नरेंद्र
मोदी से ताबड़तोड़ मिशन और स्कीमों के ऐलान की उम्मीद किसी ने नहीं की थी. लोग
तो यह समझ रहे थे कि मोदी गवर्नेंस के पुनर्गठन की नई सूझ लेकर आए हैं
जिसमें पहले वे इस डायनासोरी सरकारी तंत्र को ठीक करेंगे
राष्ट्रीय स्वच्छता मिशन, सड़कें
बुहारती वीआईपी छवियों के पाखंड से आगे नहीं बढ़ सका. सौ से अधिक
सांसद तो आदर्श ग्राम योजना में गांव तक नहीं चुन सके और चुने हुए गांवों
में कुछ बदला भी नहीं. जन धन में 15.59 करोड़ खाते
खुले, लोगों ने 16,918 करोड़ रु.
जमा भी किए लेकिन केवल 160 लोगों को
बीमा और 8,000 लोगों को ओवरड्राफ्ट (महज 2,500 रु.) मिला.
वित्त मंत्री अरुण जेटली को कहना पड़ा कि औद्योगिक निवेश नहीं बढ़ रहा है जो
मेक इन इंडिया पर परोक्ष टिप्पणी थी. यह फेहरिस्त सरकार की असफलताओं की
नहीं बल्कि बड़े इरादों के शुरुआत में ही ठिठक जाने की है. मोदी सरकार के एक
साल की अनेक शुरुआतें उसी दलदल में धंस गई हैं जिसमें फंसकर पिछले कई
प्रयोग बरबाद हुए हैं. स्कीमों के डिजाइन में खामी, क्रियान्वयन तंत्र की
कमजोरी, दूरगामी सोच की कमी और स्पष्ट लक्ष्यों का अभाव
भारतीय गवर्नेंस की बुनियादी चुनौती है. मोदी को इसी
गवर्नेंस में सुधार का जनादेश मिला था.
उन्होंने इसमें सुधार का साहस दिखाए बगैर पुराने सिस्टम पर नए मिशन और
स्कीमें थोप दीं. यही वजह है कि पहले ही साल में नतीजों की शून्यता, नीयत की
भव्यता पर भारी पड़ गई है.
सरकार के एक साल के कामकाज का ब्योरा बनाते हुए केंद्र सरकार के मंत्रालय खासी मुश्किल से दो-चार थे. सरकारी मंत्रालयों को ऐसी उपलब्धियां मुश्किल से मिल पा रही थीं जिन्हें आंकड़ों के साथ स्थापित किया जा सके. कोयला खदानों और स्पेक्ट्रम आवंटन (जो सरकार के सामान्य कामकाज का हिस्सा है) को छोड़कर मंत्रालयों के पास बताने के लिए कुछ ठोस इसलिए नहीं था, क्योंकि तमाम इरादों और घोषणाओं के बावजूद सरकार एक ऐसी स्कीम या सुधार को तरस गई जिसकी उपलब्धि सहज ही महसूस कराई जा सके. मोदी सरकार के सभी अभियानों और स्कीमों की एक सरसरी पड़ताल किसी को भी यह एहसास करा देगी कि स्कीमें न केवल कामचलाऊ ढंग से गढ़ी गईं बल्कि बनाते समय यह भी नहीं देखा गया कि इस तरह के पिछले प्रयोग क्यों और कैसे विफल हुए हैं. सबसे बड़ा अचरज इस बात का है कि एक से अधिक कार्यक्रम ऐसे हैं जिनके साथ न तो क्रियान्यवन योजना है और न लक्ष्य. इसलिए प्रचार का पानी उतरते ही स्कीमें चर्चा से भी बाहर हो गईं. स्वच्छता मिशन का हाल देखने लायक है, जो सड़कों की