शिंजो एबे ग्लोबल बाजारों के लिए सबसे कीमती नेता हैं। दुनिया की तीसरी आर्थिक ताकत यदि जागती है तो ग्लोबल बाजारों का नक्शा ही बदल जाएगा। विश्व की आर्थिक मुख्यधारा में जापान की वापसी बहुत मायने रखती है।
कोई दूसरा मौका होता तो जापान के
प्रधानमंत्री शिंजो एबे दुनिया में धिक्कारे जा रहे होते। लोग उन्हें जिद्दी और
मौद्रिक तानाशाह कहते क्यों कि विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और चौथा
सबसे निर्यातक, जब निर्यात बढ़ाने के लिए अपनी मुद्रा का अवमूल्यन करने लगे तो मंदी
के दौर किसे सुहायेगा। लेकिन हठी व दो टूक शिंजों इस समय दुनिया के सबसे हिम्मती
राजनेता बन गए हैं। उन्होंने येन के अवमूल्यन के साथ जापान की पंद्रह साल पुरानी
जिद्दी मंदी के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया है और मुद्रा कमजोरी को ताकत बनाने में हिचक
रहे अमेरिका व यूरोप को नेतृत्व दे दिया है। परंपरावादी, जटिल और राजनीतिक
अस्थिरता भरे जापान में सस्ता येन, महंगाई और मुक्त आयात जैसे रास्ते वर्जित
हैं अलबत्ता शिंजों की एबेनॉमिक्स ने इन्हीं को अपनाकर जापानी आर्थिक दर्शन को
सर के बल खड़ा कर दिया है। यहां से मुद्राओं के ग्लोबल अवमूल्यन यानी मुद्रा
संघर्ष की शुरुआत हो सकती है लेकिन दुनिया को डर नहीं है क्यों कि शिंजो मंदी से
उबरने की सूझ लेकर आए हैं।
याद करना मुश्किल है कि जापान से अच्छी
आर्थिक खबर आखिरी बार कब सुनी गई थी। पंद्रह साल में पांच मंदियों का मारा जापान डिफ्लेशन
यानी अपस्फीति का शिकार है। वहां कीमतें
बढती ही नहीं, इसलिए मांग व मुनाफों में कोई ग्रोथ नहीं है। बीते दो दशक में
चौतरफा ग्रोथ के बावजूद जापान की सुस्ती नहीं टूटी। 1992 में जापान ने भी, आज के
सपेन या आयरलैंड की तरह कर्ज संकट
की मेजबानी की थी और अचल संपत्ति बाजार की तेजी इसे भी ले डूबी थी। इसके बाद से जापान मंदी से बाहर नहीं आया। बैंक आफ जापान दस साल से ब्याज दर को शून्य पर रखे हुए है लेकिन ग्रोथ नहीं बढ़ती। जापान में आर्थिक विकास की क्षमता व हकीकत में पांच से सात फीसदी का अंतर है, जिसे आउटपुट गैप कहते हैं। अच्छी घरेलू बचत के कारण सरकार को कर्ज लेने में समस्या नहीं है जबकि भारी विदेशी मुद्रा भंडार के कारण जापान विदेशों में निवेश करता है। इसलिए पिछले दशक में दुनिया ने पूरब के इस करिश्मे को सिर्फ कर्ज के बहाने ही याद किया है। या तो जापान की सरकार पर लदे कर्ज को देखकर लोग डरे हैं जो देश के जीडीपी का 230 फीसदी है और दुनिया में सबसे ज्यादा है। या फिर जापान ने विदेशी पूंजी बाजारों में भारी निवेश के साथ 21 साल से दुनिया को सबसे ज्यादा कर्ज देने वाले देश का दर्जा अपने पास रखा है। इसके अलावा जापान में बाकी सब जहां का तहां रुका है। घटती आबादी व बुढ़ाते लोगों से भरा, उदास व ठहरा हुआ जापान उम्मीदों की ग्लोबल दौड़ से बाहर है।
की मेजबानी की थी और अचल संपत्ति बाजार की तेजी इसे भी ले डूबी थी। इसके बाद से जापान मंदी से बाहर नहीं आया। बैंक आफ जापान दस साल से ब्याज दर को शून्य पर रखे हुए है लेकिन ग्रोथ नहीं बढ़ती। जापान में आर्थिक विकास की क्षमता व हकीकत में पांच से सात फीसदी का अंतर है, जिसे आउटपुट गैप कहते हैं। अच्छी घरेलू बचत के कारण सरकार को कर्ज लेने में समस्या नहीं है जबकि भारी विदेशी मुद्रा भंडार के कारण जापान विदेशों में निवेश करता है। इसलिए पिछले दशक में दुनिया ने पूरब के इस करिश्मे को सिर्फ कर्ज के बहाने ही याद किया है। या तो जापान की सरकार पर लदे कर्ज को देखकर लोग डरे हैं जो देश के जीडीपी का 230 फीसदी है और दुनिया में सबसे ज्यादा है। या फिर जापान ने विदेशी पूंजी बाजारों में भारी निवेश के साथ 21 साल से दुनिया को सबसे ज्यादा कर्ज देने वाले देश का दर्जा अपने पास रखा है। इसके अलावा जापान में बाकी सब जहां का तहां रुका है। घटती आबादी व बुढ़ाते लोगों से भरा, उदास व ठहरा हुआ जापान उम्मीदों की ग्लोबल दौड़ से बाहर है।
