Monday, March 18, 2013

पिछड़ने का पुरस्‍कार



विशेष राज्‍य की श्रेणी के लिए बेताब राज्‍य सरकारें अपनी दयनीयता के पोस्‍टर बांटना शुरु  करेंगी और ज्‍यादा संसाधनों के लिए केंद्र सरकार के राजनीतिक अहंकार को सहलायेंगी। 

भारत की आर्थिक राजनीति में एक नए दकियानूसी दौर का आगाज हो गया है। केंद्र सरकार पिछड़े राज्‍य चुनने का पैमाना बदलने वाली है यानी कि राज्‍यों के बीच खुद को दूसरे से ज्‍यादा पिछड़ा और दरिद्र साबित करने की प्रतिस्‍पर्धा शुरु होने वाली है। विशेष राज्‍य की श्रेणी के लिए बेताब राज्‍य सरकारें अब अपनी दयनीयता के पोस्‍टर बांटना शुरु कर करेंगी और ज्‍यादा संसाधनों के लिए केंद्र सरकार के राजनीतिक अहंकार को सहलायेंगी। बिहार के मुख्‍यमंत्री नीतीश कुमार का अभियान शुरु हो गया है, उड़ीसा व बंगाल को इस जुलूस में बुलाया जा रहा है। हकीकत यह है कि केंद्र से राज्‍यों को संसाधन देने का ढांचा पिछले एक दशक में इस कदर बदला है कि केंद्र अब पिछडेपन का तमगा तो दे सकता है लेकिन ज्‍यादा संसाधन नहीं। उत्‍तर पूर्व की हालत, चार दशक पुरानी विशेष राज्‍य प्रणाली की समग्र असफलता का दस्‍तावेजी प्रमाण हैं। इसलिए नए गठबंधन जुगाड़ने का यह कांग्रेसी पैंतरा अंतत: राज्‍यों की मोहताजी और विभाजक सियासत की नई नुमाइश शुरु करने वाला है।  
भारत में 1969 तक राज्‍यों के बीच आम व खास कोई फर्क नहीं था। पांचवे वित्‍त आयोग ने जटिल भौगोलिक स्थिति, कम व बिखरी जनसंख्‍या, सीमित राजस्‍व और अंतरराष्‍ट्रीय सीमा पर स्थिति को देखते हुए
असम, नगालैंड और जम्‍मू कश्मीर को यह दर्जा दिया था। इसी पैमाने पर उत्‍तर पूर्व के सभी राज्‍य व उत्‍तराखंड, हिमाचल सहित कुल ग्‍यारह राज्‍य विशेष दर्जे वाले परिवार में शामिल हो गए। केंद्रीय बजट से राज्‍यों को मिलने वाली सहायता में इन राज्‍यों इनका हिस्‍सा 30 फीसदी पर आरक्षित है। शेष केंद्रीय सहायता सामान्‍य श्रेणी के राज्‍यों के बीच बांटी जाती है। विशेष दर्जे वाले राज्‍यों को 90 फीसदी केंद्रीय सहायता अनुदान के रुप में मिलती है। इसके अलावा विशेष दर्जे वाले राज्‍यों को औद्योगिक निवेश के लिए केंद्रीय करों में विशेष छूट मिलती है।

ताजा बजट में आई केंद्र की जिस नई सूझ पर नीतीश फिदा हो गए हैं उसके तहत अब जटिल भौगोलिक सि‍थति के आधार पर ही पिछडापन तय नहीं होगा। आर्थिक सामाजिक पैमानों पर राष्‍ट्रीय औसत से पिछड़े राज्‍यों को भी विशेष राज्‍य का दर्जा मिल सकता है। इस फार्मूले में फिट होने वाले राज्‍यों की संख्‍या बडी है, इसलिए तगडी होड़ शुरु होनी है। विशेष राज्‍य होने के लालच का कुल मकसद केंद्र से ज्‍यादा संसाधन लेना है अलबत्‍ता यह जानना दिलचस्‍प है कि केंद्र व राज्‍यों बीच संसाधनों बंटवारे की तस्‍वीर पूरी तरह बदल गई है। वित्‍त आयोग के फैसले के बाद राज्‍यों को कर्ज के रुप में केंद्रीय सहायता मिलना बंद हो गया है। राज्‍य सरकारें अब बाजार से ही कर्ज लेती हैं और बाजार राज्‍य की वित्‍तीय सूरत देखकर ही कर्ज देता है। केंद्र से अब केवल अनुदान मिलते हैं। लेकिन यूपीए सरकार ने पिछले एक दशक में अनुदान खर्च करने के अधिकार भी राज्‍यों से छीन लिये है। केंद्रीय स्‍कीमों के तहत अधिकांश सहायता सीधे पंचायतों को जाती है जिसमें राज्‍य सरकारों का कोई दखल नहीं है। बिहार बंगाल यदि विशेष राज्‍य बनकर ज्‍यादा संसाधन चाहेंगे तो उन्‍हें मनरेगाओं, सर्वशिक्षा अभियानों को बंद कराना होगा जो कि राज्‍यों के वित्‍तीय अधिकारों को निगल गई हैं। ऐसा होना नामुमकिन है इसलिए विशेष राज्‍य होने के वित्‍तीय फायदे सीमित हो गए हैं।