तो छोड़िए, प्रचार से भी बाहर है. जन उत्साह से जुड़े एक कीमती अभियान को सरकार का तदर्थवाद और अदूरदर्शिता ले डूबी. एक साल में इस मिशन के लिए संसाधन जुटना तो दूर, रणनीति व लक्ष्य भी तय नहीं हो सके. पूरा साल बीत गया है और सरकार विभिन्न एजेंसियों खास तौर पर स्थानीय निकायों को भी मिशन से नहीं जोड़ सकी. नगर निगमों के राजस्व को चुस्त करने की रणनीति के अभाव में गंदगी अपनी जगह वापस मुस्तैद हो गई है जबकि झाड़ू लगाती हुई छवियां नेताओं के घरों में सजी हैं. अब सरकार में कई लोग यह मानने लगे हैं कि इस मिशन से बहुत उम्मीद करना बेकार है. सरकार की सर्वाधिक प्रचारित स्कीम जन धन दूरदर्शिता और सूझबूझ की कमी का शिकार हुई है. यह स्कीम उन लोगों के वित्तीय व्यवहार से तालमेल नहीं बिठा पाई जिनके लिए यह बनी है. 50 फीसदी खाते तो निष्क्रिय हैं, दुर्घटना बीमा और ओवरड्राफ्ट ने कोई उत्साह नहीं जगाया. जब खातों में पैसा नहीं है तो रुपे कार्ड का कोई काम भी नहीं है. स्कीम के नियमों के मुताबिक, पूरा मध्यवर्ग जन धन से बाहर है. दूसरी तरफ, नई बीमा स्कीमें बताती हैं कि पिछले प्रयोगों की असफलता से कुछ नहीं सीखा गया. इन स्कीमों को लागू करने वाला प्रशासनिक तंत्र, बजटीय सहायता और लक्ष्य तो नदारद हैं ही, स्कीमों के प्रावधानों में गहरी विसंगतियां हैं. इनसे मिलने वाले लाभ इतने सीमित हैं (मसलन बीस साल तक योगदान के बाद 60 साल की उम्र पर 1,000 से 5,000 रु. प्रति माह की पेंशन) कि लोगों में उत्साह जगना मुश्किल है. इनके डिजाइन इन्हें लोकप्रिय होने से रोकते हैं जबकि इनकी असंगतियां इन्हें बीमा कंपनियों के लिए बेहतर कारोबारी विकल्प नहीं बनातीं. अपने मौजूदा ढांचे में प्रधानमंत्री का जनसुरक्षा पैकेज लगभग उन्हीं विसंगतियों से लैस है, आम आदमी बीमा, जन श्री, वरिष्ठ पेंशन और स्वावलंबन जैसी करीब आधा दर्जन स्कीमें जिनका शिकार हुई हैं.
मेक इन इंडिया, आदर्श ग्राम, डिजिटल इंडिया जैसे बड़े अभियान भी साल भर के भीतर घिसटने लगे हैं तो इसकी वजह कमजोर मंशा नहीं बल्कि तदर्थ तैयारियां हैं. स्कीमें, मिशन और अभियान न केवल तैयारियों और गठन में कमजोर थे बल्कि इन्हें उसी प्रणाली से लागू कराया गया जिसकी असफलता असंदिग्ध है. अब बारह माह बीतने के बाद सरकार में यह एहसास घर करने लगा है कि न केवल पिछली सरकार की स्कीमों को अपनाया गया है बल्कि गवर्नेंस की खामियों को कॉपी-पेस्ट कर लिया गया है इसलिए सरकार के महत्वाकांक्षी अभियान असहज करने वाले नतीजों की तरफ बढ़ रहे हैं.
