सरकारों को हमेशा
उलटी तरफ से देखना बेहतर होता है. सरकार के छह माह नहीं बीते हैं बल्कि
प्रधानमंत्री के पास केवल साढ़े चार साल बचे हैं
मोदी सरकार के
पहले मंत्रिमंडल विस्तार,
अडानी की विवादित
ऑस्ट्रेलियाई परियोजना को स्टेट बैंक से कर्ज की मंजूरी और ‘‘प्रागैतिहासिक’’ किसान विकास
पत्र की वापसी के बीच क्या रिश्ता है? यह तीनों ही नई सरकार और उसके प्रभाव क्षेत्र के सबसे बड़े
फैसलों में एक हैं, अलबत्ता इन्हें
आपस में जोडऩे वाला तथ्य कुछ दूसरा ही है. इनके जरिए सरकार चलाने का वही दकियानूसी
मॉडल वापस लौटता दिख रहा है, जिसे बदलने की उम्मीद और संकल्पों के साथ नई सरकार सत्ता
में आई थी और उपरोक्त तीनों फैसले अपने अपने क्षेत्रों में नई बयार का प्रतीक बन
सकते थे.
बड़े बदलावों की
साख तभी बनती है जब बदलाव करने वाले उस परिवर्तन का हिस्सा बन जाते हैं. मोदी
सरकार के पहले मंत्रिमंडल विस्तार ने नई गवर्नेंस में बड़े बदलाव की उम्मीद को छोटा
कर दिया. बड़े मंत्रिमंडलों का आविष्कार गठबंधन की राजनीति के लिए हुआ था. महाकाय
मंत्रिमंडल न तो सक्षम होते हैं और न ही सुविधाजनक. बस, इनके जरिए सहयोगी
दलों के बीच सत्ता को बांटकर सरकार के ढुलकने का खतरा घटाया जाता था. नरेंद्र मोदी
गठबंधनों की राजनीति की विदाई के साथ सत्ता में आए थे. उनके सामने न तो, कई दलों को खपाने
की अटल बिहारी वाजपेयी जैसी मजबूरियां थीं न ही मनमोहन सिंह जैसी राजनैतिक
बाध्यताएं, जब राजनैतिक
शक्ति 10 जनपथ में बसती
थी. सरकार और पार्टी पर जबरदस्त नियंत्रण से लैस मोदी के पास एक चुस्त और चपल टीम
बनाने का पूरा मौका था.
मनमोहन सिंह कई
विभाग और बड़ी नौकरशाही छोड़कर गए थे, मोदी सरकार में भी नए विभागों के जन्म की बधाई बजी है. कुछ
विभागों में तो एक मंत्री के लायक भी काम नहीं है जबकि कुछ विभाग चुनिंदा स्कीमें
चलाने वाली एजेंसी बन गए हैं. कांग्रेस राज ने मनरेगा, सर्वशिक्षा जैसी
स्कीमों से एक नई समानांतर नौकरशाही गढ़ी थी, वह भी जस-की-तस है. दरअसल, स्वच्छता मिशन, आदर्श ग्राम, जनधन जैसी कुछ बड़ी स्कीमें ही सरकार का झंडा
लेकर चल रही हैं, ठीक इसी तरह
चुनिंदा स्कीमों का राज यूपीए की पहचान था. अब वित्त मंत्री, विभागों के खर्चे
काट रहे हैं जबकि प्रधानमंत्री ने सरकार का आकार बढ़ा दिया है. लोग कांग्रेस की ‘‘मैक्सिमम’’ गवर्नेंस को ‘‘मिनिमम’’ होते देखना
चाहते थे, एक नई ‘‘मेगा’’ गवर्नेंस तो कतई
नहीं.
बीजेपी इतिहास का
पुनर्लेखन करना चाहती है,
लेकिन इसके लिए
हर जगह इतिहास से दुलार जरूरी तो नहीं है? किसान विकास पत्र 1 अप्रैल, 1988 को जन्मा था जब बहुत बड़ी आबादी के पास बैंक खाते नहीं थे
और निवेश के विकल्प केवल डाकघर तक सीमित थे. अगर बचतों पर राकेश मोहन समिति की
सिफारिशें लागू हो जातीं,
तो इसे 2004 में ही विश्राम
मिल गया होता. रिजर्व बैंक की डिप्टी गवर्नर श्यामला गोपीनाथ की जिन सिफारिशों पर 2011 में यह स्कीम
बंद हुई थी उनमें केवल किसान विकास पत्र के मनी लॉन्ड्रिंग में इस्तेमाल का ही
जिक्र नहीं था बल्कि समिति ने यह भी कहा था कि भारत की युवा आबादी को बचत के लिए
नए आधुनिक रास्ते चाहिए, प्रागैतिहासिक
तरीके नहीं.
