Tuesday, May 17, 2016

अब मिशन पुनर्गठन


बेहतर मंशा के बावजूद पिछले दो साल में सरकार के कई अभियान और मिशन जमीनी हकीकत से गहरी असंगति का शिकार हो गए हैं
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 14 अप्रैल को जब मध्य प्रदेश में ग्राम उदय से भारत उदय अभियान की शुरुआत कर रहे थे, उस समय उनकी सरकार सूखे पर सुप्रीम कोर्ट के लिए जवाब तैयार कर रही थी, जो उसे अदालत की फटकार के बाद दाखिल करना था. अप्रैल के तीसरे हफ्ते में जब सरकार ने अदालत को बताया कि देश की एक-चौथाई आबादी सूखे की चपेट में है, उस दौरान पार्टी अपने मंत्रियों और सांसदों को गांवों में किसान मेले लगाने का कार्यक्रम सौंप रही थी. नतीजतन, पानी की कमी, खेती की बदहाली और सूखे के बीच ग्राम उदय जनता तो क्या, बीजेपी के सांसदों के गले भी नहीं उतरा जो सरकारी स्कीमों का भरपूर प्रचार न करने को लेकर आजकल प्रधानमंत्री से अक्सर झिड़कियां और नसीहतें सुन रहे हैं.

करिश्माई नेतृत्व की अगुआई में प्रचंड बहुमत वाली किसी सरकार के सांसदों का दो साल में ही इतना हतोत्साहित होना अचरज में डालता है. खासतौर पर ऐसी पार्टी के सांसद जो लंबे अरसे बाद सत्ता में लौटी हो और जिसकी सरकार लगभग हर महीने कोई नया मिशन या स्कीम उपजा रही हो.

सरकार के अभियानों और स्कीमों पर उसके अपने सांसदों का ठंडा रुख एक सच बता रहा है, सरकार जिसे समझने को तैयार नहीं है. सिर्फ ग्रामोदय ही नहीं, बेहतर मंशा के बावजूद पिछले दो साल में सरकार के कई अभियान और मिशन जमीनी हकीकत से गहरी असंगति के नमूने बन गए हैं. यही वजह है कि ऐसे बदलाव नहीं नजर आए, जिन्हें लेकर सांसद अपेक्षाओं से भरी जनता से नजरें मिला सकें.

मोदी सरकार ने गवर्नेंस और सामाजिक-आर्थिक क्षेत्रों की कई दुखती रगों पर उंगली रखने की कोशिश की है लेकिन अधिकतर प्रयोग जड़ें नहीं पकड़ सके. कुछ मिशन कायदे से शुरू भी नहीं हो पाए तो कुछ स्कीमों को चलाने लायक व्यवस्था तैयार नहीं थी, इसलिए दो साल के भीतर ही मोदी सरकार के लगभग सभी प्रमुख मिशन और स्कीमें एक जरूरी पुनर्गठन की टेर लगाने लगी हैं. मिसाल के तौर पर मेक इन इंडिया को ही लें, जो आर्थिक वास्तविकता से कटा होने के कारण जहां का तहां ठहर गया.

कोई शक नहीं कि मैन्युफैक्चरिंग में निवेश जरूरी है लेकिन मोदी सरकार जब सत्ता में आई, तब औद्योगिक क्षेत्र ऐसी मंदी की गिरफ्त में था, जिसमें कंपनियों के पास भारी उत्पादन क्षमताएं तैयार पड़ी हैं लेकिन मांग नहीं है. जब कर्ज में दबी कंपनियां बैंकों की मुसीबत बनी हैं तो निवेश क्या होगा. दो साल में जो विदेशी निवेश आया, वह सर्विस सेक्टर में चला गया जिस पर सरकार का फोकस नहीं था, जबकि मैन्युफैक्चरिंग इकाइयां बंद हो रही हैं या उत्पादन घटा रही हैं. कारोबार आसान बनाने की मुहिम मेक इन इंडिया का हिस्सा थी जो परवान नहीं चढ़ी, क्योंकि राज्यों ने बहुत उत्साह नहीं दिखाया. मेक इन इंडिया को अगर प्रासंगिक रखना है तो इसे चुनिंदा उद्योगों पर फोकस करना होगा, तभी कुछ नतीजे मिल सकेंगे.

