Monday, August 8, 2016

एनडीए की जरुरत


लोकसभा में बहुमत और कमजोर विपक्ष के बावजूद भाजपा को प्रभावी व नतीजे देने वाली सरकार के लिए एनडीए को विस्‍तृत करना होगा

जीएसटी की दिल्ली अभी दूर है और राह भी पेचो-खम से भरपूर है लेकिन जीएसटी के शिलान्यास पर सभी राजनैतिक दलों को राजी कराते हुए बीजेपी के रणनीतिकारों को एहसास जरूर हो गया है कि जीत कितनी भी भव्य हो, संसदीय लोकतंत्र में दोस्ती के बिना बात नहीं बनती. सरकार के आलिम-फाजिलों को यह भी पता चल गया है कि दोस्त बनाने के लिए दूसरों की राय को जगह देनी होती है क्योंकि अंततः नतीजे सामने लाने की जिम्मेदारी सरकार की होती है. यही मौका है जब बीजेपी को जीत के दंभ से निकलकर एनडीए को नए सिरे से गढऩे की कोशिश शुरू करनी चाहिए जो न केवल सरकार को चलाने के लिए जरूरी है बल्कि चुनावी राजनीति की अगली चुनौतियों से निबटने के लिए भी अनिवार्य है.

सत्ता में ढाई साल पूरे कर रही मोदी सरकार कई तजुर्बों से गुजर रही है. इनमें सबसे बड़ा तजुर्बा यह है कि लोकसभा में बहुमत और आम तौर पर कमजोर व बिखरे विपक्ष के बावजूद केंद्र में प्रभावी सरकार चलाने और केंद्रीय नीतियों को लोगों तक पहुंचाने के लिए एक व्यापक राजनैतिक गठबंधन की जरूरत होती है, क्योंकि राज्यों में अलग-अलग दलों के क्षत्रप शान से राज कर रहे हैं. दो-ढाई साल के इन तजुर्बों में यदि 2014 के बाद विधानसभा चुनावों की जीत और हार की नसीहतें भी मिला ली जाएं तो एनडीए की जरूरत और मुखर हो जाती है. 

यह चाहे बड़ी चुनावी जीत का असर हो या फिर नरेंद्र मोदी और अमित शाह के काम करने की शैली लेकिन 2014 की भव्य जीत के बाद एनडीए कहीं पीछे छूट गया है. मोदी के नेतृत्व में बीजेपी का चुनाव अभियान प्रारंभ होने के बाद वैसे भी एनडीए के बड़े घटक छिटक गए थे. जो छोटे सहयोगी बचे थे वह भी सत्ता में आने के बाद हाशिये पर सिमट गए. यूं तो एनडीए की सूची में लगभग तीन दर्जन दल दर्ज हैं लेकिन बीजेपी के अलावा एनडीए में शिवसेना और तेलुगु देशम ही दो बड़ी पार्टियां हैं, लेकिन संसद (दोनों सदन) में इनकी सदस्य संख्या दहाई में (लेकिन 25 से कम) है.
लोकसभा चुनाव में बीजेपी की जीत के बाद शिवसेना लगभग किनारे हो गई. 2014 में महाराष्ट्र में सरकार बनाने के लिए बीजेपी और शिवसेना के रिश्तों की इबारत नए सिरे से लिखी गई, लेकिन उसकी लिखावट न बीजेपी को भाई और न शिवसेना को. इसलिए गठबंधन में तनाव और बयानों की पत्थरबाजी अब रोज की बात है. दोनों दल मुंबई का नगरीय चुनाव शायद अलग-अलग लड़ेंगे.

आंध्र प्रदेश पुनर्गठन या विभाजन विधेयक के क्रियान्वयन और आंध्र को पर्याप्त आर्थिक मदद न मिलने को लेकर तेलुगु देशम के नेता और राज्य के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू असहज हो रहे हैं. तेलुगु देशम एनडीए का दूसरा बड़ा घटक है. दिल्ली के राजनैतिक हलकों में इस बात की चर्चा है कि बीते सप्ताह नायडू ने एनडीए से अलग होने के लिए अपने संसदीय दल की आपात बैठक तक बुला ली थी, जिसे बाद में रद्द कर दिया गया लेकिन आंध्र के मुख्यमंत्री ने यह ऐलान तो स्पष्ट रूप से किया है कि उनके सांसद दिल्ली में केंद्र सरकार के खिलाफ प्रदर्शन करेंगे.