किसान विकास पत्र
से काले धन की जमाखोरी बढ़ेगी या नहीं, यह बात फिर कभी, फिलहाल तो इस 26 साल पुराने प्रयोग की वापसी सरकार में नई सूझ की जबरदस्त
कमी का प्रतीक बनकर उभरी है. नए नए वित्तीय उपकरणों के इस दौर में वित्त मंत्रालय, रिजर्व बैंक और
तमाम विशेषज्ञ मिलकर एक आधुनिक बचत स्कीम का आविष्कार तक नहीं कर सके. बचत को
बढ़ावा देने के लिए उन्हें उस उपकरण को वापस अमल में लाना पड़ा जिसे हर तरह से
इतिहास का हिस्सा होना चाहिए था क्योंकि यह उन लोगों के लिए बना था जिनके पास बैंक
खाते नहीं थे. अब तो लोगों के पास जन धन के खाते हैं न?
‘‘भारत का सिस्टम बड़ी
कंपनियों के हक में है. मंदी के दौरान किस बड़े कॉर्पोरेट को अपना घर बेचना पड़ा?’’ वर्गीज कुरियन
लेक्चर (रूरल डेवलपमेंट इंस्टीट्यूट, आणंद-25 नवंबर) में रिजर्व बैंक गवर्नर रघुराम राजन की बेबाकी उस
पुरानी बैंकिंग की तरफ संकेत था, जहां से अडानी की ऑस्ट्रेलियाई कोयला खदान परियोजना को कर्ज
की मंजूरी निकली थी. इस परियोजना को कर्ज देने के लिए स्टेट बैंक का अपना आकलन हो
सकता है तो दूसरी तरफ उन छह ग्लोबल बैंकों के भी आकलन हैं जो इसे कर्ज देने को
जोखिम भरा मानते हैं.
वित्तीय बहस से
परे, सवाल बैंकिंग में
कामकाज के उन अपारदर्शी तौर तरीकों का है जिसके कारण रिजर्व बैंक को यह कहना पड़ा
कि बैंक फंसे हुए कर्जे छिपाते हैं, बड़े कर्जदारों पर कोई कार्रवाई नहीं होती जबकि छोटा कर्जदार
पिस जाता है. भारत की बैंकिंग गंभीर संकट में है, इसे अपारदर्शिता और कॉर्पोरेट बैंकर गठजोड़ ने
पैदा किया है, जो बैंकों को
डुबाने की कगार पर ले आया है. ग्रोथ के लिए सस्ता कर्ज चाहिए, जिसके लिए
पारदर्शी और सेहतमंद बैंक अनिवार्य हैं. मोदी सरकार ने पहले छह माह में भारतीय बैंकिंग
में परिवर्तन का कौल नहीं दिखाया, अलबत्ता देश के सबसे बड़े बैंक ने विवादित बैंकिंग को जारी
रखने का संकल्प जरूर जाहिर कर दिया.
मोदी पिछले तीन
दशक में भारत के पहले ऐसे प्रधानमंत्री हैं जिनके पास किसी भी परिवर्तन को साकार
करने का समर्थन उपलब्ध है लेकिन बदलाव के बड़े मौकों पर परंपरा और यथास्थितिवाद का
लौट आना निराशाजनक है. मोदी प्रतीकों के महारथी हैं. उनके पहले छह माह प्रभावी
प्रतीक गढऩे में ही बीते हैं लेकिन नई गवर्नेंस, फैसलों की सूझ और पारदर्शिता का भरोसा जगाने
वाले ठोस प्रतीकों का इंतजार अभी तक बना हुआ है. सरकारों को हमेशा उलटी तरफ से
देखना बेहतर होता है. सरकार के छह माह नहीं बीते हैं बल्कि प्रधानमंत्री के पास
केवल साढ़े चार साल बचे हैं और वक्त की रफ्तार उम्मीदों का ईंधन तेजी से खत्म कर
रही है.
http://aajtak.intoday.in/story/six-months-and-three-symbols-1-789686.html
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