पैकेज पॉलिटिक्स के नवीनीकरण के साथ मोदी ने केंद्र और राज्य के वित्तीय संबंधों को बदलने वाले अपने ही मॉडल को सर के बल खड़ा कर दिया है.
यह अप्रत्याशित ही था कि लाल किले की प्राचीर से
अपने 86 मिनट के मैराथन
भाषण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक बार भी उस सबसे बड़े सुधार का जिक्र नहीं
किया, जिसका ऐलान
उन्होंने पिछले साल यहीं से किया था. योजना आयोग की विदाई लाल किले से ही घोषित
हुई थी, जो मोदी सरकार का
इकलौता क्रांतिकारी सुधार ही नहीं था बल्कि एक साहसी प्रधानमंत्री की दूरदर्शिता
का प्रमाण भी था. अलबत्ता, लाल किले से संबोधन में योजना आयेाग और नीति आयोग का जिक्र
न होने का रहस्य चार दिन बाद आरा की चुनावी रैली में खुला जब प्रधानमंत्री ने
बिहार के लिए सवा लाख करोड़ रु. के पैकेज के साथ उस बेहद कीमती सुधार को रोक दिया, जो योजना आयोग की
समाप्ति के साथ खुद उन्होंने शुरू किया था.
बिहार पैकेज पर
असमंजस इसलिए नहीं है कि भारत के जीडीपी (2014-15) के एक फीसदी के
बराबर का यह पैकेज कहां से आएगा या इसे कैसे बांटा जाएगा, बल्कि इसलिए कि
पैकेज पॉलिटिक्स के नवीनीकरण ने केंद्र और राज्य के वित्तीय संबंधों को बदलने वाले
मोदी के मॉडल को सिर के बल खड़ा कर दिया है. राजनैतिक गणित के आधार पर राज्यों को
सौगात और खैरात बांटने का दंभ ही कांग्रेसी संघवाद की बुनियाद था. राज्यों को
केंद्र से हस्तांतरणों में सियासी फार्मूले के इस्तेमाल पर पर्याप्त शोध उपलब्ध है
जो बताता है कि 1972 से 1995 तक उन राज्यों को केंद्र से ज्यादा मदद मिली जो राजनैतिक
तौर पर केंद्र सरकार के करीब थे या चुनावी संभावनाओं से भरे थे. 1995 के बाद राज्यों
में गैर-कांग्रेसी सरकारों के अभ्युदय के साथ केंद्रीय संसाधनों के हस्तांतरण में
पारदिर्शता के आग्रह मुखर होने लगे.
यह गैर-कांग्रेसी
राज्यों के विरोध का नतीजा था कि वित्त आयोगों ने धीरे-धीरे केंद्र से राज्यों को
विवेकाधीन हस्तांतरणों के सभी रास्ते बंद कर दिए. 14वें वित्त आयोग
ने तो केंद्रीय करों में राज्यों की हिस्सेदारी बांटने के लिए सामान्य और विशेष
श्रेणी के राज्यों का दर्जा भी खत्म करते हुए, वित्तीय तौर पर
नुक्सान में रहने वाले राज्यों के लिए राजस्व अनुदान का फॉर्मूला सुझाया है. वित्त
आयोग ने केंद्र से राज्यों को हस्तांतरण बढ़ाने में शर्तों और सुविधाओं की भूमिका
को सीमित कर दिया है.
केंद्र और
राज्यों के वित्तीय रिश्तों में सियासी दखल को पूरी तरह खत्म करने के लिए योजना
आयोग का विदा होना जरूरी था, जो केंद्रीय स्कीमों के जरिए संसाधनों के राजनैतिक हस्तांतरण
को पोस रहा था. यही वजह थी कि पिछले साल लाल किले की प्राचीर से जब मोदी ने इस
संस्था को विदा किया तो इसे राज्यों के लिए आर्थिक आजादी की शुरुआत माना गया.
योजना आयोग के जाने और वित्त आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद राज्य सरकारें उस
कांग्रेसी संघवाद से मुक्त हो गई थीं, जिसके तहत उन्हें केंद्र के साथ सियासी रिश्तों
के तापमान या चुनावी सियासत के मुताबिक केंद्रीय मदद मिलती थी. लेकिन अफसोस! बिहार
पैकेज के साथ प्रधानमंत्री मोदी ने अपने सबसे बड़े वित्तीय सुधार की साख
खतरे में डाल दी है.