पंद्रह साल में ग्यारह प्रधानमंत्री
बदलने वाले जापान में पिछले साल दिसंबर में, जब शिंजो एबे सत्ता में आए में
दुनिया ने उबासी ही ली थी। यह शिंजो की दूसरी पारी थी इसलिए निराशा ज्यादा थी
लेकिन एबे जापान की रुढिया तोड़ते दिख रहे है। शायद उनके पास खोने के लिए कुछ नहीं
है। जापान की नई सरकार के ताबड़तोड़ फैसलों से मंदी के खिलाफ ग्लोबल रणनीति बदल
गई है। एबे ने ताकतवर जापानी केंद्रीय बैंक को झुकाकर बाजार में पूंजी छोड़ने और
महंगाई बढ़ाने के लिए बाध्य किया, ताकि डॉलर के मुकाबले मजबूती का इतिहास बना रहा
येन कमजोर हो सके और निर्यात बढ़ सके। बैंक ऑफ जापान बाजार में दो साल में 1.4 खरब
येन छोडेगा, महंगाई दो फीसदी तक लाई जाएगी। येन की कमजोरी निर्यातकों में उत्साहित
कर रही है, बाजार जग रहा है और जापान सक्रिय हो रहा है। जापान में आयात का
उदारीकरण नहीं बिकता। वहां कृषि आयात पर 700 फीसदी तक सीमा शुल्क है। लेकिन
शिंजो एबे यूरोपीय समुदाय और चीन व कोरिया के साथ मुक्त व्यापार समझौते कर रहे
हैं जो अप्रत्याशित है। भारी बचत पर बैठी जापानी कंपनियों को पुनर्गठन व निवेश के
लिए बाध्य किया जा रहा है।
मुद्रास्फीति वाली एबेनॉमिक्स जापान की
पारंपरिक मौद्रिक नीति के खिलाफ जाती है और मुद्राओं के प्रतिस्पर्धी अवमूल्यन
का रास्ता खोलती है। जापान के इस कदम से दुनिया सहमी भी थी। फरवरी में मास्को
में जी20 देशों के वित्त मंत्री इसी लिए मिले भी थे लेकिन इसी बैठक ने ग्लोबल करेंसी
युद्ध के खतरे को खारिज कर दिया, शायद इसलिए कि अमेरिका,ब्रिटेन व यूरोजोन भी इसी
काम में लगे हैं। ट्रिपल ए रेटिंग घटने के बाद ब्रिटिश पाउंड गिर रहा है और
ब्रितानी निर्यातक खुश हैं कि मौका मुश्किल से आया। अमेरिका में फेड रिजर्व की
उदार मौद्रिक नीति के बाद डॉलर भी गिरा है, चीन तो पहले से ही इस क्लब का हिससा
है। इस समूह को अब जापान का नेतृत्व मिल गया है। दुनिया तीनों शीर्ष केद्रीय बैंक
फेड रिजर्व, यूरोपियन सेंट्रल बैंक और बैंक ऑफ जापान , करेंसी छाप कर मंदी को डरा
रहे हैं।
एप्पल के मुखिया स्टीव जॉब्स ने कहा था
कि जापान दिलचस्प है। वह किसी आविष्कार को उसके वास्तविक खोजकर्ताओं से बेहतर
समझता है, इसलिए जापान पुर्नआविष्कार में सक्षम है। कमजोर मुद्रा जापान की पुरानी
खोज है जिसे वह नए सिरे से इस्तेमाल कर रहा है। वक्त मुस्कराकर 1985 के प्लाजा
समझौते को याद कर रहा है जब कमजोर येन और जर्मन मार्क अमेरिका की मुसीबत बन गए थे।
पांच देशों के बीच समझौते के बाद डॉलर का अवमूल्यन किया गया ताकि अमेरिकी
निर्यातकों का नुकसान रुक सके। आज कमजोर येन ही दुनिया की उम्मीद है और शिंजो एबे
इस समय ग्लोबल बाजारों के लिए सबसे कीमती नेता हैं। एबेनामिक्स अगर उलटी पड़ी तो जापान का पता नही
क्या हाल होगा लेकिन कामयाब हुई तो बहुत कुछ बदल जाएगा। दुनिया की तीसरी आर्थिक
ताकत यदि जागती है तो ग्लोबल बाजारों का नक्शा ही बदल जाएगा। विश्व की आर्थिक
मुख्यधारा में जापान की वापसी बहुत मायने रखती है।
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