Monday, January 25, 2016

मंदी की बैलेंस शीट


अगर मैन्युफैक्चरिंग सर्विसेज कंपनियों ने निवेश शुरू नहीं किए तो स्टार्ट-अप के पास न मांग होगी, न मुनाफा और तब इनके वैल्यूएशन बुलबुले बन जाएंगे.

स्टार्ट-अप इंडिया का मेक इन इंडिया से क्या रिश्ता है? वैसा ही जैसा कि मेक इन इंडिया का भारतीय खेती से है या फिर ग्रामीण अर्थव्यवस्था का शहरी और औद्योगिक अर्थव्यवस्था से है, क्योंकि ग्रामीण और कस्बाई मांग के बिना ऑटो, सीमेंट, खाद्य और उपभोक्ता उत्पादों का बाजार आज जैसी मंदी में डूब जाता है. भारत के सबसे ज्यादा वैल्यूएशन (शुद्ध कारोबार का औसतन सात गुना) वाले स्टार्ट-अप ई कॉमर्स से आते हैं. ई कॉमर्स भारत के विशाल उद्योग क्षेत्र के लिए छोटी-सी शॉपिंग मॉल जैसा है. दूसरी तरफ स्टार्ट-अप इंडिया के ग्राहक शहरी क्षेत्र से आते हैं जहां उद्योगों और इनसे जुड़ी सेवाएं ही रोजगार का सबसे बड़ा स्रोत हैं.
बीते रविवार को प्रधानमंत्री जब लघु उद्योगों की नई पीढ़ी यानी स्टार्ट-अप के लिए सहूलियतों का अभियान शुरू कर रहे थे तब स्टार्ट-अप उद्यमियों की सूझ व साहस पर व वित्तीय जरूरतों की आपूर्ति पर संदेह नहीं था. सरकारी स्टार्ट-अप फंड का विचार उपजने (फंड अभी दूर है) से पहले इस महीने तक पिछले दो साल में वेंचर कैपिटल आधारित कंपनियों की फंडिंग 12 अरब डॉलर यानी करीब 80,000 करोड़ रुपए पर पहुंच गई. स्टार्ट-अप एग्रीगेटर टैक्स्कैन के मुताबिक, करीब 7.3 अरब डॉलर की फंडिंग तो 2015 में हुई है. इसलिए स्टार्ट-अप को पैसा कैसे मिलेगा, यह सवाल नहीं है बल्कि चुनौती तो यह है कि इन्हें बाजार मिलेगा या नहीं. अगर मैन्युफैक्चरिंग सर्विसेज में कंपनियों ने निवेश शुरू नहीं किया तो स्टार्ट-अप के पास न मांग होगी, न मुनाफा और तब इनके वैल्यूएशन बुलबुले बन जाएंगे जिसका डर सॉफ्टबैंक के प्रेसिडेंट और सीओओ निकेश अरोड़ा ने स्टार्ट-अप इंडिया के भव्य मंच से जाहिर भी किया.
स्टार्ट-अप इंडिया की सफलता के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और वित्त मंत्री अरुण जेटली की जोड़ी को उस मंदी को तोडऩा है जो कंपनियों की बैलेंस शीट में बैठी है. पिछले दो साल में तमाम गंभीर कोशिशों और उससे गंभीर प्रचार के बावजूद अर्थव्यवस्था की चुनौती पिछले 18 माह में ज्यादा गहरा गई है. भारत में उद्योग, निर्माण और सेवाएं रोजगार के सबसे बड़े स्रोत हैं लेकिन यह मोर्चा तिल-तिल कर ढह रहा है. औद्योगिक ग्रोथ नवंबर में चार साल के सबसे निचले स्तर पर आ गई है. 2015-16 की पहली दो तिमाही में कंपनियों की कमाई 6 से 15 फीसद घटी. और यह गिरावट पिछले दो-तीन साल से जारी है. लगातार निर्यात मुश्किलें दोगुनी कर रहा है.
मेक इन इंडिया की कोशिशों और दो बजटों के बावजूद मोदी सरकार उद्योगों को नए निवेश के लिए क्यों राजी नहीं कर सकी? भारत का उद्योग जगत अब उस मंदी से घिर गया है जिसे तकनीकी जबान में बैलेंस शीट रिसेशन कहते हैं. यह पुरानी पारंपरिक मंदी से अलग और जटिल है. यह मंदी कंपनियों पर लदे कर्ज से उपजती है. नई अर्थव्यवस्था में अधिकांश निवेश निजी कंपनियां ही करती हैं. बैलेंस शीट रिसेशन के दौरान कंपनियां बुरी तरह कर्ज में दब जाती हैं इसलिए कंपनियां जो भी कमाई करती हैं, उसे कर्ज चुकाने में लगाती हैं, न कि नए निवेश में. ऐसी स्थिति में नया निवेश खत्म हो जाता है. ग्लोबल अर्थशास्त्री मानते हैं कि जापान की 1990 से 2005 तक की मंदी दरअसल कंपनियों की बैलेंस शीट को निचोड़ देने वाले उस कर्ज से उपजी थी जो उन्होंने बैंकों से ले रखा था. अमेरिका में 2007 से 2009 के बीच की मंदी भी बैलेंस शीट रिसेशन ही थी.
कर्ज ने भारत में कंपनियां की कमर तोड़ दी है. एक आर्थिक अखबार के अध्ययन के मुताबिक, 2014-15 के अंत में देश की 441 प्रमुख कंपनियां करीब 28.5 लाख करोड़ रुपए के कर्ज पर बैठी थीं जो देश की कुल 656 गैर वित्तीय कंपनियों के कर्ज का 98.1 फीसदी है. बीते दिसंबर में रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने कंपनियों को निवेश की राह में सबसे बड़ी मुसीबत यूं ही नहीं कहा था. कंपनियों के संचालन लाभ कर्ज पर ब्याज देने या चुकाने के लिए पर्याप्त नहीं हैं. ऐसा दबाव महसूस कर रही कंपनियों की संख्या 2009-10 में 16 थी जो तीन साल पहले 29 और अब 67 हो गई है. इसी तरह कंपनियों के निवेश पर रिटर्न भी 2014-15 में घटकर दशक के सबसे निचले स्तर 7.4 फीसद पर आ गया है. यही बैलेंस शीट रिसेशन है.
 याद कीजिए, ग्रोथ के लिए कर्ज पर ब्याज दरें घटाने की वह बहस जो पिछले साल खूब चली और तब ऐसा लगता था कि रिजर्व बैंक और वित्त मंत्रालय, दोनों दो ध्रुवों पर हैं. अलबत्ता रिजर्व बैंक सही निकला. कंपनियों के कर्ज इस कदर बढ़ चुके हैं कि वे जो कमाई कर रही हैं, वह कर्ज चुकाने में जा रही है. दूसरी तरफ, बैंक बकाया कर्जों के पहाड़ तले दब गए हैं. यही वजह है कि ब्याज दर में कमी के बावजूद न निवेश बढ़ा, न ग्रोथ. इसके साथ ही यह समझ में आ गया कि इस मंदी का इलाज सस्ता कर्ज है ही नहीं क्योंकि जिस वजह से कंपनियां बीमार हैं उसे बढ़ाने वाली दवा वह क्यों लेंगी.