स्वच्छता मिशन मौजूदा नगरीय प्रबंधन की हकीकत से कटा हुआ था, इसलिए यह सड़क बुहारती साफ-सुथरी छवियों से आगे नहीं गया. इसे पूरे देश में एक साथ शुरू करने की गलती की गई, जो न केवल असंभव था, बल्कि अव्यावहारिक भी. भारत में नगरीय स्वच्छता का जिम्मा स्थानीय निकायों का है, जिनके पास पर्याप्त संसाधन, श्रमिक और तकनीक का अभाव है. स्कीम के डिजाइन, लक्ष्यों और रणनीति में नगर प्रशासनों की भूमिका नहीं थी, इसलिए मिशन मजाक बनकर गुजर गया. सुनते हैं कि स्वच्छता मिशन का पुनर्गठन होने वाला है. इसे अब चुनिंदा शहरों पर फोकस किया जाएगा. देर आए, दुरुस्त आए.

सब कुछ मोबाइल और इंटरनेट पर देने की मुहिम लेकर शुरू हुआ डिजिटल इंडिया इस हकीकत से कोई वास्ता नहीं रखता था कि जब शहरों में ही मोबाइल नेटवर्क काम नहीं करते तो गांवों का क्या हाल होगा, जहां इंटरनेट तो क्या, वॉयस नेटवर्क भी ठीक से नहीं चलता. गांवों में स्मार्ट फोन की पहुंच सीमित है और मोबाइल इंटरनेट की लागत एक जरूरी पहलू है. यही वजह है कि डिजिटल इंडिया सरकारी सेवाओं के कुछ मोबाइल ऐप्लिकेशनों तक सीमित रह गया, जबकि मोबाइल नेटवर्क पर कॉल ड्रॉप बढ़ते चले गए.

जनधन में 50 फीसदी खाते अब भी जीरो बैलेंस हैं, जिनमें न लोगों ने पैसा रखा और न सरकार ने कोई ट्रांसफर किया. डायरेक्ट बेनीफिट ट्रांसफर रसोई गैस की सब्सिडी बांटने तक ठीक चली क्योंकि उसमें लाभार्थियों की पहचान का टंटा नहीं था, लेकिन जैसे ही लाभार्थी पहचान कर केरोसिन बांटने की बारी आई, स्कीम ठिठक गई.

सांसद आदर्श ग्राम योजना के लक्ष्य ही स्पष्ट नहीं थे, सांसद भी बहुत उत्साही नहीं दिखे. पेंशन और बीमा योजनाएं पिछले प्रयोगों की तरह कमजोर डिजाइन और सीमित लाभों के चलते परवान नहीं चढ़ीं. सबके लिए आवास और स्मार्ट सिटी जैसे मिशन क्रियान्वयन रणनीति की कमी का शिकार हो गए, जबकि मुद्रा बैंक की जिम्मेदारी बैंकों को उस वक्त मिली जब वे फंसे हुए कर्जों में जकड़े हैं.

सत्ता में दो साल पूरे कर रहे प्रधानमंत्री को यह एहसास जरूर होना चाहिए कि उनकी सरकार ने दो साल में स्कीमों और मिशनों का इतना बड़ा परिवार खड़ा कर दिया है, जिनकी मॉनिटरिंग ही मुश्किल है, नतीजे निकाल पाना तो दूर की बात है. जल्दी नतीजों के लिए मोदी सरकार को घोषित स्कीमों और मिशनों को मिशन मोड में पुनर्गठित करना होगा ताकि वरीयताओं की सूची नए सिरे से तय हो सके. गांव से लेकर शहर तक, बैकिंग से लेकर कूड़े-कचरे तक और डिजिटल से लेकर स्किल तक फैले अपने दो दर्जन से अधिक मिशन-स्कीम समूह में से चुनिंदा चार या पांच कार्यक्रमों पर फोकस करना होगा.

सरकारी स्कीमों को लेकर बीजेपी सांसदों की बेरुखी बेसबब नहीं है. वे सियासत की जमीन के सबसे करीब हैं और नतीजों की नामौजूदगी में मोहभंग की तपिश महसूस कर रहे हैं. सांसद जानते हैं कि अगले तीन साल चुनावी सियासत से लदे-फदे होंगे, जिसमें कुछ बड़ा करने की गुंजाइश कम होती जाएगी. इसलिए जो हो चुका है, उसे चुस्त-दुरुस्त कर अगर नतीजे निकाले जा सकें तो पार्टी सांसदों का उत्साह लौटने की सूरत बन सकती है.



1 comment:

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