2013 की चुनौतियां इक्यानवे की तुलना में ज्यादा कठिन और भारी हैं। 1991 का घाव तो तुरंत के इलाज से भर गया था, 2013 की टीस लंबी चलेगी।
आर्थिक चुनौतियों की
फितरत बदल चुकी है। मुसीबतों की नई पीढ़ी यकायक संकट बन कर फट नहीं पड़ती बल्कि धीरे
धीरे उपजती है और जिद्दी दुष्चक्र बनकर चिपक जाती है। भारत के लिए 1991 व 2013 के
बीच ठीक वही फर्क है जो अंतर संकट और दुष्चक्र के बीच होता है। संकट कुछ कीमत
वसूल कर गुजर जाता है मगर दुष्चक्र लंबी यंत्रणा के बाद पीछा छोड़ता है। भारत में 1991 के तर्ज पर विदेशी मुद्रा संकट दोहराये
जाने का डर नहीं है लेकिन उससे ज्यादा विकट दुष्चक्र की शुरुआत हो चुकी है। रुपये
को बचाने के लिए ग्रोथ, रोजगार, लोगों की बचत व
क्रय शक्ति की कुर्बानी शुरु हो गई है। तीन माह में आठ रुपये महंगा पेट्रोल तो बानगी
भर है दरअसल रुपये में मजबूती लौटने की कोई गुंजायश नहीं है इसलिए पेट्रो उत्पाद, खाद्य तेल, कोयला से इलेक्ट्रानिक्स
तक जरुरी चीजों लिए आयात पर निर्भरता, अब रह रह कर घायल करेगी।
डॉलरों की कमी भारत
पुराना व सबसे बड़ा खौफ है इसलिए विदेशी मुद्रा मोर्चे पर आपातकाल का ऐलान हो गया है।
तीन माह में 12 फीसदी गिर चुके रुपये को बचाने के लिए दर्दनाक असर वाले सीधे
उपायों कीबारी है। विदेशी मुद्रा की मांग घटाने के लिए आयात रोकना या महंगा करना पहला कदम है जबकि ब्याज दरें ऊंची रखना दूसरा, ताकि अपने बाजारों में सस्ती पूंजी लेकर आ रहे विदेशी निवेशकों के लिए देशी वित्तीय बाजारों में रिटर्न बना रहे। इनके अलावा विदेशी निवेश या निर्यात को नए प्रोत्साहन दरअसअल परोक्ष उपाय ही हैं, जिनसे खुद सरकार को तत्काल किसी बड़ी सफलता की उम्मीद नहीं है। देश के निजाम को मालूम है कि अगर सीधे उपायों से बात न बनी तो अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष तक से कर्ज लेने या विदेशी बाजार में बांड जारी करने होंगे, जिसे टालने की भरसक कोशिश हो रही है।
घरेलू मुद्रा को
थामने के लिए देशी बाजार में ब्याज दरें बढ़ाने का टोटका पुराना है। 1997-98 में पूर्वी
एशिया संकट के दौरान तत्कालीन गर्वनर विमल जालान ने यह तरीका अपनाया था। ब्राजील व
इंडोनेशिया ने भी हाल में यही कदम उठाया है।
लेकिन भारत के मौजूदा हालात में यह महंगा कर्ज बुवाई के समय मानसून के धोखा
देने जैसा है। मंदी से उबरने के लिए जब उद्योग जब सस्ती पूंजी के लिए तड़प रहा था
तब रुपये की प्राण रक्षा के लिए कर्ज महंगा किया गया है ताकि ब्याज दर बढऩे से भारतीय
बांडों पर रिटर्न बना रहे और निवेशक पूंजी बाजार से सामान न समेट लें। अलबत्ता विदेशी
मुद्रा बाजार के हालात इस कदर बेकाबू हैं कि यह टोटका रुपये के काम नहीं आया। बढ़ती
ब्याज दरों से डरे रिजर्व बैंक को बाजार से पूंजी खींचने के लिए बांड्स बिक्री
रोकनी पड़ी और डॉलर वापस 61 रुपये के पार हो गया। अलबत्ता इस कवायद में कर्ज