अगर वित्त मंत्री इस सच से इत्तेफाक रखते हैं तो इस मंदी का इलाज बजट को ही निकालना होगा. सरकार बदलने से सब कुछ बदल जाने के ख्यालीपुलाव की महक अब खत्म हो रही है और औद्योगिक उत्पादन, निर्यात, खेती की उपज, शेयर बाजारों में गिरावट की तल्ख हकीकत सामने आ चुकी है तो उन्हें बजट का पूरा गणित बदलना होगा. मोदी सरकार के पिछले दो बजटों में मंदी खत्म करने को लेकर बड़ी निर्णायक रणनीति नजर नहीं आई. सिर्फ खर्च रोककर और टैक्स बढ़ाकर घाटे को संभालने की कोशिश सफल हुई लेकिन इन बजटों से मांग की कमी और उस मंदी का इलाज नहीं हुआ जो कंपनियों की बैलेंस शीट में पैठ गई है. आधुनिक इकोनॉमी यानी स्टार्ट-अप, पुरानी इकोनॉमी यानी मेक इन इंडिया और खेती अब तीनों सरकार से मंदी का इलाज करने वाला ड्रीम बजट चाहते हैं क्या वित्त मंत्री बड़ी परियोजनाएं, खर्च में तेज बढ़ोतरी और टैक्सों में कमी दे सकेंगे? अगर यह साहस नहीं दिखा तो वास्तविक अर्थव्यवस्था की ढलान स्टार्ट-अप इंडिया को बढऩे की तो छोड़िए, पांव टिकाने का मौका भी नहीं देगी. 

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