Monday, April 1, 2013

सर पर टंगा टाइम बम




विदेशी मुद्रा सुरक्षा ही हमारी सबसे कमजोर नस है जो बुरी तरह घायल है। इक्‍यानवे में हम इसी घाट डूबे थे।

भारत अगर डॉलर छाप सकता या आयात का भुगतान रुपये में हो जाता तो सियासत आर्थिक चुनौतियों को किसी भाव नहीं गिनती। शुक्र है कि हम गंजों को ऐसे नाखून नहीं मिले। लेकिन अब तो राजनीति नशा उतरना चाहिए क्‍यों कि भारत विदेशी मुद्रा संकट से बस कुछ कदम दूर है और इस आफत को रुपये छापकर या आंकडों के खेल से रोका नहीं जा सकता। देश के पास महज साढे छह महीने के आयात के लायक विदेशी मुद्रा बची है। विदेशी मुद्रा की आवक व निकासी का फर्क बताने वाले चालू खाते का घाटा फट पड़ने को है। डॉलर के मुकाबले रुपया तीखी ढलान पर टिका है, जहां नीचे गिरावट की गर्त है। दरअसल, भारत अब विदेशी मुद्रा संकट के टाइम बम पर बैठ गया है और उत्‍तर कोरिया में चमकती मिसाइलों से लेकर दरकते यूरोजोन और खाड़ी की चुनौतियों जैसे तमाम पलीते आसपास ही जल रहे हैं।
ग्‍लोबल हालात में एक तेज परिवर्तन या रेटिंग एजेंसियों का नकारात्‍मक फैसला शेयर बाजारों से पूंजी का पलायन शुरु कर 1991 जैसी स्थिति ला सकता है।
इक्‍यानवे में हम इसी घाट डूबे थे। जोखिम की लहरें तब मुकाबले अब काफी ऊंची हैं। जून 1991 में देश के पास केवल तीन सप्‍ताह की विदेशी मुद्रा बची थी। 67 टन सोना बैंक ऑफ इंग्‍लैंड और बैंक ऑफ स्विट्जरलैंड गया और अंतरराष्‍ट्रीय मुद्रा कोष से 2.2 अरब डॉलर का कर्ज मिला तब मुसीबत टली। आर्थिक उत्‍पादन के अनुपात में भारत की अर्थव्‍यवस्‍था, विदेशी मुद्रा की आवक व देनदारी में अधिकतम तीन फीसदी का अंतर बर्दाशत कर सकती है। जिसे चालू खाते घाटा कहते हैं। 1991 के कठिन वक्‍त में यह घाटा 5.6 फीसद था जो ताजा आंकड़ों में जीडीपी के अनुपात 6.7 फीसदी है। जोखिम 1991 की तुलना में दोगुना इसलिए है क्‍यों कि ताजा अस्थिर माहौल में एक साल का आयात का इंतजाम जरुरी है जबकि भारत के पास केवल सात माह के आयात की विदेशी मुद्रा बची है। डॉलर के मुकाबले रुपये में गिरावट भी इक्‍यानवे जितनी ही तेज है।
विदेशी मुद्रा के मोर्चे पर मुसीबत कई नीतिगत असफलताओं का सामूहिक नतीजा है। आर्थिक विकास की बलि चढ़ गई, ईंधन भी महंगा हो गया लेकिन लेकिन पेट्रो आयात का ज्‍वार नहीं उतरा और उलटने सोने का आयात नई ऊंचाई पर चढ़ गया क्‍यों कि बचत को महंगाई से बचाने के लिए लोग सोने पर पिल पडे थे। विदेशी मुद्रा की मांग और व्‍यापार घाटे में बढ़त बरकरार है जो कि ताजा संकट प्रमुख वजह है। मंदी के बावजूद तेल की मांग न घटना अचरज पैदा करता है और सरकार की नीतिगत सूझ पर सवाल खडे करता है। रुपया कमजोर होने से निर्यात बढने का तर्क भी औंधे मुं‍ह गिरा है। विदेशी मुद्रा की मांग थामने और आपूर्ति बढ़ाने के सभी उपाय चुक गए हैं। देश का राजनीतिक माहौल ऐसा नहीं है कि जिसमें बड़ा विदेशी निवेश तत्‍काल आकर विदेशी पूंजी के खाते को ठीक कर सके।
