Monday, June 4, 2012

संकट के सूत्रधार


क थी अर्थव्‍यवस्‍था। बाशिंदे थे मेहनतीग्रोथ की कृपा हो गई। मगर आर्थिक ग्रोथ ठहरी कई मुंह वाली देवी। ऊर्जाईंधन उसकी सबसे बडी खुराक। वह मांगती गईलोग ईंधन देते गए। देश में न मिला तो बाहर से मंगाने लगे। ईंधन महंगा होने लगा मगर किसको फिक्र थी। फिर इस देवी ने पहली डकार ली। तब पता चला कि ग्रोथ का पेट भरने में महंगाई आ जमी है। ईंधन के लिए मुल्‍क पूरी तरह विदेश का मोहताज हो गया है। आयात का ढांचा बिगड़ गया है इसलिए देश मुद्रा ढह गई है। और अंतत: जब तक देश संभलता ग्रोथ पलट कर खुद को ही खाने लगी। यह डरावनी कथा भारत की ही है। एक दशक की न्‍यूनतम  ग्रोथजिद्दी महंगाईसबसे कमजोर रुपये और घटते विदेशी मुद्रा भंडार के कारण हम पर  अब संकट की बिजली कड़कने लगी है। भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था के लिए अपनी बुनियादी गलतियों को गिनने का वक्‍त आ गया है। बिजली भयानक कमी और ऊर्जा नीति की असफलता ताजा संकट की सबसे बड़ी सूत्रधार है।   
डरावनी निर्भरता   
भारत का आयात एक हॉरर स्‍टोरी है। पिछले एक साल में देश का तेल आयात करीब 46 फीसदी बढ़ा और कोयले का 80 फीसदी। यह दोनों जिंस आयात की टोकरी में सबसे बडा हिससा घेर रहे हैं। दरअसल प्राकृ‍तिक संसाधनों को संजोनेबांटने और तलाशने में घोर अराजकता ने हमें कहीं का नही छोड़ा है। कोयले की कहानी डराती है। भारत की 90 फीसदी बिजली कोयले से बनती है और इस पूरे उजाले व ऊर्जा की जान भीमकाय सरकारी कंपनी कोल इंडिया हाथ में है जो इस धराधाम की सबसे बड़ी कोयला कंपनी है। पिछले दो साल में जब बिजली की मांग बढ़ी तो कोयला उत्‍पादन  घट गया। ऐसा नहीं कि देश में कोयला कम है। करीब 246 अरब टन का अनुमा‍नित भंडार है जिसइसके बाद कोल इंडिया की तानाशाही और कोयला ढोने वाली रेलवे का चरमराता नेटवर्क.. बिजली कंपनियां कोयला आयात न करें तो क्‍या करें। इसलिए कोयला भारत का तीसरा सबसे बड़ा आयात है। अगले पांच साल में कोयले की कमी 40 करोड़ टन होगीयानी और ज्यादा आयात होगा। पेट्रो उत्‍पादों का हाल और भी बुरा है। भारत अपनी 80 फीसदी से ज्‍यादा पेट्रो मांग के लिए आयात पर निर्भर है।  देश में घरेलू कच्‍चा तेल उत्‍पादन पिछले दो साल में एक-दो फीसद से जयादा नहीं बढ़ा। तेल खोज के लिए निजी कंपनियों का बुलाने की पहली कोशिश (नई तेल खोज नीति 1990) कुछ सफल रही लेकिन बाद में सब चौपट। कंपनियों के उत्‍पादन में हिस्‍सेदारी की पूरी नीति सरकार के गले फंस गई है। तेल क्षेत्र लेने वाली निजी कंपनिया उत्‍पादन घटाकर सरकार को ब्‍लैकमेल करती हैं। सरकार असमंजस मे हैं कि निजी कंपनियों के साथ  उत्‍पादन भागीदारी की प्रणाली अपनाई जाए या रॉयल्‍टी टैक्‍स की। अलबत्‍ता ग्रोथ की खुराक को इस असमंजस से फर्क नहीं पड़ताइसलिए पिछले दो साल में कीमतें बढ़ने के बाद भी पेट्रो उतपादों की मांग नहीं घटी। तेल आयात बल्लियों उछल रहा है।
