पाकिस्तान से निबटना उतना मुश्किल नहीं जितना चुनौती पूर्ण है उन उम्मीदों को संभालना जिन पर नरेंद्र मोदी सवार हैं
उड़ी में सैन्य
शिविर पर आतंकी हमले के अगले दिन 19 सितंबर को टीवी
चैनलों पर जब ऐंकर और रिटायर्ड फौजी पाकिस्तान का तिया-पांचा कर देने के लिए सरकार
को ललकार रहे थे और सरकार रणनीतिक बैठकों में जुटी थी, उसी समय दिल्ली
के विज्ञान भवन में भारत के पहले पर्यटन निवेश सम्मेलन की
तैयारी चल रही थी.
चाणक्यपुरी का
अशोक होटल 300 विदेशी
निवेशकों की मेजबानी में लगा था. देश के 25 राज्यों के
प्रतिनिधि अपने यहां पर्यटन की संभावनाओं को बताने के प्रेजेंटेशन लेकर दिल्ली
पहुंच चुके थे. विदेशी पर्यटकों को केंद्रीय मंत्री महेश शर्मा की बेतुकी सलाहों के
बीच पर्यटन को विदेशी निवेशकों के एजेंडे में शामिल कराने का यह बड़ा आयोजन
प्रधानमंत्री की पहल था, जो ब्रांड इंडिया की ग्लोबल चमक बढ़ाने की योजनाओं
पर काम कर रहे हैं.
अजब संयोग था कि
दुनिया के निवेशकों का भारत के पर्यटन कारोबार की संभावनाओं से ठीक उस वक्त
परिचय हो रहा था, जब भारत के टीवी चैनलों पर पाकिस्तान से युद्ध में हिसाब
बराबर करने के तरीके बताए जा रहे थे. अंदाज लगाना मुश्किल नहीं है कि पर्यटन जो कि
छोटी-सी बीमारी फैलने भर से ठिठक जाता है, उसमें निवेश करने
वालों के लिए बीते सप्ताह भारत का माहौल कितना ''उत्साहवर्धक" रहा होगा. जंग की
आशंकाओं के बीच पर्यटन बढ़ाने की उलटबांसी दरअसल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की उलझन
बेजोड़ नमूना है।
नरेंद्र मोदी के
लिए पाकिस्तान की ग्रंथि पिछले किसी भी प्रधानमंत्री की तुलना में ज्यादा पेचीदा
है.पाकिस्तान के आतंकी डिजाइन से निबटना बड़ी समस्या नहीं है. भारतीय
कूटनीति व सेना के पास, पाकिस्तान से निबटने की ताकत व तरीके हमेशा से
मौजूद रहे हैं. बांग्लादेश से बलूचिस्तान तक इसके सफल उदाहरण भी मिल जाते हैं। मोदी की
उलझन सामरिक से ज्यादा राजनैतिक और कूटनीतिक है. मोदी ने भारत को नई तरह के
कूटनीतिक तेवर दिए हैं, पाकिस्तान के साथ
उलझाव इन तेवरों और संवादों की दिशा बदल सकता है.
1991 के आर्थिक
उदारीकरण के बाद भारत की कूटनीति को नए आयाम मिले हैं. भारत का बाजार दुनिया के
लिए खुला और आर्थिक-व्यापारिक संबंध ग्लोबल कूटनीतिक रिश्तों का आधार बन गए. लेकिन
इसका दूसरा पहलू यह भी है कि पाकिस्तान के कारण भारत अपनी
कूटनीतिक क्षमताओं का अपेक्षित लाभ नहीं ले पाया. आतंकवाद व पाकिस्तान के साथ तनाव
ने भारतीय कूटनीति को हमेशा व्यस्त रखा और भारत की अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा अपने पड़ोसी
से निबटने में खर्च होती रही.
पिछले तीन दशक के
दौरान हर
पांच वर्ष में कुछ न कुछ ऐसा जरूर हुआ, जिसके कारण भारत
को अपनी कूटनीतिक ताकत पाकिस्तान को ग्लोबल मंच पर अलग-थलग करने में झोंकनी
पड़ी.वाजपेयी के कार्यकाल में भारत उदार बाजार के साथ ग्लोबल मंच पर अपनी दस्तक को
और जोरदार बना सकता था लेकिन तत्कालीन सरकार के राजनयिक अभियानों की ताकत
का बड़ा हिस्सा पाकिस्तान से रिश्ते सुधारने, संघर्षों से
निबटने और आतंक रोकने में निकल गया.
