Monday, September 16, 2013

ग्रोथ की गर्त


यह ग्रोथ के लिए सबसे बुरा वर्ष होने वाला है। हम बुद्धू लौट कर हिंदू ग्रोथ रेट के उसी पुराने घर पर पहुंच गए हैं जहां दो दूनी चार से फिर शुरुआत करनी होगी।

ह मत समझिये कि रुपये की दुर्दशा, किस्‍म किस्‍म के घाटे और सठियाई राजनीति से घिरा भारत ग्रोथ की ग्‍लोबल बहस से बाहर हो गया है। भारत के इर्द गिर्द एक नई बहस तैयार हो रही है जो दरअसल, भारत में आर्थिक विकास दर की नई गर्त तलाशने की कोशिश है। दिग्‍गज निवेशक, बैंकर और नामचीन विश्‍लेषक किस्‍म किस्‍म के पैमानों के सहारे यह आंकने में जुटे हैं कि भारत में 2013-14 का सूरज 4 फीसद ग्रोथ के साथ डूबेगा या 3.5 फीसद। आक्रामक हताशा वालों को तो ग्रोथ दो फीसद तक गिर जाने की संभावना दिख रही है। इस बहस का इंजन अप्रैल से जून की तिमाही में 4.4 फीसद आर्थिक विकास दर से शुरु हुआ है, जो चार साल की सबसे कमजोर तिमाही है। ग्रोथ के पांच फीसद से नीचे जाने का मतलब है भारत में निवेश का  अकाल और लंबी व गहरी बेकारी। यह आर्थिक उदासी, रुपये की कमजोरी या शेयर बाजारों की तात्‍कालिक उछल कूद से ज्‍यादा बड़ी और कठिन समस्‍या है क्‍यों कि ग्रोथ सबसे बड़ी नेमत है जिसके डूबने से बाकी चुनौतियां तो स्‍वाभाविक हो जाती हैं।
आर्थिक विकास दर का लक्ष्‍य फिलहाल भारत में किसी सरकारी या निजी आर्थिक बहस का विषय नहीं है क्‍यों कि रुपये की मरम्‍मत, आयात पर रोक, पेट्रो ईंधन को महंगा करने की आपा धापी में असली मंजिल
ही आंख से ओझल हो गई है। पिछले साल तक आठ-सात और छह फीसद की ग्रोथ का दावा करने वाले सरकारी बड़बोले अब इस साल की आर्थिक विकास दर के कयासों पर भी बात करने से हिचकते हैं कि क्‍यों कि ग्रोथ कितनी भी ढुलक सकती है। हालांकि  चेहरा ढंकने से हकीकत गुम नहीं होती। निवेश के सूत्रधार और गाइड ग्‍लोबल निवेशकों में भारत की ग्रोथ का आकलन घटाने की होड़ लगी है। क्रिसिल को 4.8 फीसद ग्रोथ की उम्‍मीद है। लेकिन निवेश बैंक नोमुरा को लगता है कि भारत के लिए इस साल 4.2 फीसद की ग्रोथ भी मुश्किल है। एचएसबीसी व गोल्‍डमैन सैक्‍शे तो इसे चार फीसद पर ही रोक रहा है। बीएनपी पारिबा 3.7 फीसद बोलता है। कुछ निवेशक तो 3.5 और दो फीसदी तक के आकलन उछाल रहे हैं।
सभी आकलनों में एक तथ्‍य समान है कि अब भारत के लिए इस साल पांच फीसद की ग्रोथ का भी दम भरने वाला कोई नहीं बचा है। सभी आकलनों का औसत 3.5 से 4.5 फीसद के बीच जाकर टिकता है, यकीनन देश के इस गर्त में जाने का अंदाज किसी को नहीं था। आर्थिक विकास दर को लेकर इस कदर निराशा इसलिए है कि देश की अर्थव्‍यवस्‍था जिस आईसीयू में भर्ती है वहां आर्थिक विकास की दौड़ अब वरीयता पर ही नहीं है। एक नहीं कई कारक मिलकर चालू वर्ष को ग्रोथ के लिए सबसे बुरा वर्ष बनाने जा रहे हैं। तमाम मुसीबतों के बीच वित्‍त मंत्री को