पंजाब चुनाव में नतीजे यदि अकाली दल के माफिक नहीं हुए तो एनडीए में इस घटक का रसूख भी सीमित हो जाएगा. इनके अलावा लोक जनशक्ति एक छोटा घटक है जबकि एक एक सदस्यों वाली कुछ पार्टियां हैं, जिनकी राष्ट्रीय राजनीति में बहुत अहमियत नहीं है.

ऐसा नहीं है कि बीजेपी ने पिछले दो साल में गठबंधन के प्रयोग नहीं किए लेकिन ये कोशिशें राज्यों का चुनाव जीतने तक सीमित थीं जिनके नतीजे मिले-जुले रहे. बिहार में एक बड़ा गठबंधन बनाने की कोशिश औंधे मुंह गिरी. सहयोगी दलों ने फायदे से ज्यादा नुक्सान कर दिया लेकिन असम में स्थानीय छोटी पार्टियां मददगार साबित हुईं. इन गठबंधनों से राष्ट्रीय एनडीए पर कोई बड़ा असर नहीं पड़ा जो बीजेपी के विशाल बहुमत की छाया में कहीं दुबक गया है.

बीजेपी के पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आने के साथ ही भारतीय राजनीति गैर-भाजपावाद की तरफ मुड़ गई. इसका पहला प्रयोग बिहार में हुआ जहां दो धुर विरोधीलालू और नीतीश एक साथ नजर आए और जीत कर निकले. जबकि दूसरा प्रयोग बंगाल में नजर आया जहां वामदल और कांग्रेस ने दोस्ती की और हार हासिल की
अलबत्ता जीत तीसरी ताकत यानी ममता के हाथ लगी, बीजेपी के हाथ नहीं. अब उत्तर प्रदेश में भी अगर कोई गठबंधन उभरेगा तो वह बीजेपी के विरुद्ध ही होगा.

हमें यह स्वीकार करना होगा कि भले ही 2014 का जनादेश स्पष्ट रूप से बीजेपी के पक्ष में रहा हो लेकिन संसद के गणित में वह जनादेश बहुत काम नहीं आया. सरकार को आगे बढऩे के लिए सहमति और सबको साथ लेना ही पड़ा तब जाकर जीएसटी का पहला कदम सामने आया. हकीकत यह भी है कि बीजेपी ने सत्ता में आने के बाद से ही एनडीए के विस्तार की कोशिश शुरू कर दी होती और बड़े क्षेत्रीय दलों से दोस्ती बढ़ाई होती तो पिछले साल केंद्र सरकार की नीतियां शायद कहीं ज्यादा बेहतर नतीजे लेकर सामने आतीं और केंद्र सरकार को उसका राजनैतिक लाभ मिलता.

जीएसटी की गहमागहमी के बीच दिल्ली के राजनैतिक हलकों में 2019 यानी लोकसभा चुनाव की दाल पकने लगी है. अमित शाह का मिशन 2019 चर्चा में है ही जो बीजेपी को दोबारा सत्ता में लाने की तैयारियों पर केंद्रित है. यह भी जानते हैं कि लोकसभा के अगले चुनाव में जीत का फॉर्मूला 2017-18 के विधानसभा चुनावों से निकलेगा. इसमें उत्तर पश्चिम और मध्य भारत के सभी बड़े राज्यों में नए जनादेश आएंगे जो गैर-भाजपावाद को मजबूत कर सकते हैं और 2019 में गठबंधन राजनीति की वापसी की राह खोल सकते हैं.

सिर्फ यही नहीं कि जीएसटी की अगली सभी मंजिलों पर केंद्र सरकार को बहुदलीय और बहुराज्यीय राजीनामे की जरूरत होगी बल्कि अगले ढाई साल के सभी सुधारों और स्कीमों के क्रियान्वयन के लिए भी बीजेपी को अब नए क्षेत्रीय दोस्त चाहिए. और रही बात अगले लोकसभा चुनाव की तो, उसके लिए एक बड़े एनडीए का गठन अनिवार्य होने जा रहा है क्योंकि नए दोस्तों के बिना बीजेपी के लिए 2019 का मोर्चा खासा कठिन हो जाएगा.

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