तहरीर स्क्वायर पर जुटी भीड़ का नेता कौन था ? आकुपायी वालस्ट्रीट की अगुआई कौन कर रहा था ? ब्लादीमिर पुतिन के खिलाफ मास्को की सड़कों पर उतरे लोगों ने किसे नेता चुना था? लेकिन भारत के गृह मंत्री और नेता इंडिया गेट पर उतरे युवाओं में एक नेता तलाश रहे थे। भारतीय की सठियाई सियासत हमेशा जिंदाबादी या मुर्दाबादी भीड़ से खिताब जो करती रही है। इन युवाओं में उन्हें नेता न मिला तो लाठियां मार कर लोगों को खदेड़ दिया गया। भारत नए तरह के आंदोलनों के दौर में है। यह बदले हुए समाज के आंदोलन हैं। समकालीन राजनीति इसके सामने अति पिछड़ी, लगभग पत्थर युग की, साबित होती है। हमारे नेता या तो सिरफिरे हैं या फिर जिद में हैं। दुख व क्षोभ में भरे युवाओं को नक्सली या महिलाओं को डेंटेड पेंटेड कहने वाली राजनीति अब भी यह नहीं समझ रही है कि क्षुब्ध समाज एक बिटिया की जघन्य हत्या पर इंसाफ पाकर चुप नहीं होगा। वह तो भारतीय सियासत के पुराने व बुनियादी चरित्र को ही खारिज कर रहा है।
भारत के युवा रोजगार मांगने के लिए इस तरह कब सड़क पर उतरे थे? महंगाई से त्रस्त लोगों ने कभी इस तरह स्व स्फूर्त राष्टपति भवन नहीं घेरा। लोग क्या मांगने के लिए इंडिया गेट पर लाठियां खा रहे थे ? कानून व्यवस्था ? ? पिछले साल लोग यहां रिश्वतखोरी से छुटकारा मांगने आए। याद कीजिये कि किस राजनीतिक दल के चिंतन शिविर या कार्यकारिणी में कब कानून बदलने या भ्रष्टाचार पर चर्चा हुई। नेता भौंचक है कि लोग कानून व्यवस्था या पारदर्शिता को लेकर इतने आंदोलित हो गए हैं ? राजनीति अब तक जो भीड जुटाती रही है वह तख्त ताज यानी सरकार बदलने की बात करती है कानून
बदलने की नहीं। इसलिए नेताओं को इन बेचेहरा आंदोलनों के बोल बचन ही समझ में नहीं आते।
बदलने की नहीं। इसलिए नेताओं को इन बेचेहरा आंदोलनों के बोल बचन ही समझ में नहीं आते।
राजनीतिक दल लोकतंत्र की बुनियादी इकाई हैं। बदलाव का पहला ब्लू प्रिंट वहीं बनता है। जो जनता को सहमत कराता हुआ, चुनाव की राह से सरकार तक जाता है और नीति व कानून बनकर वापस लौटता है। दूरदर्शिता सरकार में नही राजनीतिक दलों में होती है जो सरकारें बनाते हैं। भारत के राजनीतिक दलों का भीतरी ढांचा जंग लगा और परिवारवादी है। राष्ट्रपति से लेकर पार्टी अध्यक्ष तक इसी ढांचे से निकलते हैं। इन दलों की समाज-समझ पूरी तरह चुक गई है। नया समाज जो चाहता है, उसकी इन्हें खबर ही नहीं है। राजनीति के एजेंडे और नए समाज की अपेक्षाओं के बीच फासला इतना बढ़ गया है कि अब संवाद की भाषा तक बदल गई है। तभी तो जब यह समाज भ्रष्टाचार के खिलाफ के कानून मांग रहा था तब सरकार उसे खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश थमा रही थी और जब देश कानून व्यवस्था मांग रहा था तब सरकार उसे सबिसडी का कैश ट्रांसफर दे रही थी। दिल्ली गैंग पीडि़ता के दर्द से कराह रही था मायावती सरकारी नौकरियों के प्रमोशन में आरक्षण का ज्ञान दे रही थीं और भाजपा अपने गुजराती क्षत्रप नरेंद्र मोदी का अभिनंदन कर रही थी। जडों से कटकर अधर में टंगी सियासत ऐसी ही होती है।
