बढ़ती कीमतों को आर्थिक समस्या मानने वाली दुनिया भारत में महंगाई का जनसंख्याशास्त्र बनता देख रही है।
दिल्ली के तख्त का ताज किसे मिलेगा यह उतना बड़ा
सवाल नहीं है जितनी बड़ी पहेली यह है कि क्या भारत की सबसे बडी नेमत ही दरअसल उसकी
सबसे बड़ी मुसीबत बनने वाली है। भारत की सबसे बड़ी संभावना के तौर
चमकने वाली युवा
आबादी अब, समृद्धि की जयगाथा नहीं बल्कि मुसीबतों का नया अर्थशास्त्र लिखने लगी
है। भारत की लंबी और जिद्दी महंगाई में इस यंगिस्तान की भूमिका अचानक बड़ी होने
लगी है। एक तरफ उत्पादन व उत्पादकता में गिरावट और दूसरी तरफ खपत की क्षमताओं से
लैस इस कार्यशील आबादी ने ताजा महंगाई को एक जटिल सामाजिक परिघटना बना दिया है। भारत
में लोगों की कमाई को कोई पंख नहीं लगे हैं, लेकिन खपत में सक्षम आबादी बढ़ने से महंगाई
की नींव में मांग व आपूर्ति में स्थायी असंतुलन का सीमेंट भर गया है। तभी तो रिकार्ड
कृषि उत्पादन और ब्याज दरों में लगातार वृद्धि के बावजूद जिद्दी महंगाई पिछले पांच
साल से जीत का अट्टहास कर रही है और बढ़ती कीमतों को आर्थिक समस्या मानने वाली
दुनिया भारत में महंगाई का जनसंख्याशास्त्र बनता देख रही है।
मिल्टन फ्रीडमैन ने बड़े ठोस विश्वास के साथ कहा
था कि मुद्रास्फीति हर जगह और हमेशा एक मौद्रिक परिघटना है। खुले बाजार व मु्द्रास्फीति
के विशेषज्ञ अमेरिकी अर्थविद फ्रीडमैन मानते थे कि सरकारें जितनी ज्यादा करेंसी
छापेंगी मुद्रास्फीति उतनी ही बढ़ेगी। लेकिन बीसवीं सदी के इस वैचारिक पुरोधा को इक्कीसवीं
सदी के पूर्वार्ध में गलत
साबित होना पड़ रहा है। मु्द्रास्फीति को लेकर पूरी दुनिया असमंजस की मु्द्रा में है। ढेर सारी मुद्रा व सस्ते कर्ज से मांग बढाने की कोशिशें भी बेअसर हो रही हैं और मुद्रा की आपूर्ति थामने के लिए कर्ज को महंगा बनाकर महंगाई रोकने के प्रयास भी औंधे मुंह गिरे हैं। फेड रिजर्व ने डॉलर छाप कर बाजार को सस्ते कर्ज से भर दिया लेकिन अमेरिकी अर्थव्यवस्था में मांग नहीं लौटी। बैंक ऑफ जापान तो लगभग एक दशक से शून्य ब्याज दर पर येन बाजार में उड़ेल रहा हैं लेकिन अपस्फीति (डिफ्लेशन) खत्म ही नहीं होती। इनके ठीक विपरीत भारत में मार्च 2010 से अब तक रेपो रेट में करीब पंद्रह बार बढ़ोत्तरी के बावजूद मौद्रिक उपायों से महंगाई कम नहीं हुई।
साबित होना पड़ रहा है। मु्द्रास्फीति को लेकर पूरी दुनिया असमंजस की मु्द्रा में है। ढेर सारी मुद्रा व सस्ते कर्ज से मांग बढाने की कोशिशें भी बेअसर हो रही हैं और मुद्रा की आपूर्ति थामने के लिए कर्ज को महंगा बनाकर महंगाई रोकने के प्रयास भी औंधे मुंह गिरे हैं। फेड रिजर्व ने डॉलर छाप कर बाजार को सस्ते कर्ज से भर दिया लेकिन अमेरिकी अर्थव्यवस्था में मांग नहीं लौटी। बैंक ऑफ जापान तो लगभग एक दशक से शून्य ब्याज दर पर येन बाजार में उड़ेल रहा हैं लेकिन अपस्फीति (डिफ्लेशन) खत्म ही नहीं होती। इनके ठीक विपरीत भारत में मार्च 2010 से अब तक रेपो रेट में करीब पंद्रह बार बढ़ोत्तरी के बावजूद मौद्रिक उपायों से महंगाई कम नहीं हुई।
महंगाई की बहस में जनसांख्यिक अर्थशास्त्र का दखल
दिलचस्प है। जो कुछ ताजा अध्ययनों में मुखर हो रहा है। अमेरिकी फेड रिजर्व की
सेंट लुइस शाखा के अध्यक्ष जेम्स बुलार्ड के नेतृत्व में तीन विशेषज्ञों जनंसख्या
और महंगाई के अंतरसंबंध को शोध कर निष्कर्ष दिया है कि युवा आबादी वाले देशों में
महंगाई की दर ज्यादा होती है क्यों कि युवाओं के पास सीमित संपत्ति और वेतन ही