संकट के इस सच को ढकना मुश्किल है कि हालात 1991 से ज्‍यादा खराब हैं। भारत का विदेशी मोर्चा कई नए जोखिमों के लिए खुल चुका है। विदेशी कर्ज पर खतरे का बल्‍ब जल रहा है। छोटी अवधि के विदेशी कर्जे सबसे खतरनाक हैं, पिछले दशक में पूर्वी एशिया के देश इन्‍हीं के कारण धराशायी हुए थे। रिजर्व बैंक के मुताबिक छोटी अवधि के कर्ज बीते मार्च से दिसंबर के दौरान 17.5 फीसदी बढे हैं। कुल विदेशी कर्ज में इनका हिस्‍सा 24 फीसदी है। विदेशी मुद्रा भंडार के अनुपात में विदेशी कर्ज बेहद संवेदनशील पैमाना है जिससे कर्ज चुकाने की क्षमता नापी जाती है। विदेशी मुद्रा भंडार अब केवल 78.6 फीसदी कर्ज चुकाने के लिए पर्याप्‍त है। 2009-10 तक भारत पास कर्ज देनदारी से ज्‍यादा विदेशी मुद्रा थी। विदेशी कर्ज बढ़ने की रफ्तार, विदेशी मुद्रा भंडार बढने से ज्‍यादा तेज होने के कारण दरार चौड़ी हो गई है।
रुपये के तगड़े अवमूल्‍यन की महक महसूस की जा सकती है। डॉलर की कीमत दो से तीन चरणों में 60 से 70 रुपये तक जा सकती है, जो इस समय 55 के करीब है। आयात को महंगा करने के लिए रुपये को कमजोर करना जरुरी है। 1991 में भी दो बार रुपये का अवमूल्‍यन हुआ था, तब जाकर स्थिति सुधरी थी। हालांकि रुपये का गिरना महंगाई को ईंधन देगा लेकिन अब सरकार के सामने विदेशी मुद्रा की मांग थामने के लिए आयात महंगा करने के अलावा कोई विकल्‍प नहीं है। रिजर्व बैंक बाजार में रुपया बढ़ाने और ब्‍याज दरों में कमी से इंकार कर चुका है क्‍यों कि उसे आयात प्रेरित महंगाई का विस्‍फोट सामने दिख रहा है।
पिछले दो दशकों पहली बार ऐसा हुआ है जब अधिकांश विदेशी मुद्रा की जरुरत के लिए हम शेयर बाजार में विदेशी पूंजी या निजी कंपनियों के विदेशी कर्ज पर निर्भर हैं। दिसंबर की तिमाही में चालू खाते के घाटे का आधा हिससा इसी तरह के निवेश या कर्ज से भरा गया। विदेशी निवेशकों के लिए निवेश सीमा में ताजी ढील बताती है कि फिलहाल देश की विदेशी मुद्रा आपूर्ति इस हॉट मनी के भरोसे है जो मौसम बदलते ही उड़ जाती है।
बढता विदेशी मुद्रा घाटा भारत की रेटिंग गिरने का सामान जुटा रहा है। जबकि गिरता रुपया महंगाई को बढा कर सस्‍ते कर्ज और ग्रोथ की वापसी के दरवाजे बंद कर रहा है। दोनो ही परिस्‍थतियों में शेयर बाजारों में निवेश गिरना तय है अर्थात डॉलरों की आवक की एकलौती पाइप लाइन भी जोखिम में है। भारत एक जटिल दुष्‍चक्र में फंस गया है, जिससे सुरक्षित निकलना मुश्किल दिखता है। बजट घाटे या सब्सिडी ने भारत को कभी नहीं डुबाया, क्‍यों कि उसे संभालना संभव है। विदेशी मुद्रा सुरक्षा ही हमारी सबसे कमजोर नस है जो अब बुरी तरह घायल है। 1991 का प्रेत दरवाजा घेर कर बैठ गया है। पिछले पांच वर्षों की गलतियों का तकाजा भारत की तरफ बढ़ रहा है। 

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