महंगा हो गया है और रिजर्व बैंक बुरी तरह उलझ गया है। इन कदमों की वापसी रुपये को
और तोड़ेगी जबकि बाजार में पूंजी की आपूर्ति पर सख्ती ब्याज दरें ऊंची रखेगी। हालांकि
रिजर्व बैंक ने दूसरा विकल्प चुनने का ऐलान किया है, यानी कि कर्ज महंगा ही रहेगा।
विदेशी मुद्रा
बचाने के लिए आयात पर रोक का दकियानूसी कदम भी अब मजबूरी है। तेल व कोयला आयात रोकना
मुश्किल है इसलिए इलेकट्रानिक्स हार्डवेयर को विदेश से मंगाने पर सख्ती होगी जो कच्चे
तेल व सोने के बाद तीसरा सबसे बडा आयात हैं। बीते वर्ष इनका आयात करीब 31 अरब डॉलर
रहा था। गैर जरुरी आयातों की सूची बन रही है, जिन पर रोक के तरीके निकाले जाएंगे। आयात
पर रोक विस्फोटक महंगाई को न्योता है। खासतौर पर महंगा इलेक्ट्रानिक्स हार्डवेयर
कई उद्योगों को प्रभावित करेगा। भारत की आयात निर्भरता बुरी बढी है। पिछले एक दशक
में देश का मर्चेंडाइज आयात जीडीपी के
अनुपात में 13 से 28 फीसद हो गया है। इस आयात की महंगाई रुपये में गिरावट का सबसे
भयानक असर है।
भारत व अमेरिका की
महंगाई दर में अंतर के मद्देनजर एस एस तारापोर व जैमिनी भगवती जैसे अर्थशास्त्री मान
रहे हैं कि डॉलर 70 रुपये तक जाएगा। अमेरिकी अर्थव्यवस्था में सुधार के संकेत और
विदेशी निवेशकों के बदलते पैंतरों को देखते हुए यह नामुमकिन नहीं है। दरअसल रुपये का
सबसे बड़ा दुशमन रुपया ही है। घरेलू मुद्रा जितनी गिरती है निवेशकों का भरोसा भी उतना
घटता है इसलिए रिजर्व बैंक को यह अहसास हो गया है कि भारतीय अर्थव्यवस्था की
बुनियादी कमजोरी व विदेशी मुद्रा की आवक निकासी में बडे अंतर के चलते रुपये में गिरावट
रोकना मुश्किल है। इसलिए बैंक की कोशिश डॉलर रुपया विनिमय दर में तेज उतार चढ़ाव
रोकने तक सीमित हो रही है। रुपया बाजार की मांग व आपूर्ति के हिसाब से अपने आप स्थिर
होगा। बेहतर है कि सरकार, विदेशी निवेश के लिए हाथ पैर पटकने के बजाय देश में मैन्युफैक्चरिंग
पर जोर दे ताकि आयात निर्भरता कम हो सके। यकीनन यह तरीका धीमा व लंबा है लेकिन अब
वापसी का यही तरीका है।
दुनिया अब संकटों
में डूबती नहीं बल्कि लंबे दुष्चक्रों में निचोडी जाती है मसलन जापान एक दशक लंबे दुष्चक्र से अब निकलने की कोशिश कर
रहा है। बैंकों व साख के डूबने के बाद भी यूरोप की अर्थव्यवस्थायें डूबीं नहीं
अलबत्ता इलाज के लिए जनता को टैक्स लगाकर निचोडा जा रहा है। भारत के पास छह माह से
अधिक का विदेशी मुद्रा भंडार मौजूद है इसलिए 1991 की तर्ज पर डूबने जैसी नौबत नहीं
आएगी अलबत्ता रुपये की निरंतर गिरावट और इसे बचाने के सभी उपाय मिलकर एक लंबी
महंगाई का आयोजन करने वाले हैं। इसलिए उपचार के नतीजे लंबी महंगाई, मंदी व रोजगारों में कमी के दर्द को झेलने
के बाद ही मिलेंगे। दरअसल 2013 की चुनौतियां इक्यानवे की तुलना में ज्यादा कठिन
और भारी हैं। 1991 का घाव तो तुरंत के इलाज से भर गया था, 2013 की टीस लंबी चलेगी।
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