में 92 अरब टन हाथ में है। लेकिन कोल इंडिया का निजीकरण व नई खदानों की खोज लंबित है। निजी कंपनियों को खदानों का मनमाना आवंटन होता है। कोल इंडिया कोयला कम घोटाले ज्‍यादा निकालती है। कोयला उत्‍पादन बमुश्किल पांच फीसदी की गति से बढ़ रहा है और बिजली सयंत्रों की उत्‍पादन क्षमता करीब 10 से 15 फीसद की सालाना गति से। पिछले साल फरवरी की याद कीजिये जब देश के 18 बिजली घरों में केवल चार दिन का कोयला बचा था। एक तो कम उत्‍पादन
ग्रोथ की रीढ़
आयातित ईंधन (तेलकोयलागैस) पर आधारित हमारी ग्रोथ की रीढ शुरुआत से ही कमजोर है। अलबत्‍ता इससे पहले कि आप भारत में ऊर्जा की खपत व ग्रोथ को लेकर कोई मुगालता पालें यह जान लीजिये कि भारत में तो प्रति व्‍यक्ति ऊर्जा खपत दु‍निया में सबसे कम (540 किग्रा तेल के बराबर)  है। चीन में यह आंकड़ा भारत का तीन गुना है। भारत में बिजली की प्रति व्‍यक्ति खपत केवल 566 किलोवाट प्रतिघंटा हैजो अफ्रीका से भी कम है। 57 फीसद ग्रामीण और 12 फीसद शहरी आबादी के पास बिजली नहीं है। यानी कि हम ऊर्जा की खपत में कोई तीर नहीं मार रहे हैं। फिर भी बिजली मांग और आपूर्ति का अंतर कितना बड़ा हैइसका पसीनेदार अहसास हर गर्मी में देश को होता है। 12363 मेगावाट की बिजली किल्‍लत (पीक डिमांड - सबसे जयादा मांग के मौके पर) वाले देश में नीतिनिर्माता यह समझ ही नहीं पाते कि डीजल की मांग (यानी पेट्रो सब्सिडी का बोझ) के खलनायक कार या ट्रक नहीं बल्कि डीजल जनरेटर हैं जो सालाना करीब 25 से 35000 मेगावाट बिजली  बनाते हैं। 8 फीसद की जीडीपी ग्रेाथ के लिए बिजलीनेचुरल गैस और कोयला उत्‍पादन में सालाना 6 से 7.5 फीसदी वृद्धि चाहिएजिसकी नामौजूदगी में सब्सिडी वाला डीजल पचाकर बिजली की खुराक पूरी हो रही है। हम बिजली खपत के सूरमा नहीं हैं। ग्रोथ ने मामूली सी ही चाल दिखाई थी कि बस इतने में ही ऊर्जा की मांग और आयात ने हमें तोड़ दिया। अब हम रुपये की ताकतऊर्जा सुरक्षा व पर्यावरण (जेनरेटर के कारण) तीनों गंवाकर निढाल पड़े हैं और ग्रोथ भी ढह रही है।
 ऊर्जा नीति भारत की भव्‍य विफलता है। यह दुर्योग ही है कि प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह सुधारों की शुरुआत से लेकर आज तक इस मोर्चे पर पर लगातार हारे। एनरॉन जैसे ध्‍वस्‍त प्रयोगदो दशक से लंबित बिजली सुधारना‍भिकीय ऊर्जा की ताजा कोशिशों में असफलतातेल व गैस नीतियों की गफलत.. पूरा ऊर्जा परिदृशय मानो गलतियों का अजायबघर है। इसलिए पिछले दो दशक से बिजली बोर्ड के घाटे,  बिजली चोरी और बिजली व पेट्रो कीमतें तय करने की राजनीति में कोई गुणात्‍मक तबदीली नहीं आई। अलबत्‍ता तेज आर्थिक विकास ऊर्जा के लिए विदेश का मोहताज हो गया। पहले ऊर्जा की कमी के कारण के ग्रोथ नहीं थी फिर ग्रोथ के कारण ऊर्जा की कमी हो गई है। अब न ग्रोथ बची है और न ऊर्जाशेष है तो सिर्फ कंटीली महंगाई और आर्थिक संकटजो बस आ ही पहुंचा है। 
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