मोदी ने उग्र हिंदुत्व को खारिज कर गवर्नेंस के ठोस एजेंडे पर तत्काल अमल शुरू नहीं किया तो उनके परिवार के योगी, साक्षी और साध्वी उन्हें अगले कुछ महीनों में ही 2002 का वाजपेयी बना देंगे.
नरेंद्र मोदी
सरकार सिर्फ अच्छी गवर्नेंस की उम्मीदों का मुकुट पहन कर ही सत्ता में नहीं पहुंची
थी. सरकार बनते ही बीजेपी परिवार में दो प्रतिस्पर्धाएं एक साथ शुरू हुई हैं. एक
तरफ सुशासन का परचम है, तेज आर्थिक
प्रगति का उछाह है तो दूसरी तरफ उग्र हिंदुत्व की उम्मीदें भी कम ऊंची नहीं थीं.
होड़ यह थी कि इनमें से कौन-सा एजेंडा अपनी धाक व धमक पहले कायम करता है. सरकार के
छह माह बीतते-बीतते सुशासन के निर्गुण-निराकार आह्वानों पर उग्र हिंदुत्व का ठोस
एजेंडा भारी पड़ता दिखता है. बीजेपी की पीठ पर लदा यह वेताल इतनी जल्दी सामने आ
जाएगा, इसका अंदाजा खुद
शायद मोदी को भी नहीं था लेकिन उग्र हिंदुत्व के पैरोकारों ने वाजपेयी सरकार के
दौरान मिले अनुभवों का इस्तेमाल करते हुए अपने एजेंडे पर अमल की शुरुआत में देरी
नहीं की है जबकि सरकार वाजपेयी की गवर्नेंस के तजुर्बों से सबक नहीं ले पाई. इसलिए, मोदी सरकार अपनी
भोर में ही उस उलझन में फंसती दिख रही है, वाजपेयी सरकार अपनी प्रौढ़ावस्था में जिस असमंजस से दो चार
हुई थी.
मोदी अच्छी गवर्नेंस
दे सकते हैं, इस पर किसी को शक
नहीं है. लेकिन यह संदेह वाजिब है कि क्या मोदी, कट्टर हिंदुत्व के वेताल को संभाल सकते हैं जो
हमेशा से बीजेपी की पीठ पर सवार है और ग्रोथ का एजेंडा पटरी से उतारने की कुव्वत
रखता है? इस अक्तूबर में
विहिप की स्वर्ण जयंती तैयारियों को परखते हुए हमें यह
एहसास हुआ था कि भगवा समूह अपने लक्ष्यों और कार्यक्रमों को लेकर ज्यादा स्पष्ट है
जबकि गवर्नेंस को लेकर मोदी की मंजिलें धुंधली व खोखली हैं. वाजपेयी, अपनी सरकार के
शुरुआती दौर में इस उग्र परिवार से निबटने में ज्यादा चतुर नजर आए थे. गठजोड़ की
सरकार में सहयोगी दलों के दबाव ने भी उन्हें उग्र हिंदुत्व से बचने का मौका दिया
था लेकिन शायद ज्यादा मदद,
उन्हें उस
न्यूनतम साझा कार्यक्रम से मिली, जो चुनाव से पहले बन गया था. हिंदुत्व और स्वदेशी के जिद्दी
आग्रह घोषित तौर पर इस कार्यक्रम से बाहर थे और आर्थिक सुधारों व गवर्नेंस के
लक्ष्य निर्धारित थे. इसलिए सत्ता में बैठते ही सरकार ने रफ्तार पकड़ ली और उग्र
हिंदुत्व जब तक दस्तक देता,
तब तक सुधारों की
राह पर कई कदम उठ चुके थे.
आदर्श रूप से
मोदी को सत्ता में आते ही सुधार और गवर्नेंस के ठोस लक्ष्य तय कर देने चाहिए थे.
संसद का शीतकालीन सत्र शुरू होने से पहले सुशासन का रोड मैप चर्चा में आ जाना
चाहिए था ताकि भगवा विमर्श की आवाज दबी रहती. लेकिन बयानों, फैसलों व कदमों
में असंगति ने सरकार की वरीयताएं बुरी तरह गड्डमड्ड कर दी हैं. संस्कृत को तीसरी
भाषा बनाने का लक्ष्य पहले जरूरी था या शिक्षा में ठोस बदलावों का? बैंकों की हालत
सुधारना जरूरी था या जन धन?
बंद पड़े बिजली
घरों को कोयला मिलना पहली जरूरत था या पचास स्कीमों से लदे-फदे गांवों पर एक और
स्कीम लादना? मोदी सरकार की
शुरुआती घोषणाएं हवा में लटकी हैं, संसाधनों की बुनियाद नदारद है. गवर्नेंस में उभरती थकान व
यथास्थिति उग्र हिंदुत्व की बहस शुरू करने के माफिक है. प्रधानमंत्री भी अब ऐक्शन
मैन की जगह उपदेशक व काउंसलर की भूमिका में आ गए हैं जो सुधारों का एजेंडा नहीं
बताता बल्कि नशीली दवाएं छोड़ने की सलाह देता है.
