अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में भारत ने अपना हमसफर चुन लिया है. जी 20 की बैठक के बाद अगर भारत और अमेरिका की दोस्ती देखने लायक होगी तो भारत और चीन के रिश्तों का रोमांच भी दिलचस्प रहेगा
अमेरिकी
अभियान की सफलता के बावजूद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सलाहकारों को यह एहसास हो
गया था कि तमाम पेचोखम से भरपूर, व्यापार की ग्लोबल कूटनीति में भारत
कुछ अलग-थलग सा पड़ गया है. चीन और अमेरिका की जवाबी पेशबंदी जिस नए ग्लोबल
ध्रुवीकरण की शुरुआत कर रही है, दो विशाल व्यापार संधियां उसकी धुरी
होंगी. अमेरिका की अगुआई वाली ट्रांस पैसिफिक नेटवर्क (टीपीपी) और चीन की सरपरस्ती
वाली एशिया प्रशांत आर्थिक सहयोग (एपेक) अगले कुछ वर्षों में विश्व व्यापार संगठन
(डब्ल्यूटीओ) को निष्प्रभावी कर सकती हैं. इन दोनों संधियों में भारत का कोई दखल
नहीं है और रहा डब्ल्यूटीओ तो वहां भी एक बड़ा समझैता रोक कर भारत हाशिए पर सिमटता
जा रहा था. यही वजह थी कि जी20 के लिए प्रधानमंत्री के ब्रिस्बेन पहुंचने
से पहले भारत के कूटनीतिक दस्ते ने न केवल अमेरिका के साथ विवाद सुलझकर डब्ल्यूटीओ
में गतिरोध खत्म किया बल्कि दुनिया को इशारा भी कर दिया कि अंतरराष्ट्रीय कूटनीति
में भारत ने अपना हमसफर चुन लिया है.
प्रधानमंत्री
नरेंद्र् मोदी की कूटनीतिक वरीयताएं स्पष्ट होने लगी हैं. राजनयिक हलकों में इसे
लेकर खासा असमंजस था कि चीन के आमंत्रण के बावजूद, प्रधानमंत्री
एशिया प्रशांत आर्थिक सहयोग शिखर बैठक के लिए बीजिंग क्यों नहीं गए?
एशिया प्रशांत क्षेत्र की सभी प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं और अमेरिका, रूस, कनाडा, जापान की मौजूदगी वाला 21 सदस्यीय एपेक संयुक्त रूप से दुनिया का 53 फीसदी जीडीपी, 44 फीसदी ग्लोबल व्यापार और 40 फीसदी आबादी समेटे हुए है. भारत इस ताकतवर संगठन में शामिल होने की कोशिश करता रहा है. 1998 से 2010 के बीच नए सदस्यों को शामिल करने पर पाबंदी थी, इसलिए सदस्यता का मौका नहीं मिला. जुलाई में भारत यात्रा के दौरान चीन के राष्ट्रपति शी जिनिंपग ने जब प्रधानमंत्री को एपेक में आने का न्योता दिया तो इसे परोक्ष रूप से एपेक की सदस्यता का न्योता ही माना गया. लेकिन प्रधानमंत्री का इनकार शायद उस कूटनीतिक डिजाइन का हिस्सा था जिसमें अमेरिकी रंग, अब नजर आने लगा है.
अमेरिकी
राष्ट्रपति बराक ओबामा ने बीजिंग की एपेक बैठक के लिए अपनी यात्रा की शुरुआत
ट्रांस पैसिफिक पार्टनरशिप का जिक्र करते हुए की थी. अमेरिका के नेतृत्व वाली टीपीपी चीन की ग्लोबल
महत्वाकांक्षाओं का जवाब है. चीन इस संधि से बाहर है और एशिया प्रशांत क्षेत्र में
एक मुक्त व्यापार संधि के लिए एपेक सदस्यों को राजी करने की कोशिश कर रहा है.