नरेंद्र मोदी से ताबड़तोड़ मिशन और स्कीमों के ऐलान की उम्मीद किसी ने नहीं की थी. लोग तो यह समझ रहे थे कि मोदी गवर्नेंस के पुनर्गठन की नई सूझ लेकर आए हैं जिसमें पहले वे इस डायनासोरी सरकारी तंत्र को ठीक करेंगे जिसमें अव्वल तो अच्छी पहल ही मुश्किल है और अगर हो भी जाए तो यह तंत्र उसे निगल जाता है. लेकिन मोदी सरकार ने तो हर महीने एक नई स्कीम और मिशन उछाल दिया जिसे संभालने और चलाने का ढांचा भी तैयार नहीं था. 'मिनिमम गवर्नमेंट, मैक्सिमम गवर्नेंस' से लोगों ने यही समझा था कि मोदी चुस्त और नतीजे देने वाली सरकार की बात कर रहे हैं, लेकिन एक साल में उनकी ज्यादातर स्कीमों और मिशनों ने मैक्सिमम गवर्नमेंट यानी नई नौकरशाही खड़ी कर दी है और नतीजे उतने ही कमजोर हैं, जितने कांग्रेस के दौर में होते थे. स्कीमों या मिशनों की विफलता नई नहीं है. मुश्किल यह है कि मोदी सरकार के इरादे जिस भव्यता के साथ पेश हुए हैं, उनकी विफलताएं भी उतनी ही भव्य हो सकती हैं. नरेंद्र मोदी को अब किस्म-किस्म की स्कीम व मिशन की दीवानगी छोड़कर गवर्नेंस सुधारने और नतीजे दिखाने का मिशन शुरू करना होगा नहीं तो मोहभंग की भव्यता को संभालना, उनके लिए मुश्किल हो जाएगा.
सरकार के एक साल के कामकाज का ब्योरा बनाते हुए केंद्र सरकार के मंत्रालय खासी मुश्किल से दो-चार थे. सरकारी मंत्रालयों को ऐसी उपलब्धियां मुश्किल से मिल पा रही थीं जिन्हें आंकड़ों के साथ स्थापित किया जा सके. कोयला खदानों और स्पेक्ट्रम आवंटन (जो सरकार के सामान्य कामकाज का हिस्सा है) को छोड़कर मंत्रालयों के पास बताने के लिए कुछ ठोस इसलिए नहीं था, क्योंकि तमाम इरादों और घोषणाओं के बावजूद सरकार एक ऐसी स्कीम या सुधार को तरस गई जिसकी उपलब्धि सहज ही महसूस कराई जा सके. मोदी सरकार के सभी अभियानों और स्कीमों की एक सरसरी पड़ताल किसी को भी यह एहसास करा देगी कि स्कीमें न केवल कामचलाऊ ढंग से गढ़ी गईं बल्कि बनाते समय यह भी नहीं देखा गया कि इस तरह के पिछले प्रयोग क्यों और कैसे विफल हुए हैं. सबसे बड़ा अचरज इस बात का है कि एक से अधिक कार्यक्रम ऐसे हैं जिनके साथ न तो क्रियान्यवन योजना है और न लक्ष्य. इसलिए प्रचार का पानी उतरते ही स्कीमें चर्चा से भी बाहर हो गईं. स्वच्छता मिशन का हाल देखने लायक है, जो सड़कों की तो छोड़िए, प्रचार से भी बाहर है. जन उत्साह से जुड़े एक कीमती अभियान को सरकार का तदर्थवाद और अदूरदर्शिता ले डूबी. एक साल में इस मिशन के लिए संसाधन जुटना तो दूर, रणनीति व लक्ष्य भी तय नहीं हो सके. पूरा साल बीत गया है और सरकार विभिन्न एजेंसियों खास तौर पर स्थानीय निकायों को भी मिशन से नहीं जोड़ सकी. नगर निगमों के राजस्व को चुस्त करने की रणनीति के अभाव में गंदगी अपनी जगह वापस मुस्तैद हो गई है जबकि झाड़ू लगाती हुई छवियां नेताओं के घरों में सजी हैं. अब सरकार में कई लोग यह मानने लगे हैं कि इस मिशन से बहुत उम्मीद करना बेकार है. सरकार की सर्वाधिक प्रचारित स्कीम जन धन दूरदर्शिता और सूझबूझ की कमी का शिकार हुई है. यह स्कीम उन लोगों के वित्तीय व्यवहार से तालमेल नहीं बिठा पाई जिनके लिए यह बनी है. 