Monday, August 26, 2013

भरोसे का अवमूल्‍यन


 भारत की आर्थिक साख तो भारतीयों की निगाह में ही ढह रही है जो विदेशी मुद्रा बाजार में अफरा तफरी की अगुआई कर रहे हैं।

यह कमाई का सुनहरा मौका है। बचत को डॉलर में बदलकर बाहर लाइये। रुपये के और गिरने का इंतजार करिये। 70 रुपये का डॉलर होने पर मुनाफा कमाइये  भारत के नौदौलतियों के बीच विदेशी बैंकरों, ब्रोकरों और वेल्‍थ मैनेजरों के ऐसे ई मेल पिछले कुछ महीनों से तैर रहे हैं। भारतीय कंपनियां भी डॉलर देश से बाहर ले जाने ले जाने के हर संभव मौके का इस्‍तेमाल कर रही हैं। यकीनन भारत लै‍टिन अमेरिकी मुल्‍कों की तरह बनाना रिपब्लिक नहीं है लेकिन इस भगदड़ ने एक विशाल मुल्‍क को बेहद बोदा साबित कर दिया है। यह एक अनोखी असंगति है कि किस्‍म किस्‍म के आर्थिक दुष्चक्रों के बावजूद ग्‍लोबल रे‍टिंग एजेंसियों की निगाह में भारत की साख नहीं गिरी है। भारत की आर्थिक साख तो भारतीयों की निगाह में ही ढह रही है जो विदेशी मुद्रा बाजार में अफरा तफरी की अगुआई कर रहे हैं। इन्‍हे रोकने के लिए ही डॉलरों को विदेश ले जाने पर पाबंदियां लगाई गईं, जो मुसीबत को बढाने वाली साबित हुईं। इस बेचैनी ने भारत का एक ऐसा चेहरा उघाड़ दिया हैजिस पर अविश्‍वासअवसरवाद व आशंकाओं की छाया तैर रही है।
बहुतों को यह पचाने में मुश्किल हो रही है कि सात माह के विदेशी मुद्रा भंडार, ठीक ठाक सोना रिजर्व और अंतरराष्‍ट्रीय मुद्रा कोष से मदद की संभावनाएं रहते हुए भारत को कैपिटल कंट्रोल क्‍यों लागू करने पड़े, जो बाजार के मनोविज्ञान पर खासे भारी पड़े। अभी तो विदेश में बांड जारी करने या अनिवासियों को डॉलर लाने के लिए प्रोत्‍साहन देने के कदम भी नहीं उठाये गए और डॉलर बाहर ले जाने पर पाबंदियां बढ़ा दी गईं,  जो अंतिम विकल्‍प होना चाहिए था। दरअसल भारत से  नए किस्‍म का पूंजी पलायन
शुरु हो चुका है जिसने सरकार व रिजर्व बैंक को खौफजदा कर दिया। वित्‍तीय बाजारों में डॉलरों की आवाजाही स्‍वाभाविक है, भारत से तो खालिस भारतीय पूंजी बाहर जाने लगी है। कुछ लोगों ने अपनी बचतकमाई और यहां त‍क कि कर्ज को डॉलर में बदलकर देश से बाहर ले जाना शुरु कर दिया है क्‍यों कि मुनाफे का गणित लासानी है। इस साल 30 जनवरी को डॉलर 55 रुपये का था जो 22 अगस्‍त को 65 रुपये का हो गया यानी सात महीने में 20 फीसद रिटर्न। डॉलरों की बहुत बड़ी मांग इस गणित से निकली है क्‍यों कि ताजी पाबंदियों से पहले तक कोई भी भारतीय व्‍यक्तिगत तौर पर अधिकतम दो लाख डॉलर प्रति वर्ष बाहर भेज सकता था जिसे घटाकर अब 75000 डॉलर  किया गया है। रुपया पिछले साल से ढलान पर है इसलिए सयाने व समृद्ध लोग एक अर्से से डॉलर खरीद कर विदेश में रख रहे हैं। हालांकि व्‍यक्तिगत स्‍तर पर अधिकतम एक अरब डॉलर ही बाहर भेजे जाते हैं लेकिन जून के बाद रुपये में तेज गिरावट से यह निकासी बढ़ने लगी थी। रिजर्व बैंक को इस का भी अंदाज है कि अवैध रास्‍तों से विदेश जाने वाली पूंजी तो कई गुना ज्‍यादा हैजिस पर मुनाफा वसूलने का ऐसा मौका पहली बार आया है।
