राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने सूझ-बूझ और आधुनिक तरीकों का इस्तेमाल नहीं किया तो राज्यों में भ्रष्टाचार और सरकारी संसाधनों की लूट की विराट कथाएं बनते देर नहीं लगेगी।
बीते सप्ताह जब उद्योग और सियासत
मोदी सरकार के पहले पूर्ण
बजट के
इंतजार में नाखून चबा रहे थे, तब देश में कई और बजट भी पेश हो रहे थे. भारत एक
बजट का नहीं बल्कि 29
बजटों का देश है और राज्यों के इन 29 बजटों को बेहद गंभीरता से लेने का वक्त आ गया
है. अगले एक साल में भारत के राज्य उस वित्तीय ताकत से लैस हो चुके होंगे, जो देश
में आर्थिक नीतियों का ही नहीं बल्कि राजनीति का चेहरा भी बदल देगी. फ्रांसीसी
लेखक विक्टर ह्यूगो कहते थे, उस विचार को कोई नहीं रोक सकता जिसका समय आ गया हो.
राज्यों को आर्थिक फैसलों की आजादी और संसाधन देने का समय आ गया था इसलिए इसे रोका
नहीं जा सका. इसे आप भारत का सबसे दूरगामी आर्थिक सुधार कह सकते हैं जो पिछले एक
दशक की सियासी चिल्लपों के बीच चुपचाप आ जमा है. नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने से
पहले वित्त आयोग ने राज्यों के वित्तीय अधिकार बढ़ाने का सफर शुरू कर दिया था, मोदी ने
योजना आयोग को खत्म करते हुए इसे मंजिल तक पहुंचा दिया. मोदी सरकार के पहले पूर्ण
बजट के साथ भारत में संघवाद का एक नया खाका उभर रहा है, जिसमें
शक्ति संपन्न केंद्र अब कमजोर होगा जबकि राज्य वित्तीय मामलों में नई ताकत बनेंगे
और विकास का तकाजा अब केवल दिल्ली से नहीं बल्कि जयपुर, भोपाल, लखनऊ, चेन्नै, बेंगलुरू, कोलकाता
से भी होगा, जिन्हें
इस नई वित्तीय ताकत व आजादी को संभालने की क्षमताएं विकसित करनी हैं.
योजना आयोग को खत्म करते हुए
नरेंद्र मोदी विकेंद्रीकृत आर्थिक नीति नियोजन का नया खाका भले ही स्पष्ट न कर पाए
हों लेकिन उन्होंने आर्थिक संसाधनों के बंटवारे में केंद्र के दबदबे को जरूर खत्म
कर दिया. बचा हुआ काम चौदहवें वित्त आयोग ने कर दिया है. बजट से पहले इसकी जो
रिपोर्ट सरकार ने स्वीकार की है वह केंद्र व राज्यों के वित्तीय रिश्तों का नक्शा
बदलने जा रही है. राज्यों को केंद्रीय करों में अब 42 फीसदी हिस्सा मिलेगा यानी पिछले
फॉर्मूले से 10
फीसदी ज्यादा. केंद्र सरकार उन्हें शर्तों में लपेटे बिना फंड देगी और यही नहीं, केंद्र
राज्य के संसाधनों के हिस्से बांटने का नया फॉर्मूला भी लागू होगा जो आधुनिक
जरूरतों को देखकर बना है. केंद्रीय करों में मिलने वाला हिस्सा 2016 के बाद
करीब 1.76
खरब रु. बढ़ जाएगा. कोयला खदानों के आवंटन से राज्यों को एक लाख करोड़
रु. मिल रहे हैं. योजना आयोग से मिलने वाले अनुदान व फंड भी बढ़ेंगे और जीएसटी भी
राज्यों की कमाई में इजाफा करेगा.
बात सिर्फ वित्तीय संसाधनों की
सप्लाई की नहीं है. योजना आयोग की विदाई और वित्त आयोग की सिफारिशों की रोशनी में
राज्यों को इन संसाधनों को खर्च करने की पर्याप्त आजादी भी मिल रही है, जो एक
बड़ी चुनौती भी है. अधिकांश राज्यों का वित्तीय प्रबंधन बदहाल और प्रागैतिहासिक है.