बिहार पैकेज का
ऐलान मोदी की टीम इंडिया यानी देश के राज्यों की उलझन बढ़ाने वाला है, जो योजना आयोग की
अनुपस्थिति से उपजे शून्य को लेकर पहले से ही ऊहापोह में हैं. योजना आयोग की विदाई
ने केंद्र व राज्य के बीच संसाधनों के बंटवारे और प्रशासनिक समन्वय को लेकर
व्यावहारिक चुनौतियां खड़ी कर दी हैं, जिसे भरने के लिए नीति आयोग के पास न तो
पर्याप्त अधिकार हैं और न ही क्षमताएं. योजना आयोग केवल केंद्र व राज्यों के बीच
संसाधन ही नहीं बांटता था बल्कि केंद्र के विभिन्न विभागों व राज्य सरकारों के बीच
समन्वय का आधार था. केंद्रीय मंत्रालय व राज्य सरकारें योजना आयोग को संसाधनों की
जरूरतों का ब्योरा भेजती थीं, जिसके आधार पर केंद्रीय योजना को बजट से मिली सहायता बांटी
जाती है. योजना आयोग बंद होने के साथ यह प्रक्रिया भी खत्म हो गई.
राज्य सरकारों को
विभिन्न स्कीमों व कार्यक्रमों के तहत केंद्रीय संसाधन मिलते हैं. योजना आयोग की
अनुपस्थिति के बाद अब 14वें वित्त आयोग की राय के मुताबिक इन केंद्रीय स्कीमों में
संसाधनों के बंटवारे का नया फॉर्मूला तय होना है, जिसके लिए मध्य
प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की अध्यक्षता में गठित समिति की
सिफारिशों का इंतजार हो रहा है. इस असमंजस के कारण आवंटनों की गति सुस्त है, जिससे राज्यों की
ही नहीं, बल्कि केंद्र की
योजनाओं के क्रियान्वयन पर भी असर पड़ रहा है. यही नहीं, योजना आयोग
केंद्रीय व राज्य की स्कीमों की मॉनिटरिंग भी करता था, जिसके आधार पर
आवंटनों को तर्कसंगत किया जाता था. व्यवस्था का विकल्प भी अब तक अधर में है.
योजना आयोग खत्म
होने के बाद अनौपचारिक चर्चाओं में मुख्यमंत्री यह बताते थे कि योजना आयोग की
नामौजूदगी से केंद्र व राज्यों के बीच समन्वय का शून्य बन गया है. अलबत्ता राज्यों
के मुखिया यह जिक्र करना नहीं भूलते थे कि मोदी सरकार के नेतृत्व में केंद्र व
राज्यों के बीच वित्तीय रिश्तों की नई इबारत बन रही है, जो राज्यों की
आर्थिक आजादी को सुनिश्चित करती है. इसलिए समन्वय की समस्याओं का समाधान निकल
आएगा. लेकिन बिहार पैकेज के बाद अब मोदी के संघवाद पर राज्यों का भरोसा डगमगाएगा.
यह देखना अचरज
भरा है कि राज्यों को आर्थिक आजादी की और केंद्रीय नियंत्रण से मुक्त करने की अलख
जगाते मोदी, इंदिरा-राजीव दौर
के पैकेजों की सियासत वापस ले आए हैं, जिसके तहत केंद्र सरकारें राजनैतिक गणित के
आधार पर राज्यों को संसाधन बांटती थीं. राजनैतिक कलाबाजियां और यू टर्न ठीक हैं
लेकिन कुछ सुधार ऐसे होते हैं जिन पर टिकना पड़ेगा. मोदी के अच्छे दिनों का बड़ा
दारोमदार टीम इंडिया यानी राज्यों पर है, जिन्हें मोदी के सहकारी संघवाद से बड़ी आशाएं
हैं. उम्मीद की जानी चाहिए कि बिहार पैकेज अपवाद होगा. मोदी पैकेज पॉलिटिक्स में
फंसकर अपने सबसे कीमती सुधार को बेकार नहीं होने देंगे.
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