग्रोथ का नेतृत्व किया था। उस शोध के लिए अब अमेरिका का हाथ तंग है। बेसिक रिसर्च से लेकर रक्षा, नासा, दवा, चिकित्सा, ऊर्जा सभी में अनुसंधान पर खर्च घट रहा है। यकीनन अमेरिका अपने भविष्य को खा रहा (एक सीनेटर की टिप्पणी) है। क्यों कि अमेरिका का एक तिहाई शोध सरकारी खर्च पर निर्भर है। हमें अब पता चलेगा कि 1.5 ट्रिलियन डॉलर का अमेरिकी घाटा क्या क्या कर सकता है। वह तो अंतरिक्ष दूरबीन की नई पीढ़ी (जेम्स बेब टेलीस्कोप- हबल दूरबीन का अगला चरण) का जन्म भी रोक सकता है।
2.यूरोप का वेलफेयर स्टेट
इटली की लेबर मिनिस्टर एल्सा फोरनेरो, रिटायरमेंट की आयु बढ़ाने की घोषणा करते हुए रो पड़ीं। यूरोप पर विपत्ति उस वक्त आई, जब यहां एक बड़ी आबादी अब जीवन की सांझ ( बुजुर्गों की बड़ी संख्या ) में है। पेंशन, मुफ्त इलाज, सामाजिक सुरक्षा, तरह तरह के भत्तों पर जीडीपी का 33 फीसदी तक खर्च करने वाला यूरोप उदार और फिक्रमंद सरकारों का आदर्श था मगर
संप्रभु कर्ज संकट से निर्मम हुई सरकारें सुविधायें काट रही हैं। यूरोप के सबसे बड़ी बुजुर्ग आबादी वाले देश की श्रम मंत्री के आंसू के बता रहे थे कि अब यूरोप तो क्या दुनिया अन्य सरकारें भी उदार व कलयाणकारी होने से पहले बीस बार सोचेंगी।
संप्रभु कर्ज संकट से निर्मम हुई सरकारें सुविधायें काट रही हैं। यूरोप के सबसे बड़ी बुजुर्ग आबादी वाले देश की श्रम मंत्री के आंसू के बता रहे थे कि अब यूरोप तो क्या दुनिया अन्य सरकारें भी उदार व कलयाणकारी होने से पहले बीस बार सोचेंगी।
3.एशिया की सस्ती फैक्ट्रियां
न पूंजी, न तकनीक, न बुनियादी ढांचा और बस भरपूर भ्रष्टाचार इसके बावजूद भारत व चीन का परचम इसलिए बुलंद हो गया क्यों कि यहां उत्पादन ससता था। मगर महंगाई के लंबे दौर, ऊंची ब्याज दरों और मुद्राओं की उठापटक ने एशिया के कारखानों के लिए की (कच्चे माल से लेकर वेतन तक) पर लागत बढ़ा दी है। गुजरात और गुएनडांग की यह उद्यमिता छीजने लगी है। पूरब की सबसे मजबूत नस पर महंगाई की यह सबसे गहरी मार है।
4.डब्लूटीओ की किस्मत
दिसंबर में जेनेवा डब्लूटीओ की मंत्रिसतरीय बैठक अखबारो में एक कायदे की खबर को भी तरस गई। 2011 में रुस के डब्लूटीओ में प्रवेश के अलावा इस मंच के पास कुछ भी नहीं था। विश्व व्यापार वार्ता दोबारा शुरु करने की हिम्मत तक खत्म हो गई है। संकटों के इस दौर ने बहुपक्षीय व्यापार की उम्मीदों को सबसे तगड़ी चोट पहुंचाई है। अब तो मंदी है, इसलिए सब अपने बाजार बचाने की फिक्र करेंगे, बाजार खोलने की बात ही बेमानी है।
5.सात अरब की बात
99 साल में 1.6 अरब से (सन 1900 से 2011)सात अरब। आबादी बढ़ने की यह अब तक की सबसे तेज रफ्तार है। जनसंख्या नियंत्रण की बहसों के बीच मानव महासमुद्र का यह ज्वार अभूतपूर्व हैं। 1987 के बाद से दुनिया में दो अरब लोग जुड़े, जिसमें एक अरब लोग तो पिछले एक दशक में बढ़ गए। एक तरफ आबादी का विस्फोट और दूसरी तरफ मंदी की आहट। अब 50 फीसदी आबादी शहरी है जिसे पता नहीं क्या क्या चाहिए। 2011 की यह गुत्थी बड़ी कडि़यल है।