बजटों की प्रक्रिया कामचलाऊ है. कर्ज, नकदी और वित्तीय लेन-देन प्रबंधन की आधुनिक
क्षमताएं नहीं हैं. टैक्स मशीनरी जंग खा रही है. राज्यों को योजना, नीति
निर्माण और मॉनिटरिंग के उन सभी तरीकों की शायद ज्यादा जरूरत है जो उदार बाजार के
बाद केंद्र सरकार के लिए बेमानी हो गए थे. राज्यों को अब पारदर्शी व आधुनिक
वित्तीय ढांचा बनाना होगा,
जो
संसाधनों की इस आपूर्ति को संभाल सके. वित्त आयोग की सिफारिश, मोदी
सरकार के पहले पूर्ण बजट और निवेश के माहौल को देखते हुए जो तस्वीर बन रही है, उसमें
विकास का बड़ा खर्च राज्यों के माध्यम से होगा अर्थात् बड़े आर्थिक निर्माणों से
लेकर सामाजिक ढांचा बनाने तक केंद्र की भूमिका सीमित हो जाएगी. राज्यों का
प्रशासानिक ढांचा अक्षमताओं का पुराना रोगी है. निर्माण गतिविधियां कॉन्ट्रेक्टर
राज के हवाले हैं. यदि राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने सूझ-बूझ और आधुनिक तरीकों का
इस्तेमाल नहीं किया तो राज्यों में भ्रष्टाचार और सरकारी संसाधनों की लूट की विराट
कथाएं बनते देर नहीं लगेगी,
क्योंकि
राज्यों को वित्तीय ही नहीं बल्कि जमीन अधिग्रहण से लेकर रिटेल में विदेशी निवेश
तक कई महत्वपूर्ण पहलुओं पर कानूनी ताकत भी मिल रही है.
राजनैतिक उठा-पटक के बावजूद भारत
में गवर्नेंस का एक नया ढांचा उभरने लगा है. इसमें एक तरफ राज्य सरकारें होंगी जो
विकास की राजनीति में केंद्र की भूमिका सीमित करेंगी तो दूसरी तरफ होंगे स्वतंत्र
नियामक यानी रेगुलेटर, जो
दूरसंचार, बिजली, बीमा, पेंशन, पेट्रोलियम, बंदरगाह, एयरपोर्ट, कमॉडिटी, फार्मास्यूटिकल
व पर्यावरण क्षेत्रों में केंद्रीय मंत्रालयों के अधिकार ले चुके हैं. रेलवे व सड़क
नियामक कतार में हैं. सेबी,
प्रतिस्पर्धा
आयोग, राज्य
बिजली नियामक आयोगों को शामिल करने के बाद यह नया शासक वर्ग राजनैतिक प्रभुओं से
ज्यादा ताकतवर दिखता है. अगर राज्यों में पानी और सड़क परिवहन के लिए नियामक बनाने
की सिफारिशें भी अमल में आर्इं तो अगले कुछ वर्षों में देश की आर्थिक किस्मत
नेताओं से लैस मंत्रिमंडल नहीं बल्कि विशेषज्ञ नियामक लिखेंगे.
इतिहास हर व्यक्ति के लिए अपनी
तरह से जगह निर्धारित करता है. इतिहास नरेंद्र मोदी का मूल्याकंन कैसे करेगा अभी
यह तय करना जल्दी है लेकिन उन्होंने जान-बूझकर या अनजाने ही इतिहास की एक बड़ी
इबारत अपने नाम जरूर कर ली है. उनकी अगुआई में केंद्र और राज्य के रिश्तों का
ढांचा बदल गया है. नरेंद्र मोदी भारत में ताकतवर केंद्र सरकार का नेतृत्व करने
वाले शायद आखिरी प्रधानमंत्री होंगे. उनके रहते ही सत्ता की ताकत नए सुल्तानों यानी
स्वतंत्र नियामकों के पास पहुंच जाएगी और विकास के खर्च की ताकत राज्यों के हाथ
में सिमट जाएगी. यह किसी भी तरह से ’91 या ’95 के
सुधारों से कम नहीं है. इस बदलाव के बाद भारत की राजनीति का रासायनिक संतुलन भी
सिरे से तब्दील हो सकता है.
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