आंदोलित भीड़ हर राजनेता का सपना है लेकिन सैकड़ों लोग सड़क पर थे और किन्ही गांधियों, स्वराजों, जेटलियों, मोदियों, येचुरियों, गडकरियों, यादवों में साहस नहीं था कि वह इस समाज से आंख में आंख डाल कर बात कर सकें। यह लोग पिछली बार केजरीवालों के पीछे राजपथ पर आए थे। इस दूसरे मौके तक यह नए नेता सियासत के पारंपरिक ढांचे में उतर गए थे इसलिए इस बार उन्हें भी किनारे टिका दिया गया। किस दल के पास महिला या युवा संगठन नहीं है ? अलबत्ता इस आंदोलन के दौरान महिला व युवा नेताओं की झांकी बुजुर्ग नेताओं के पीछे दुबक गई। देश जान गया कि सड़ी गली राजनीति सिर्फ बूढों के हाथ में हो, यह कोई नियम नहीं है।
"व्हाई नेशंस फेल" इस साल की सबसे अच्छी पुस्तकों में है। डारोन एसीमोग्लू और जेम्स ए रॉबिंसन की यह किताब असंख्य उदाहरणों के साथ बताती है कि घटिया व दोयम दर्जे की राजनीति खराब संस्थाये बनाती है या अच्छी संस्थाओं को बिगाड़ती है। जिनकी कीमत आम लोग चुकाते हैं। हम सरकार, कानून, पुलिस जैसा संस्थाओं के बिगड़ने के कारण ही तो मर-भुगत रहे हैं। संविधान निर्माताओं ने कुछ अच्छी संस्थायें दीं। वक्त पर उनका जमीर भी जागा तो मनीष तिवारियों, चिदंबरमों की जमात ने कैग व अदालत को कोस डाला। नया समाज इन संस्थाओं में उम्मीद देखता है और सियासत इनसे चिढती है। यह सियासत के समाज की नब्ज से कटे होने का चरम है।
गैंग पीडि़ता हो या रिश्वतों से नुचा आम आदमी, भारतीय राजनीति के मौजूदा मॉडल में हर व्यकित सिर्फ एक वोटर है। । सियासत सिर्फ चुनाव से चुनाव तक की बात करती है। दो चुनावों के बीच आने वाली दुनिया से उनका कोई वास्ता नहीं है। इस दौरान राजनीति अहंकारी हो जाती है। वह किसी से नहीं पूछती कि लोगों कानून चाहिए या सबिसडी। बस दस बड़े नेता, लाखों की समझ के समझदार बनकर नीति तय कर देते हैं। यह नया समाज सियासत के इसी दंभ से बगावत कर रहा है। उसे भारतीय राजनीति के महानायकपन से चिढ़ होती है। लोग नए ढंग से अपनी बात कह रहें है। उन्हें नेताओं की जबान नहीं चाहिए। इस जिंदा कौम के आग्रहों पर भद्दी टिप्पणियां करने वाले नेता, सियासत का वह बुनियादी कीमिया खो चुके हैं जिसे जनता को समझने की कला कहा जाता था।
आम लोग पहली बार जब राजपथ (जनलोकपाल) पर जुटे तब उत्साह और उम्मीद थी। दूसरी बार आए लोग गुस्से में थी, वे तीसरी बार फिर लौटेंगे। तब क्या विजय चौक पर तहरीर चौक दोहराया जाएगा? बहस गैंग रेप के लिए कानून बदलने की है ही नहीं। लड़ाई तो यह है पुरानी राजनीति नए समाज को अपने ढंग से चलाना चाहती है या फिर नया समाज राजनीति को अपनी तरह से चलने पर मजबूर करेगा। नतीजा जो भी हो, लड़ाई जारी रहनी चाहिए।
sir, good analysis and best suggestion.
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