टैक्स की दुनिया का ताजा और सबेस बड़ा सबक क्या है, एक नौसिखुए वकील ने अपने सीनियर से पूछा। कोर्ट कोर्ट का पानी पिये घाघ वरिष्ठ अधिवक्ता ने अपना मोटा चश्मा पोंछते हुए कहा कि डियर, जब सरकार बोदी और सुस्त हो और बाजार तेज, तो टैक्स की दुनिया में गफलत कीमत 11000 करोड़ रुपये तक हो सकती है। वोडाफोन जब अदालत में जीत कर भारी राजस्व चुग गई तब वित्त मंत्रालय सुप्रीम कोर्ट के सामने फैसला बदलने के लिए पछता और गिड़गिड़ा रहा है। तेजी से बदलते बाजार में टैक्स कानूनों को बदलने में देरी विस्फोटक और आत्मघाती हो चली है। पुराने कर कानूनों की तलवार हमें तीन तरफ से काट रही है कंपनियां अस्थिर टैक्स प्रणाली से हलाकान हैं। कानूनों के छेद सरकारी राजसव की जेब काट रहे हैं और टैक्स हैवेन से लेकर फर्जी कंपनियों तक, स्याह सफेद धंधों वाले हर तरफ चांदी कूट रहे हैं, क्यों कि टैक्स में सुधार का पूरा एजेंडा (प्रत्यक्ष कर कोड और गुड्स एंड सर्विसेज टैक्स) बैठकों में घिसट रहा है। इस बजट से यह पता चल जाएगा कि सरकार व सियासत टैक्स सुधार को कब तक टालेगी और कितनी कीमत चुकायेगी।
देरी की दर
डायरेक्ट टैक्स (आयकर, कंपनी आयकर आदि) कोड यानी नया कानून लागू हो गया होता तो वोडाफोन के मुकाबले सरकार की इतनी बडी अदालती हार नहीं होती। डायरेक्ट टैक्स कोड में यह प्रावधान है कि यदि भारत में काम करने वाली कोई कंपनी अपनी हिस्सेदारी (इक्विटी) की खरीद बिक्री विदेश में करती है तो उस पर भारतीय टैकस कानून लागू होगा। मगर कानून अधर में लटका है और लुटा पिटा आयकर विभाग अब डायरैकट टैक्स कोड का इंतजार किये बगैर इस साल के बजट में ही यह छेद बंद करने को मजबूर हो गया है। वक्त पर कानून बदलने में देरी बहुत महंगी पड़ी है। क्यों कि यह फैसला केवल एक वोडाफोन हच इक्विटी सौदे पर नहीं बलिक इसी तरह के कई और लेन देन को प्रभावित करेगा। दो साल से तैयार डायरेक्ट टैकस कोड जिस तरह केंद्र सरकार में नीतिगत फैसलों के शून्य का शिकार हुआ हुआ है ठीक उसी तरह अप्रत्यक्ष करो में सुधार का अगला चरण यानी गुड्स एंड सर्विसेज टैक्स कमजोर केंद्र और ताकतवर राज्यों की राजनीति
में फंस गया है। केंद्र सरकार जब आतंक के खतरे पर राज्यों को एक जुट नहीं कर पा रहा है तो गुड्स एंड सविर्सेज टैक्स सहमति दूर की बात है।
में फंस गया है। केंद्र सरकार जब आतंक के खतरे पर राज्यों को एक जुट नहीं कर पा रहा है तो गुड्स एंड सविर्सेज टैक्स सहमति दूर की बात है।
दोहरी मार
भारत में टैक्स के दोनों बड़े सुधार सियासी पेंच में फंस गए हैं। जिसकी प्रत्यक्ष व परोक्ष कीमत बहुत बड़ी है। प्रत्यक्ष रुप से इसका असर राजस्व पर दिखता है जकि परोक्ष रुप से कंपनियां व निवेशक इसकी कीमत चुकाते हैं। सिर्फ वोडाफोन के मुकाबले आयकर विभाग की हार ही नहीं कर कानून में ऐसे तमाम छेद हैं जिनसे राजसव का नुकसान होता है और पारदर्शिता खत्म होती है। फर्जी कंपनियां, बेहद पेचीदा मनी लॉड्रिंग, टैकस हैवेन का इसतेमाल आदि कई ऐसे रास्ते हैं जिनके जरिये निवेशक व कंपनियां कर चुराती है और हमारे पुराने कानून इन्हे बंद नहीं कर पाते। क्यों कि आतंक के वित्त पोषण और मनी लॉड्रिंग रोकने के लिए कर कानूनों में बदलाव अधर मे हैं क्यों पूरे कर सुधार जहां के तहां ठहर गए हैं। अर्थव्यवस्था के लिए नुकसान तब और बड़ा हो जाता है तब गंभीर निवेशक कर कानूनों बदलाव के इंतजार में अपने फैसले रोकने लगते हैं। कारोबारी निवेश दशकों का हिसाब किताब लगाकर किये जाते हैं और किसी देश का कर ढांचा इन फैसलों का सबसे बड़ा आधार होता है। जब टैकस ढांचे में दो अहम बदलाव लंबित हों, अदालतें कर कानूनों को लेकर अहम फैसले सुना रही हों तो निवेशकों का असमंजस समझा जा सकता है।