जीडीपी के अनुपात में 4.8 फीसद राजकोषीय घाटे का लक्ष्‍य हासिल करना है। इस घाटे का 63 फीसद लक्ष्‍य जुलाई तक मिल चुका है। इसलिए अगले आठ माह वित्‍त मंत्री खर्च काटेंगे, यानी सरकार का निवेश कम होगा। इस वित्‍त वर्ष की पहली तिमाही के आंकड़े बताते हैं कि अर्थव्‍यवस्‍था में निजी निवेश की रफ्तार भी बुरी तरह टूट गई है। नतीजतन समग्र पूंज निवेश में कोई बढ़ोत्‍तरी नहीं हुई है। औद्योगिक उत्‍पादन में बेहद मामूली सुधार दिखाने वाला जुलाई का आंकड़ा महज छलावा है, औद्योगिक उत्‍पादन के पास निवेश व मांग दोनों का सहारा नदारद है। वित्‍तीय सेवाओं की ग्रोथ 17 तिमाहियों के सबसे निचले स्तर पर है। उपभोक्‍ता खपत के मामले में अचछा मानसून उम्‍मीद की एकलौती रोशनी है, लेकिन महंगाई के कारण आम लोगों का खर्च बढ़ने और मांग निकलने की संभावना कम ही है। रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति का वरीयता क्रम बदल गया है। ग्रोथ अं‍तिम वरीयता पर है। रुपये की हिफाजत और महंगाई थामना पहली व दूसरी वरीयता है जिसके लिए बाजार में मुद्रा आपूर्ति में कमी जरुरी है यानी यानी कर्ज महंगा रहेगा और निवेश ठप।
भारत के लिए ग्रोथ की अनुपस्थिति का मतलब अमेरिका या चीन जैसा नहीं है। एक विशाल युवा आबादी वाले देश में तेज विकास ही रोजगार की उम्‍मीदों को संभाल सकता है। यही विकास आय बढ़ाकर उपभोग खर्च व बचत का रास्‍ता तैयार करता है, जिससे मांग व निवेश के संसाधन निकलते हैं। भारत में गरीबी को कम करने में सबसे निर्णायक भूमिका तेज ग्रोथ की रही है। रुपये की कमजोरी, महंगाई, ऊंची ब्‍याज दरें तो इस विध्‍वंस के साधन मात्र हैं, निष्‍कर्ष यह है भारत के नेताओं ने बेशकीमती ग्रोथ को खैरात समझा और वह सब कुछ किया जिसे तेज विकास ने तिल तिल कर दम तोड दिया। कुल्‍हाड़ी पर पैर मारना इसी को कहते हैं।
भारत के कथित सुधार पुरुष डा. मनमोहन सिंह देश को ठीक वहीं छोड़कर विदा होंगे, 1991 में वह जहां से शुरु हुए थे।  1991 में भी भारत की आर्थिक विकास दर घटकर 1.1 फीसदी रह गई थी और दहाई की महंगाई व विदेशी मुद्रा का संकट बोनस में था। ग्रोथ की गणित के मामले में 1991 व 2013 में बड़ा फर्क नहीं है। आज जीडीपी के अनुपात में विदेश व्‍यापार (ट्रेड इंटेंसिटी) 36 फीसद और विदेशी पूंजी की आवाजाही शत प्रतिशत है जो 1991 में नगण्‍य थी। यदि आज की ग्रोथ में इन विदेशी कारकों को निकाल दिया जाए तो भारत की शुद्ध देशी ग्रोथ दर दो फीसद ही रह जाती है। आठ दस फीसद की ग्रोथ मंजिल का ख्‍वाब देखते देखते हम दो तीन फीसद ग्रोथ की गर्त में आ गिरे हैं। ग्रोथ की सांप सीढी पर 99वें नंबर का सांप हमें खा गया है। हम बुद्धू लौट कर हिंदू ग्रोथ रेट के उसी पुराने घर पर पहुंच गए हैं जहां दो दूनी चार से फिर शुरुआत करनी होगी।  

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