Tuesday, June 14, 2016

आंकड़ों की चमकार

सरकार के आंकड़ों को लेकर संदेह के संवादों  का  खतरा अब बढऩे लगा है.  

थ्यसंगत विमर्श में रुचि लेने वाले एक मित्र से जब मैंने पिछले सप्ताह कहा कि देश में बिजली का उत्पादन मांग से ज्यादा यानी सरप्लस हो गया है तो उनके माथे पर बल पड़ गए. वे बिजली की व्यवस्था में पीक डिमांड, एवरेज और रीजनल सरप्लस जैसे तकनीकी मानकों से अपरिचित नहीं थे लेकिन बार-बार बिजली जाने से परेशान, पसीना पोंछते मेरे मित्र के गले यह बात उतर नहीं रही थी कि सचमुच मांग से ज्यादा बिजली बनने लगी है.

उनकी यह हैरत उस मध्यवर्गीय उपभोक्ता जैसी ही थी जो सब्जी, तेल, दाल खरीदते समय यह नहीं समझ पाता कि महंगाई यानी मुद्रास्फीति में रिकॉर्ड कमी के आंकड़े ब्रह्मांड के किस ग्रह से आते हैं. ठीक इसी तरह रोजगार में कमी, सूखे के हालात, मांग में गिरावट और कंपनियों की बिक्री के नतीजे पढ़ते हुए, आर्थिक विकास दर के आठ फीसदी (7.9 फीसदी) के करीब पहुंचने के ताजा आंकड़े एक तिलिस्मी दुनिया में पहुंचा देते हैं.

हमने ऊपर जिन तीन आंकड़ों का जिक्र किया है, वे तकनीकी तौर पर सही हो सकते हैं, लेकिन शायद एक विशाल देश में आंकड़ों का व्यावहारिक तौर पर सही होना और ज्यादा जरूरी है, क्योंकि सांख्यिकीय पैमानों की बौद्धिक बहस में टिकाऊ होने के बावजूद अगर बड़े और प्रमुख आंकड़े व्यावहारिक हकीकत से कटे हों तो उनकी राजनैतिक विश्वसनीयता पर शक-शुबहे लाजिमी हैं.

सबसे पहले बिजली को लें, जो गर्मी में सबसे ज्यादा छकाती है. केंद्रीय बिजली अधिकरण (सीईए) ने जैसे ही कहा कि इस साल बिजली का उत्पादन सरप्लस यानी मांग से ज्यादा हो जाएगा तो कई मंत्रियों के ट्विटर हैंडल चिचिया उठे. सीईए ने बताया था कि देश में पीक डिमांड (सर्वाधिक मांग के समय) और नॉन पीक डिमांड (औसत मांग) के समय, बिजली का उत्पादन मांग से क्रमश 3.1 फीसदी और 1.1 फीसदी ज्यादा रहेगा. यह आंकड़ा बिजली की मांग और आपूर्ति पर आधारित है, घंटों और स्थान के आधार पर परिवर्तनशील है. सरकार ने कोयले की बेहतर आपूर्ति के आधार पर बिजली उत्पादन में क्रांति का दावा किया तो कांग्रेसी कह उठे कि काम तो पिछले एक दशक में हुआ है, बीजेपी सरकार तो उसकी मलाई खा रही है.

बहरहाल, अगर आपके इलाके में खूब बिजली कटती है (जो अखिल भारतीय सच है) तो मांग से ज्यादा बिजली उत्पादन के दावे पर भरोसा असंभव है. अलबत्ता अगर तकनीकी चीर-फाड़ करें तो लगेगा कि सीईए बजा फरमाता है. सीईए ने एक निर्धारित समय (घंटा भी हो सकता है) पर पूरे देश में बिजली की मांग व आपूर्ति का औसत निकाला जो उत्पादन में सरप्लस बताता जान पड़ता है. यह स्थिति पिछले साल की तुलना में बेहतर है.

इस तथ्य के बावजूद यह समझना जरूरी है कि भारत में सबसे बुरे वर्षों में भी अलग-अलग समय पर राज्यों में बिजली का उत्पादन सरप्लस रहा है लेकिन इसके साथ ही देश के कई दूसरे हिस्से हमेशा बिजली की कटौती झेलते हैं. कई जगह बिजली कंपनियां घाटा कम करने के लिए कटौती करती रहती हैं. इसलिए बिजली के तात्कालिक सरप्लस उत्पादन का आंकड़ा तकनीकी तौर पर भले ही सही हो, लेकिन इस गर्मी में अक्सर बिजली गायब रहने के दैनिक तजुर्बे से बिल्कुल उलट है जो सरकार के जोरदार दावे पर उत्साह के बजाए खीझ पैदा करता है.