50 फीसदी खाते तो निष्क्रिय हैं, दुर्घटना बीमा और ओवरड्राफ्ट ने कोई उत्साह नहीं जगाया. जब खातों में पैसा नहीं है तो रुपे कार्ड का कोई काम भी नहीं है. स्कीम के नियमों के मुताबिक, पूरा मध्यवर्ग जन धन से बाहर है. दूसरी तरफ, नई बीमा स्कीमें बताती हैं कि पिछले प्रयोगों की असफलता से कुछ नहीं सीखा गया. इन स्कीमों को लागू करने वाला प्रशासनिक तंत्र, बजटीय सहायता और लक्ष्य तो नदारद हैं ही, स्कीमों के प्रावधानों में गहरी विसंगतियां हैं. इनसे मिलने वाले लाभ इतने सीमित हैं (मसलन बीस साल तक योगदान के बाद 60 साल की उम्र पर 1,000 से 5,000 रु. प्रति माह की पेंशन) कि लोगों में उत्साह जगना मुश्किल है. इनके डिजाइन इन्हें लोकप्रिय होने से रोकते हैं जबकि इनकी असंगतियां इन्हें बीमा कंपनियों के लिए बेहतर कारोबारी विकल्प नहीं बनातीं. अपने मौजूदा ढांचे में प्रधानमंत्री का जनसुरक्षा पैकेज लगभग उन्हीं विसंगतियों से लैस है, आम आदमी बीमा, जन श्री, वरिष्ठ पेंशन और स्वावलंबन जैसी करीब आधा दर्जन स्कीमें जिनका शिकार हुई हैं.
मेक इन इंडिया, आदर्श ग्राम, डिजिटल इंडिया जैसे बड़े अभियान भी साल भर के भीतर घिसटने लगे हैं तो इसकी वजह कमजोर मंशा नहीं बल्कि तदर्थ तैयारियां हैं. स्कीमें, मिशन और अभियान न केवल तैयारियों और गठन में कमजोर थे बल्कि इन्हें उसी प्रणाली से लागू कराया गया जिसकी असफलता असंदिग्ध है. अब बारह माह बीतने के बाद सरकार में यह एहसास घर करने लगा है कि न केवल पिछली सरकार की स्कीमों को अपनाया गया है बल्कि गवर्नेंस की खामियों को कॉपी-पेस्ट कर लिया गया है इसलिए सरकार के महत्वाकांक्षी अभियान असहज करने वाले नतीजों की तरफ बढ़ रहे हैं.
नरेंद्र मोदी से ताबड़तोड़ मिशन और स्कीमों के ऐलान की उम्मीद किसी ने नहीं की थी. लोग तो यह समझ रहे थे कि मोदी गवर्नेंस के पुनर्गठन की नई सूझ लेकर आए हैं जिसमें पहले वे इस डायनासोरी सरकारी तंत्र को ठीक करेंगे जिसमें अव्वल तो अच्छी पहल ही मुश्किल है और अगर हो भी जाए तो यह तंत्र उसे निगल जाता है. लेकिन मोदी सरकार ने तो हर महीने एक नई स्कीम और मिशन उछाल दिया जिसे संभालने और चलाने का ढांचा भी तैयार नहीं था. 'मिनिमम गवर्नमेंट, मैक्सिमम गवर्नेंस' से लोगों ने यही समझा था कि मोदी चुस्त और नतीजे देने वाली सरकार की बात कर रहे हैं, लेकिन एक साल में उनकी ज्यादातर स्कीमों और मिशनों ने मैक्सिमम गवर्नमेंट यानी नई नौकरशाही खड़ी कर दी है और नतीजे उतने ही कमजोर हैं, जितने कांग्रेस के दौर में होते थे. स्कीमों या मिशनों की विफलता नई नहीं है. मुश्किल यह है कि मोदी सरकार के इरादे जिस भव्यता के साथ पेश हुए हैं, उनकी विफलताएं भी उतनी ही भव्य हो सकती हैं. नरेंद्र मोदी को अब किस्म-किस्म की स्कीम व मिशन की दीवानगी छोड़कर गवर्नेंस सुधारने और नतीजे दिखाने का मिशन शुरू करना होगा नहीं तो मोहभंग की भव्यता को संभालना, उनके लिए मुश्किल हो जाएगा.
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