कर रियायतों से निवेश बढ़ता तो उत्‍तर पूर्व के राज्‍य औद्योगिक तरक्‍की के सूरमा होते। दशकों के प्रोत्‍साहनों के बावजूद उत्‍तर पूर्व का कोई औद्योगिक स्‍वरुप नहीं उभरा अलबत्‍ता केंद्रीय सहायता ने भ्रष्‍टाचार के कीर्तिमान बना दिये। औद्योगिक निवेश रियायतें देखकर नहीं बलिक प्रशासन देखकर आता है। हरियाणा व तमिलनाडु से उद्योगों का गुजरात पहुंचना इसका सबूत है। नीतीश राज में बिहार में दस हजार करोड़ रुपये के निवेश आशय पत्र आ चुके हैं लेकिन वास्‍तविक निवेश नाम का है। बिहार व उत्‍तर प्रदेश जैसों में निवेश का सूखा पड़ने की वजहें वित्‍तीय से जयादा प्रशासनिक हैं।

केंद्र के पास न तो राज्‍यों को देने के लिए संसाधन हैं और बांटने के लिये कर रियायतें। विशेष राज्‍य के दर्जे से बिहार या बंगाल के बदलने की गारंटी भी नहीं है लेकिन यह दर्जा मिलने से इन राज्‍यों की जिंदगी में केंद्र की भूमिका कीमती हो जाएगी। सामान्‍य श्रेणी के राज्‍यों में केंद्रीय मदद गाडगिल मुकर्जी फार्मूले पर बंटती है लेकिन विशेष श्रेणी वाले राज्‍यों में सहायता के बंटवारे का कोई पारदर्शी पैमाना तक नहीं है। केंद्र में सत्‍तारुढ़ दल के साथ रिश्‍ते, केंद्रीय सहायता में विशेष राज्‍यों का हिस्‍सा तय करते हैं।

भारत में पिछड़ा राज्‍य परिवार के दो हिस्‍से हैं। एक तरफ उत्‍तर पूर्व या पर्वतीय राज्‍य हैं जिनका भूगोल उनके विकास में चुनौती है। जबकि दूसरी तरफ बिहार, उड़ीसा, उत्‍तर प्रदेश, बंगाल हैं जिनके पास सब कुछ है लेकिन उनकी गवर्नेंस ने उनहें तबाह कर दिया है। केंद्र सरकार भौगोलिक और प्रशासनिक पिछड़ेपन को मिलाने का करिश्‍मा करने जा रही है। यह केंद्रीय सहायता में नए किस्‍म के आरक्षण की शुरुआत है। देश के आधे से अधिक राज्‍य खुद की दीनता का प्रचार करते हुए इस आरक्षण की होड़ में उतरेंगे। इस कदम से नई विभाजक राजनीति भी शुरु होती है। विशेष दर्जे के लिए बेताब बिहार, उड़ीसा व बंगाल की मांग को केंद्र सरकार फिलहाल गंभीरता से सुनेगी क्‍यों कि उन पर अगली गठबंधन सरकार का दारोमदार है। जबकि केंद्रीय पूल में अपना हिस्‍सा घटने पर उत्‍तर पूर्व के राज्‍य विरोध की आवाजें उठायेंगे।

  कुछ वर्ष पहले तक राज्‍यों के बीच निवेश आकर्षित करने व ग्रोथ की होड़ होती थी। बिहार व उड़ीसा सबसे तेज दौड़ते राज्‍यों के खिताब बटोर रहे थे लेकिन अब पिछड़ापन भारत के राज्‍यों की नई ब्रांडिंग होने वाली है। कई आर्थिक विसंगतियां देने वाली यूपीए का यह राजनीतिक पैंतरा, देश में तरक्‍की की बहस को सर के बल खड़ा करने जा रहा है। अब ग्रोथ का अभिनंदन का नहीं होगा बल्कि पिछड़ने की सियासत को ईनाम मिलेगा। राज्‍य सभा में जेटली व मनमोहन के संवाद के बहाने रोमन इतिहासकार टैसिटस चर्चा में हैं, जिन्‍होंने यह भी कहा था कि पीछे धकेलने और शर्मिंदा करने वाली सभी चीजें मानो रोम में आकर भर गई हैं। भारत टैसिटस को सही साबित करता दिख रहा है।

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