अप्रैल में बढ़त दर्ज करने से पहले तक थोक कीमतों वाली महंगाई पिछले 18 महीने से शून्य से नीचे थी. फुटकर महंगाई की दर भी ताजा बढ़ोतरी से पहले तक पांच फीसदी से नीचे आ गई थी. आंकड़े सिद्धांततः सही हो सकते हैं, लेकिन यहां भी तकनीकी पेच है. खुदरा महंगाई दर जिस सर्वेक्षण पर आधारित होती है, उसके आंकड़े 310 कस्बों और 1,180 गांवों से जुटाए जाते हैं. इस व्यवस्था में गलतियों की भरपूर गुंजाइश है. इन कमजोर आंकड़ों से जो सूचकांक बनता है, उसमें मौसमी चीजों (सब्जी, फल), दूध और दालों की कीमतों का हिस्सा कम है. कपड़ों, शिक्षा परिवहन के खर्चों की गणना का फॉर्मूला भी पुराना है. इसलिए अक्सर सब्जी की दुकान पर खड़े होकर जो महंगाई महसूस होती है, मुद्रास्फीति के घटने के आंकड़े उस पर नमक मलते जान पड़ते हैं.

भारत में जीडीपी के ताजा आंकड़े तो कल्पनाओं की बाजीगरी लगते हैं. मार्च, 2016 की तिमाही में जीडीपी की करीब 51 फीसदी ग्रोथ डिस्क्रीपेंसीज या असंगतियों के चलते आई है. चौंकिए नहीं, जीडीपी की गणना के फॉर्मूले में एक कारक का नाम ही असंगति है. ठोस आंकड़ों के अभाव में सरकार उत्पादन व खर्च का एक मोटा-मोटा अंदाज लगा लेती है और जीडीपी की ग्रोथ तय कर दी जाती है. यह अंदाजा ही डिस्‍क्रिपेंसी या असंगति है.

सरकार के प्रधान आंकड़ाकार टीसीए अनंत को कहना पड़ा कि आंकड़े मिलने में देरी के कारण डिसक्रिपेंसीज कुछ ज्यादा ही हो गई हैं. लेकिन कितनी ज्यादा? इस असंगति के खाते ने मार्च, 2016 की तिमाही में जीडीपी में 143 लाख करोड़ रु. का उत्पादन जोड़ दिया, जो 2015 की इसी तिमाही में केवल 29,933 करोड़ रु. था. आंकड़ों के विशेषज्ञ मानते हैं कि अगर असंगतियों की इस भेंट को जीडीपी से निकाल दें तो मार्च की तिमाही में जीडीपी ग्रोथ 7.9 नहीं बल्कि 3.9 फीसदी रह जाएगी, क्योंकि इनके अलावा सरकार के खर्च में बढ़ोतरी मामूली है, निजी निवेश व निर्यात गिरा है, जिनके दम पर जीडीपी बढ़ता है.

ध्यान रखना जरूरी है कि विकास और बदलाव संख्याओं में नहीं, जमीन पर महसूस होता है जैसा कि रेलवे की सेवाओं में या काले धन को लेकर नजर आ रहा है. लेकिन ऐसा हर क्षेत्र में नहीं हो पाया है. सरकारें हमेशा अपनी उपलब्धियों का प्रचार करती हैं लेकिन आंकड़ों में गफलत साख के लिए खतरनाक हो सकती है.

पिछले दो साल में सरकारी आर्थिक आंकड़ों पर निवेशकों का भरोसा कम हुआ है. वे आंकड़ों की स्वतंत्र पड़ताल को मजबूर हो रहे हैं. सरकारी दावे तकनीकी तौर पर सही हो सकते हैं लेकिन अगर आंकड़े असंगति से भरे और व्यावहारिकता से कटे हों तो इनके अति सुहानेपन के विपरीत एक प्रतिस्पर्धी संवाद पैदा होता है जो बेहतरी की तथ्यात्मक कोशिशों को भी नकारात्मकता और शक-शुबहे से भर देता है. सरकार के आंकड़ों को लेकर संदेह के संवादों का खतरा अब बढऩे लगा है.  


1 comment:

  1. ट्विटर हैंडिल चिचिया उठे। वाह बहुत अच्छा, शब्द वही जो सीधे कम्युनिकेट करे। तथ्यपरक और सारगर्भित लेख है। चौंकाने वाला तथ्य "सरकार के प्रधान आंकड़ाकार टीसीए अनंत को कहना पड़ा कि आंकड़े मिलने में देरी के कारण डिसक्रिपेंसीज कुछ ज्यादा ही हो गई हैं. लेकिन कितनी ज्यादा? इस असंगति के खाते ने मार्च, 2016 की तिमाही में जीडीपी में 143 लाख करोड़ रु. का उत्पादन जोड़ दिया, जो 2015 की इसी तिमाही में केवल 29,933 करोड़ रु. था. आंकड़ों के विशेषज्ञ मानते हैं कि अगर असंगतियों की इस भेंट को जीडीपी से निकाल दें तो मार्च की तिमाही में जीडीपी ग्रोथ 7.9 नहीं बल्कि 3.9 फीसदी रह जाएगी, क्योंकि इनके अलावा सरकार के खर्च में बढ़ोतरी मामूली है, निजी निवेश व निर्यात गिरा है, जिनके दम पर जीडीपी बढ़ता है. "

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