Monday, April 29, 2013

उभरते बाजारों की नई पीढ़ी



टिम्‍प अर्थात टर्कीइंडोनेशियामैक्सिको और फिलीपींस। यह उभरते बाजारों की नई पीढ़ी है जो पूंजी के प्रवाह का ग्‍लोबल संतुलन बदलने वाली हैं।
बाजार बडा बेताब है। उसने उभरती दुनिया यानी भारत, ब्राजील, रुस, चीन, दक्षिण अफ्रीका को ज्‍यादा  वक्‍त नहीं दिया। पिछले महीने डरबन में जब, ब्रिक्‍स को तस्‍वीरी आयोजन से बाहर निकालने की पहली गंभीर कोशिश चल रही थी,  ठीक उसी वक्‍त ग्‍लोबल निवेशक लंदन व न्‍यूयार्क के बाजारों में टिम्‍प की ताजपोशी का ऐलान कर रहे थे। टिम्‍प अर्थात टर्की, इंडोनेशिया, मैक्सिको और फिलीपींस। यह उभरते बाजारों की नई पीढ़ी है जो पूंजी के प्रवाह का ग्‍लोबल संतुलन बदलने वाली हैं। इस बदलाव की रोशनी में भारत के लिए मंदी से उबरना अब अनिवार्यता बन गया है। यह संयोग ही है कि महंगाई लेकर विदेशी मुद्रा बाजार तक, आर्थिक उदासी टूटने की ताजा उम्‍मीदें उभरने लगी हैं। सियासत चाहे जितनी भी नकारात्‍मक हो लेकिन उसे इन उम्‍मीदों को सहारा देना ही होगा  क्‍यों कि शेयर बाजारों में विदेशी निवेश ही है जिसने भारत के लिए उम्‍मीदों की बची खुची डोर को थाम रखा था, अब उस पर भी खतरा मंडरा रहा है।  
डरबन की पांचवीं शिखर बैठक में क्षेत्रीय बैंक बनाने को लेकर ब्रिक्‍स की बेचैनी बेसबब नहीं थी।  ब्रिक्‍स की जुटान ठीक पहले टर्नर इन्‍वेस्‍टमेंट की रिपोर्ट से नए उभरते बाजार यानी टर्की, इंडोनेशिया, मैक्सिको और फिलीपींस (टिम्‍प) बाहर आ चुके थे। करीब 11 अरब डॉलर का निवेश संभालने वाली अमेरिकी फर्म टर्नर इन्‍वेस्‍टमेंट ने बताया कि 25 मार्च तक बारह महीने के दौरान ब्रिक्‍स बाजारों का सूचकांक 6.5 फीसदी गिरा है, दूसरी तरफ टिम्‍प के बाजारों ने करीब दस फीसदी से लेकर 37.7 फीसदी तक की बढ़त
दर्ज की है। इसके बाद से टिम्‍प के समर्थन में आकलनों की झड़ी लग गई है। ठीक इसी तरह 2001 में गोल्‍डमैन सैक्‍शे के विशेषज्ञ जिम ओ नील के रिसर्च पेपर से ब्रिक जन्‍म हुआ था। ब्राजील, रुस, भारत व चीन को ‘ब्रिक’ कहा गया, बाद में दक्षिण अफ्रीका भी इसमें शामिल हो गया। ब्रिक्‍स देशों का साझा मंच 2008 में बना। ब्रिक्‍स के शिखर सम्‍मेलनों से हाथ मिलाते नेताओं की तस्‍वीरों के अलावा कुछ भी ठोस बाहर न आया हो लेकिन निवेशकों ने ब्रिक्‍स को सर आंखो पर लिया। 2001 से 2010 के बीच ब्रिक्‍स के शेयर बाजारों सबसे ज्‍यादा मुनाफा कमाया गया। इस दौरान ब्रिक ने  6.6 फीसद की संयुक्‍त आर्थिक विकास दर दर्ज की। जो विश्‍व की विकास दर की दोगुनी है।
यही सब कुछ टिम्‍प में दोहराये जाने की संभावना है। टर्की मंदी के दौर की शानदार कहानी है। चीन जैसे ग्रोथ टरबाइन थमने के बीच टर्की ने 8-9 फीसद की गति से तरक्‍की कर दुनिया का ध्‍यान अपनी तरफ खींचा। आटोमोबाइल कंपनियों का नया आकर्षण टर्की, एशिया और यूरोप को जोड़ता है और भौगोलिक रुप से दोनों बाजारों के फायदे लेने में सक्षम है। बराक ओबामा पिछले माह इजरायल में थे। उन्‍होंने टर्की से रिश्‍ते सुधारने के लिए इजरायल को जिस तरह बाध्‍य किया वह ग्‍लोबल सियासत में इस देश के बढ़ते रसूख का सबूत है।