भारतीय अपने कारोबारी भविष्‍य को लेकर आशंकित है इसलिए देशी कंपनियां डॉलरों के निर्यात का बड़ा स्रोत बन चुकी हैं। विदेश में निवेश करने के तमाम रास्‍ते हैं जिनके जरिये बीते वित्‍त्‍ वर्ष में मार्च तक करीब 13 अरब डॉलर देश से बाहर गए। पिछले कुछ माह में कंपनियों ने विदेश में संपत्तियां बेचीं भी हैं, जिससे सात अरब डॉलर वापस आए हैं यानी कि रुपये में गिरावट का फायदा लिया जा रहा है। इस साल अप्रैल में भारतीय कंपनियों ने विदेश में 7.64 अरब डॉलर का निवेश किया था, मई में इसमें कुछ कमी आई। रिजर्व बैंक की ताजा सालाना रिपोर्ट इस मामले में खतरे का बल्‍ब जलाती है क्‍यों कि विदेश में इक्विटी खरीदना, कर्ज देना और गारंटी भारत से बाहर गए निवेश का सबसे बड़ा हिस्‍सा है, जो छोटी अवधि के लिए डॉलर बाहर रखने जैसा है। अप्रैल में 1.77 अरब डॉलर का निवेश गारंटी देने में हुआ है। एकाउंटिंग फर्म ग्रांट थ्रांटन का आकलन कहता है कि अप्रैल में कंपनियों ने 2.92 अरब डॉलर विलय, अधिग्रहण व प्राइ‍वेट इक्विटी में निवेश किये हैं। रिजर्व बैंक के आंकड़े बताते हैं कि 2009-10 के बाद इनमें तेज उछाल आया हैं। रुपये में गिरावट का दौर भी इसी दौरान शुरु हुआ। मार्च 2003 में भारत से विदेश निवेश के लिए आटोमेटिक मंजूरी का रास्‍ता खुला था। 2011-12 तक इस रास्‍ते से मंजूर प्रस्‍तावों की तादाद 974 से बढ़कर 1123 हो गई है। इसलिए रिजर्व बैंक ने ताजा पाबंदी लगाई हैं जिनके तहत कंपनियां अपनी संपत्ति के बराबर राशि का ही विदेश में निवेश कर सकेंगी कि जबकि पहले उन्‍हें अपनी नेटवर्थ (देनदारियां हटाकर कुल संपत्ति) के 400 गुना तक निवेश की इजाजत थी।
रुपये में गिरावट की कहानी करेंट अकाउंट डेफशिटसोना आयातनिर्यातों में कमी जैसे खलनायकों तक सीमित नहीं है। डॉलरों की निकासी का किस्‍सा भी शेयर बाजार में विदेशी निवेशकों की बिकवाली पर खत्‍म नहीं हो जाता। रुपये की गिरावट के पीछे मौजूद अंतरकथायें सुर्खियों में नए अर्थ भर रही हैं। भारत के ताजे विदेशी मुद्रा संकट का चरित्र पूरी तरह आयातित नहीं है। भारतीय अपनी पूंजी को विदेश में घुमाकर मुनाफा कमा रहे हैं। डॉलर में  ज्‍यादातर फॉरवर्ड सौदे भारतीयों ने विदेशी एक्‍सचेंजों में किये हैं, जिन पर रिजर्व बैंक का कोई वश नहीं है इसलिए देश में तमाम सख्‍ती व पाबंदियों के बावजूद रुपया 65 तक टूट गया। ऐसा कतई नहीं है कि भारत 1991 की तरह कुछ हफ्तों की विदेशी मुद्रा का मोहताज हो गया है या अर्थव्‍यवस्‍था को उबारने के सभी आपातकालीन विकल्‍प चुक गए हैं। भारत किसी भी स्थिति में ग्रीस व साइप्रस जैसों से बेहतर है जो लगभग डूब चुके थे। समस्‍या यह है कि विदेशी नहीं भारतीय निवेशक व उद्यमी ही भारत की साख पर भरोसा खो रहे हैं जो शायद ज्‍यादा बड़ा संकट है।

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