तदर्थ टैक्स
आर्थिक सुधारों के पिछले बीस साल बताते हैं कि कर प्रणाली को बदलने को हम सुस्त और अंदाजिया रहे हैं। या तो टैक्स दरों में कमी को कर सुधार मान लिया गया या फिर सरकार के राजस्व को बढ़ाने की कोशिशें कर सुधार समझ ली गईं जबकि टैक्स का ढांचा नवीनता, दूरदर्शिता, सजगता व पारदर्शिता की अपेक्षा कर रहा था। कर दर कम होने से राजसव् बढ़ा मगर सरकार के खजाने में ज्यादा बढ़ोत्तरी दरअसल तेज आर्थिक विकास दर चलते हुई। ग्रोथ के इस दौर में वित्त मत्रियों ने कर ढांचे को आधुनिक बनाने के बजाय व्यक्तिगत व कंपनी करदाताओं को मौके के मुताबिक रियायतें बांट कर लोकप्रियता ही बटोरी इसलिए पिछले डेढ़ दशक के बजटों का कर ढांचा अस्थिरता व तदर्थवाद की कहानी बन गया है। सरचार्ज और सेस ( सुरक्षा से लेकर शिक्षा उपकर तक) वित्त मंत्रियों की पसंदीदा सूइयां रहीं जिन्हें बार-बार घोंपकर अर्थव्यवस्था से अचानक राजस्व निकाला गया या फिर लोकप्रियता के लिए इनकी चुभन कम कर दी गई। उत्पाद शुल्क दरें पहाड़ के मौसम की तरह बदलीं और पेट्रोल डीजल पर टैकस और लाभांश कर को जब चाहा जैसे इस्तेमाल किया गया। मैट (मिनिमम आल्टरनेटिव टैक्स) और एफबीटी (फ्रिंज बेनीफिट टैक्स) दो नए प्रयोग थे मगर असंगतियां व बदलावों ने अस्थिर कर दिया। यह तदर्थवाद ही तो था कि लंबी कवायद के बाद किसी तरह जब पूरे देश में वैट लागू हो पाया तब तक सरकार ने जीएसटी पर काम शुरु दिया। जो वैट, एक्साइज, सर्विस टैक्स की पुरानी प्रणाली को खतम करते हुए एक नया समग्र अप्रत्यक्ष कर ढांचा लाएगा। जीएसटी पूरी दुनिया मे सफल हुआ है मगर हमारे कर सुधारक दूरदर्शी नहीं थे इसलिए कर प्रशासन (केंद्र व राज्य) और कारोबारी एक दशक में दूसरी बार कर ढांचे का नया पहाड़ा पढ़ेंगे।
अच्छा टैकस प्रशासन स्थिरता, सजगता और पारदर्शिता का समन्वय होता है। विकसित होते बाजार में चतुर सरकारें एक तरफ कर ढांचे के जरिये ग्रोथ के अवसर बढाती हैं और तेज ग्रोथ ज्यादा राजसव् लेकर आती है जबकि दूसरी तरफ कर कानूनों के छेद बंद कर निवेशकों का यह संकेत दिया जाता है कि अवसरों से भरपूर बाजार में पारदर्शी और सख्त टैकस कानूनों का राज चलता है। भारत के टैक्स ढांचे से इस तरह संदेश का देने का वक्त अब आ गया है इसलिए आगामी बजट टैकस सुधारों पर बहुत कुछ टिका है। इसलिए गौर से सुनियेगा कि टैक्स की चर्चा करते हुए वित्त मंत्री हसन अली से लेकर वोडाफोन तक और बचत निवेश से लेकर नए कर कानूनों पर क्या कहते हैं या फिर अगरबत्ती के बांस, क्रूड पाम स्टीरियन, लैक्टोज, टैनिंग एंजाइन, सैनेटरी नैपकिन और रॉ सिल्क जैसी फालतू की चीजों पर टैक्स दरों में बदलाव गिनाते हुए बजट की आखिरी शायरी पढने लगते हैं। इस बजट से सिर्फ ग्रोथ ही नहीं पारदर्शिता की भी किस्मत बंधी है।
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Sir excellent take on tax reforms.
ReplyDeletethanks Navneet
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