  टिम्‍प का दूसरा सदस्‍य इंडोनेशिया आबादी के लिहाज से दुनिया का चौथा सबसे बड़ा मुल्‍क है। ग्‍लोबल मंदी के बावजूद 2012 में यहां 23 अरब डॉलर का विदेशी निवेश हुआ। उभरता मध्‍य वर्ग खपत बढा रहा है। शेयर बाजार ने पिछले एक साल में 9.4 फीसदी की छलांग लगाई है। मैक्सिको मैन्‍युफैक्‍चरिंग का पुराना गढ है अब इसने ग्रोथ के मामले में ब्राजील को पछाड़ दिया है। तेल खोज में निवेश बढ रहा है। गोल्‍डमैन सैक्‍शे की मानें तो मैक्सिको 2050 में दुनिया की पांचवी सबसे बड़ी अर्थव्‍यवस्‍था होगा। फिलीपींस ने भारत के सूचना तकनीक सेवा उद्योग में झाडू फेर दी है। यहां का शेयर बाजार पिछले एक साल में 37 फीसदी बढा है। वैसे तो दुनिया में कई दूसरी छोटी अर्थव्‍यवस्‍थायें भी ग्रोथ पर है लेकिन खुला बाजार, सक्रिय शेयर मार्केट व कानूनी ढांचा टिम्‍प देशों की खूबी है। इसलिए बडे निवेशक टिम्‍प बाजारों के लिए खास निवेश फंड बनाने लगे हैं, जैसे कि कभी ब्रिक देशों के लिए बने थे।
ब्रिक्‍स ठहरे नहीं हैं इनकी ग्रोथ आज भी यूरोप व अमेरिका से बेहतर है लेकिन निवेशक जीडीपी की ताजा ग्रोथ पर नहीं बल्कि भविष्‍य की उम्‍मीदों पर निवेश करते हैं। पिछले दशक में ब्रिक्‍स की लोकप्रियता का यही पैमाना था। लेकिन अब ब्रिक्‍स थक रहे हैं। ब्राजील में खनिजों पर निर्भरता और बाजार में सरकार के दखल को देखकर निवेशक ऊबते हैं। रुस में भ्रष्‍टाचार व अच्‍छी श्रम शक्ति की कमी उम्‍मीदों को तोड़ती है। भारत में बु‍नियादी ढांचे, अच्‍छी नीतियों व पारदर्शिता की समस्‍या है। चीन में ग्रोथ है लेकिन सामाजिक तनाव, पर्यावरण समस्‍यायें और वित्‍तीय अपारदर्शिता निवेशकों की रुचि को सीमित कर रही है। ग्‍लोबल बाजारों में पूंजी प्रवाह को नापने वाली एजेंसी ईपीएफआर की ताजी रिपोर्ट कहती है कि पिछले एक साल में ब्रिक्‍स देशों के निवेश फंड से काफी पैसा निकाला गया है।
उभरते बाजारों की पिछली पीढ़ी में भारत ही अकेला है जिसके बुनियादी आर्थिक कारक फिलहाल सबसे ज्‍यादा नकारात्‍मक हैं। रुस के पास तेल है, ब्राजील के पास खनिज हैं, चीन के पास मैन्‍युफैक्‍चरिंग हैं, लेकिन भारत के पास निवेशकों के भरोसे लायक कोई ठोस नेमत नहीं है, यहां तो निवेश केवल विकास के बूते ही आया है। इसलिए टिम्‍प के उभार की रोशनी में आर्थिक सुस्‍ती से उबरने की ताजा जद्दोजहद महत्‍वपूर्ण हो गई है। सोने की कीमत गिरने से रुपये में मजबूती, मुद्रास्‍फीति में नरमी, अच्‍छे मानसून की उम्‍मीद, मंदी थमने के आकलन और रेटिंग सुधरने की संभावनायें, अच्‍छे संकेत हैं जो अर्से बाद एक साथ दिखे हैं। सियासी अस्थिरता के बावजूद इन्‍हें सस्‍ते कर्ज और संतुलित नीतियों की टॉनिक चाहिए। ठप निर्यात व थमती औद्योगिक पूंजी के बीच शेयर बाजार में विदेशी निवेश ही डॉलरों की आवक का प्रमुख स्रोत है, जिससे आयात की जरुरतें पूरी होती है। ब्रिक्‍स देशों में सबसे कम डॉलर भंडार वाला, भारत इन निवेशकों का रुठना बर्दाशत नहीं कर सकता। शेयर बाजार में विदेशी निवेश घटने का दो टूक मतलब यह है कि विदेशी मुद्रा का संकट हमारे दरवाजे पर खड़ा पर है।  

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