मोदी का चुनाव
अभियान अच्छी गवर्नेंस की उम्मीद और उग्र हिंदुत्व के एजेंडे का चतुर सामंजस्य था, जिसके हस्ताक्षर
प्रत्याशियों के चयन से लेकर प्रचार अभियान और नतीजों तक, हर जगह मौजूद थे.
सरकार में आने के बाद मोदी कुछ निश्चिंत से हो गए जबकि उग्र हिंदुत्व के पैरोकारों
ने अपने लक्ष्यों को साधना शुरू कर दिया. यही वजह है कि सरकार के पहले छह माह में
ही लव जेहाद, धर्मांतरण व
मंदिर जैसे मुद्दे बीजेपी के मंच व नेताओं के बयानों में नजर आने लगे. इससे न केवल
विकास की बहस भटक रही है बल्कि बेतरह कमजोर विपक्ष को संसद रोकने की ताकत भी मिल
गई. अगर 300 अरब डॉलर के
विदेशी मुद्रा भंडार के बावजूद रुपया कमजोर है, कंपनियां ‘मेक इन इंडिया’ पर भरोसा नहीं कर पा रही हैं, महंगाई घटने के बाद भी उपभोक्ता खर्च नहीं बढ़
रहा है तो उसकी वजहें केवल ग्लोबल नहीं हैं. दरअसल, नई सरकार कुछ बड़ा किए बगैर ही ठिठक गई है और
उग्र हिंदुत्व का वेताल बड़ा होने लगा है.
भगवा सेना के
सामने मोदी का ताजा असमंजस 2001 के वाजपेयी जैसा है, जब अयोध्या में मंदिर निर्माण को लेकर सरकार व विहिप के बीच
मोर्चा खुला था. 2002 की शुरुआत होने
तक, शिला पूजन को
लेकर टकराव बढ़ गया, तनाव का पारा चढ़ा, गोधरा में ट्रेन
जली, गुजरात के दंगे
हुए और पूरा माहौल विषाक्त हो गया. वाजपेयी ने 2002 और ’03 में आर्थिक सुधारों की भरसक कोशिश की. 2003 के अंत में तीन
विधानसभाएं भी जीतीं लेकिन देश को सबसे अच्छी गवर्नेंस व सबसे तेज ग्रोथ देने वाली
सरकार 2004 में वापस नहीं
लौट सकी. शायद 2002 के तनाव व दंगों
से उभरी असुरक्षा, वाजपेयी सरकार की
बेजोड़ परफॉर्मेंस पर भारी पड़ी थी. भगवा ब्रिगेड की धमक, ग्रोथ, रोजगार और गवर्नेंस
की उम्मीदों के लिए जोखिम भरी है. अगर मोदी ने उग्र हिंदुत्व को खारिज कर गवर्नेंस
के ठोस एजेंडे पर तत्काल अमल शुरू नहीं किया तो उनके परिवार के योगी, साक्षी और साध्वी
उन्हें अगले कुछ महीनों में ही 2002 का वाजपेयी बना देंगे.
सरकार की मूल समस्या सुडो कैपिटेलिज्म है। मैं जहां तक समझ पा रहा हूं, उग्र हिंदुत्व की प्रवृत्ति इसे ढांपने का असफल प्रयास। अंतर्विरोध की इस अवस्था में सरकार मनोविज्ञान का सहारा ले रही है। जैसा कि चुनाव प्रचार के दौरान लिया। सरकार यह जताना चाहती है, भाजपा के आने के बाद दूसरे देशों में भारत की स्थिति सुदृढ़ हुई है। चीन और अमरीका में भारत की पैठ बढ़ी है। विश्व व्यापार संगठन, जी-20 आदि अंतरराष्ट्रीय संगठनों में भारत अब खुद को एसर्ट कर रहा है। पिछले दस साल से हम अंधकार युग में थे अब स्थिति बदल रही है। परंपरा और संस्कृति के ध्वजवाहक हमारे प्रधानमंत्री सम्राट आशोक की तरह नैतिक शिक्षा का भी पाठ पढ़ा रहे हैं। वे इस सबके लिए फावड़े का इस्तेमाल भी बखूबी करते हैं। मनोविज्ञान की इस विधा ने उन्हें लोकप्रियता के शिखर पर पहुंचा दिया है। अधिकांश भारतीय जिन्होंने प्रारब्ध को ही आखिरी सच मान लिया है, उनके लिए यह छलावा भी किसी खुशफहमी से कम नहीं है। ऊपर से हिंदुत्व की विराट अवधारण, जिसमें समूचा विश्व ही अब समा चुका है। ऐसे में हमें नहीं लगता कि सरकार आर्थिक माेर्चे पर कोई कड़ा फैसला अभी लेना चाहेगी। फिर, अभी पिछली सरकार की खामियां हैं, अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा के कारण तेल से भी राहत है।
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