6.ऊर्जा का भविष्य
कोयला पर्यावरण का जानी दुश्मन है और तेल !, वह है ही कितने दिन का। इस निष्कर्ष के साथ दुनिया नाभिकीय ऊर्जा की तरफ दौड़ पड़ी थी और यूरेनियम दुनिया की आंख का तारा हो गया। मगर सुनामी की एक लहर ने दुनिया के ऊर्जा परिदृश्य को बदल दिया। फुकुशिमा के बाद नाभिकीय रिएक्टर खौफ के नए नाम हो गए हैं। यूरोप नाभिकीय ऊर्जा से किनारा कर रहा है। यूरेनियम का बाजार धराशयी है। ऊर्जा की उम्मीदें के फिर कोयला व तेल तक सिमट गई हैं।
7.आपदाओं का हर्जाना
अमेरिका में इरीन से लेकर फिलीपींस के वाशी तूफान तक, चीन व थाइलैंड की बाढ़ लेकर उत्तरी अफ्रीका के सूखे तक और टर्की व न्यूजीलैंड के भूकंप से लेकर जापान की सुनामी तक तबाही की कीमत 350 अरब डॉलर से ज्यादा थी। 2011 प्राकृति आपदाओं का चरम था जो , बीमा उद्योग को 108 अरब डॉलर (2010 में 48 अरब डॉल्र) के हर्जाने का बिल थमा गया। इन आपदाओं ने बीमा की गणित को बदल दिया है। अब पूरी दुनिया में आपदा बीमा का बेतरह महंगा होना तय है।
8.इंटरनेट पर खतरा
ऑनलाइन दुनिया को खतरा अरब, भारत, चीन और रुस की अहमक सियासत से नहीं है। इसे तो तकनीकी घुसपैठियों और उचक्कों का डर है। यह हैक्टिविज्म का पहला साल था जब मई व जून में न्यूज इंटरनेशनल, ऑनलाइन गेम साइट नितेंदों, सीआईए की वेबसाइट पर 50 दिनों तक लगातार हमले हुए और इनकी बाकायदा जिम्मेदारी (एनॉनिमस और लजसेक) ली गई। सोशल नेटवकों से लेकर सरकारी एजेंसियों भी महफूज नहीं थी। वित्तीय सूचनाओं से लेकर निजी रिश्तों तक को समेटे ऑनलॉइन दुनिया के लिए खतरा बढ़ रहा है।
9. नेतृत्व का शून्य
नीतियों और नेतृत्व ने विश्व को उस समय धोखा दिया जब भयानक संकट सर पर बैठ गया। कर्ज की बाढ़ के आगे यूरोपीय सियासत बिखर गई और अमेरिकी नेताओं के झगड़े ने बाजारों की दम निकाल दी। बदकिस्मती यह कि दुनिया अगले साल जब मंदी से जूझेगी तब यूरोप से लेकर अमेरिका और भारत तक चुनावी की सियासत चलेगी। 2011 का सबसे कड़वा गुबार यह है कि 2012 भी अच्छे नेतृत्व और ताकतवर नीतियों के लिए तरसता रहेगा।
ग्यारह के बीते दिन जितने झन्नाटेदार थे आने वाला वक्त भी उतना ही जोरदार होगा। 2011 के साथ कुछ खत्म नहीं हुआ है बल्कि यहां से एक बहुआयामी और बड़े संक्रमण की शुरुआत होती है। यह वर्ष इतना कुछ देकर जा रहा है जिसे संभालने में कई दशक बीत जाएंगे। इतिहास यह दर्ज करेगा कि 2011 में वक्त ने एक नहीं कई निर्णायक करवटें बदली थीं। वक्त की टकसाल में 2011 जैसे वर्ष बिरले ही बनते हैं।
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