ओबामा एपेक की सक्रियता को सीमित करने के एजेंडे के साथ बीजिंग पहुंचे
थे. एपेक के कुछ सदस्य अमेरिकी नेतृत्व
वाली ट्रांसपैसिफिक संधि का हिस्सा भी हैं और अमेरिका टीपीपी वार्ताएं पूरी
होने तक एपेक को रोकने के हक में है, इसलिए एपेक में औपचारिक संधि पर सहमति
नहीं बन पाई, यानी कि बजिंग की जुटान से चीन के माफिक नतीजे
नहीं निकले.
अमेरिकी
नेतृत्व वाली ट्रांस पैसिफिक पार्टनरशिप एशिया प्रशांत और दक्षिण अमेरिका की 21
प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं (भारत शामिल नहीं) को जोड़ती है, जिसके
दायरे में दुनिया का 40 फीसदी जीडीपी और 26 फीसद
व्यापार आता है. दोहा दौर की वार्ताओं को छोड़कर डब्ल्यूटीओ एक सफल ग्लोबल व्यापार
ढांचा बनाने में कमोबेश असफल रहा है इसलिए
अमेरिका ने 2009 में टीपीपी की नींव रखी थी. भारत को अभी तक
टीपीपी वार्ताओं में शामिल नहीं किया गया है लेकिन अमेरिका के साथ ताजा रिश्तों की
रोशनी में इसका रास्ता खुलता दिख रहा है.
दक्षिण
और पूर्व एशिया इस समय ग्लोबल कूटनीति की धुरी है, जहां
प्रतिस्पर्धी व्यापार संधियां आकार ले रही हैं. दिलचस्प है कि भारत यहां एक तीसरी
संधि, आरसीईपी (रीजनल कंप्रिहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप) का हिस्सा है.
आसियान देशों के बीच मुक्ïत व्यापार का नेटवर्क बनाने के
लिए 2012 में
इसकी शुरुआत हुई थी. यह संधि चीन को शामिल करती थी, अमेरिका
को नहीं. भारत ने आसियान में चीन के करीब जाते हुए इस संधि का हिस्सा बनना स्वीकार
किया था. दरअसल प्रधानमंत्री मोदी म्यांमार की ईस्ट एशिया शिखर बैठक में इसी संधि
को मजबूत करने पहुंचे थे लेकिन वहां से जो संदेश निकला वह भारत व
चीन के बीच नहीं बल्कि भारत व अमेरिका के बीच नई गर्मजोशी का था जिसकी शुरुआत
डब्ल्यूटीओ में सहमति से हो रही है.
मोदी के
अमेरिका से लौटते ही राष्ट्रपति बराक ओबामा ने केलॉग्स बिजनेस स्कूल में ऐलान किया
था कि भारत और चीन नहीं बल्कि अमेरिका दुनिया के लिए निवेश का सबसे उपयुक्त
ठिकाना है. हाल के वर्षों में पहली बार किसी अमेरिकी राष्ट्रपति ने इतने मुखर होकर
अमेरिका को, चीन और भारत के मुकाबले दुनिया के सामने पेश
किया. बीङ्क्षजग से इसका जवाब बीते सप्ताह आया जब राष्ट्रपति शी चिनफिंग ने एशिया
प्रशांत आर्थिक सहयोग शिखर बैठक में कहा कि अवसरों और उम्मीदों से भरा चीन विश्व
के नेतृत्व को तैयार है. चीन व अमेरिका के बीच आर्थिक ताकत की जोर-आजमाइश शुरू हो
चुकी है. भारत ने हकीकत को समझ्ते हुए इस प्रतिस्पर्धा में अपनी जगह लेना
शुरू कर दिया है.
भारत व
अमेरिका के बीच नए संबंधों की शुरुआत वाशिंगटन में होनी थी जब प्रधानमंत्री
नरेंद्र मोदी वहां थे लेकिन रिश्तों का नया दौर तो दरअसल म्यांमार की नई राजधानी
से शुरू हुआ है. ओबामा ने पाई ता के डिनर में मोदी को कर दिखाने वाला नेता यूं ही
नहीं कहा. मोदी ने कर दिखाया है. भारत की कूटनीति नई करवट ले रही है. जी20 की
बैठक के बाद अगर भारत और अमेरिका की दोस्ती देखने लायक होगी तो भारत और चीन के
रिश्तों का रोमांच भी दिलचस्पी बढ़ाने में कसर नहीं छोड़ेगा.
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