आय का स्रोत होते हैं। इसलिए जनसांख्यिक परिवर्तनों के दौरान वेतन, खपत व महंगाई
तीनों बढ़ते हैं। जबकि प्रौढ़ व वृद्ध आबादी की बहुलता वाले देश में बचत पर ज्यादा
रिटर्न की अपेक्षा होती है और खर्च कम। आईएमएफ का एक ताजा वर्किंग पेपर (सितंबर
2013) रोचक अंदाज में बताता है कि बुजुर्गों की बहुलता वाले देशों में मौद्रिक
नीति का असर घटता जाता है। सस्ते कर्ज से उत्पादन बढ़ाने में कोई मदद नहीं मिलती
क्यों कि प्रौढ़ व वृद्ध कम खर्च करते है। जापान इसका सबसे सहज उदाहरण है। ग्रोथ
और महंगाई के रिश्ते भी स्थापित होने लगे हैं। भारत, ब्राजील, इंडोनेशिया, टर्की,
रुस सहित जिन आठ उभरते बाजारों ने 2000 से 2011 के बीच तेज ग्रोथ दर्ज की वहां
महंगाई ने नए रिकार्ड बनाये हैं। यहां युवा आबादी ने ग्रोथ के साथ कीमतों में
बढ़ोत्तरी को भी ईंधन दिया है।
इन तथ्यों की रोशनी में भारत को महंगाई के
लगातार बने रहने का डर अब और बड़ा हो गया है। भारत में युवा व कार्यशील आबादी हिलोरें
ले रही है। 15 से 34 आयु वर्ग की आबादी इस
समय 43 करोड़ हैं जो 2021 तक करीब 47 करोड़ होगी। इरिस और यूएन हैबीटेट की ताजा
रिपोर्ट के अनुसार शहरों में हर तीसरा व्यक्ति युवा है। सात साल में भारत दुनिया
का सबसे युवा मुल्क होगा। यकीनन भारत में युवा आबादी की आय नहीं बढ़ी है, इसलिए इनकी
बचत भी न के बराबर है अलबत्ता क्षमताओं व आय के मुताबिक युवा खर्च व खपत के
चैम्पियन हैं। औद्योगिक उत्पादन में गिरावट के कारण दाल, तेल व कोयले से लेकर इलेक्ट्रानिक्स
बहुत कुछ आयातित है जो अपने साथ ग्लोबल व विनिमय दर में अस्थ्िारता की महंगाई
लेकर आता है। युवा देशों में महंगाई बढने के आकलन सिर्फ तर्क ही नहीं इतिहास सिद्ध
भी हैं। कमजोर उत्पादकता के बीच अमेरिका में 1970 में युवा व कार्यशील आबादी का
विस्फोट (बेबी बूम) भारी महंगाई व बेकारी
लेकर आया था। इसी दौरान अर्थशास्त्री आर्थर ओकुन ने जनता की मुसीबत नापने वाले
सूचकांक (मिजरी इंडेक्स) का ईजाद किया था जिसके मुताबिक अमेरिका में निक्सन,
गेराल्ड फोर्ड व जिमी कार्टर के कार्यकाल में एक पूरा दशक महंगाई व बेकारी की भेंट
चढ़ गया।
भारत के लोग खीझ मिटाने के लिए अपना गिरेबान पकड़
कर खुद को पीट सकते हैं। महंगाई हमारी मुसीबतों की जड़ है, जिसकी जड़ में बढ़ती आबादी
की खाद साफ दिखती है। हमने युवा आबादी को वरदान
व जनसांख्यिकीय लाभ (डेमोग्राफिक डिविडेंड) माना था और इसके जरिये आर्थिक उत्पादन
में इजाफे के मंसूबे बांधे थे लेकिन शिक्षा व रोजगार को मोहताज यह विशाल आबादी पलट
कर देश की ग्रोथ को चबाने लगी है। हमारे पास अब महंगाई का पूरा परिवार जुट गया है।
जरुरी चीजों की आपूर्ति में कमी और सब्सिडी के खात्मे के साथ नीति प्रेरित महंगाई तो
पहले से थी अब यह जनसांख्यिक भी हो चली है जिसकी यंत्रणा खत्म होने में एक दशक चुक
जाएगा। चुनाव के बाद महंगाई से निजात का मंसूबा बांधना बेकार है क्यों कि बढती
कीमतों और ऊंची ब्याज दरों के दुष्चक्र पर कोई गुजराती जादू कारगर होने वाला
नहीं है। दिल्ली के तख्त पर चाहे जो सूरमा बैठे हठी महंगाई से जल्दी छुटकारा अब
चमत्कार ही होगा।
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आपका लेख पढा। तथ्यपरक तो है पर समाधान देने की बजाय डरावना है। इसका मतलब यह तो नहीं कि चुनाव न हों और सरकार न बदले। आपके लेख से ऐसी ही ध्वनि निकलती है।
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