मनमोहन सिंह कुछ सतर्कता के साथ शुरू हुए. यूपीए के पहले कार्यकाल के दौरान उन्होंने ग्लोबल मंचों पर भारत की पहचान को पाकिस्तान से अलग किया और भारत को दुनिया के अतिविशिष्ट नाभिकीय क्लब में प्रवेश मिला. अलबत्ता 2008 में मुंबई हमले के साथ पाकिस्तान पुनः भारतीय कूटनीति के केंद्र में आ गया. इस घटना के बाद पाकिस्तान के आतंकी डिजाइन को दुनिया के सामने लाना भारतीय राजनयिक अभियान की मजबूरी हो गई.
मनमोहन सिंह कुछ सतर्कता के साथ शुरू हुए. यूपीए के पहले कार्यकाल के दौरान उन्होंने ग्लोबल मंचों पर भारत की पहचान को पाकिस्तान से अलग किया और भारत को दुनिया के अतिविशिष्ट नाभिकीय क्लब में प्रवेश मिला. अलबत्ता 2008 में मुंबई हमले के साथ पाकिस्तान पुनः भारतीय कूटनीति के केंद्र में आ गया. इस घटना के बाद पाकिस्तान के आतंकी डिजाइन को दुनिया के सामने लाना भारतीय राजनयिक अभियान की मजबूरी हो गई.
मोदी पाकिस्तान
के साथ
वाजपेयी जैसी सदाशयता को लेकर शुरू हुए थे, लेकिन इसके
समानांतर उन्होंने भारतीय कूटनीति को नया आयाम देने का अभियान भी प्रारंभ किया.
मोदी का यह ग्लोबल मिशन मौके के माकूल था. दुनिया में मंदी के बीच भारत अकेली
दौड़ती अर्थव्यवस्था है और भारत को ग्रोथ के अगले चरण के लिए नए
निवेश की जरूरत है. मोदी ने भारतवंशियों के बीच अपनी लोकप्रियता को आधार बनाते हुए, भारत की नई ब्रांडिंग के साथ दुनिया के हर बड़े मंच और देश में दस्तक दी, जिसका असर विदेशी
निवेश में बढ़ोतरी के तौर पर नजर भी आया.
पाकिस्तान के
डिजाइन मोदी के ब्रांड इंडिया अभियान के लिए सबसे बड़ा
खतरा हैं. उड़ी का आतंकी हमला बड़ा है, फिर भी यह 26/11 या संसद पर हमले
जैसा नहीं है. पिछले दो साल में कश्मीर से बाहर आतंकी हमलों की घटनाएं सीमित रही
हैं. आतंकी आम लोगों के बजाए सुरक्षा बलों से भिड़ रहे हैं.
मोदी चाहें तो
राजनैतिक संवादों को अनावश्यक आक्रामक होने से
बचा सकते हैं लेकिन मजबूरी यह है कि 2014 में उनका चुनाव
अभियान पाकिस्तान के खिलाफ दांत के बदले जबड़े जैसी आक्रामकता से भरा था. यही वजह
है कि पिछले दो साल में आतंकी हमलों में कमी के बावजूद पाकिस्तान से दो टूक हिसाब
करने के आग्रह बढ़ते गए हैं और मोदी सरकार
पाकिस्तान को प्रत्यक्ष जवाब देने के जबरदस्त दबाव में है, जो पिछले किसी भी
मौके की तुलना में सर्वाधिक है.
वाजपेयी से मोदी
तक आते-आते पाकिस्तान ज्यादा आक्रामक, विघटित और
अविश्वसनीय हो गया है, जबकि भारत की जरूरतें और संभावनाएं बड़ी व भव्य होती
गई हैं. पाकिस्तान से भारत के रिश्ते हमेशा साहस, संयम और सूझबूझ
का नाजुक संतुलन रहे हैं. वक्त बदलने, दक्षिण एशिया में
हथियारों की होड़ बढऩे और ग्लोबल ताकतों की नाप-तौल बदलने के साथ यह संतुलन और
संवेदनशील होता गया है.
उड़ी हमले के बाद
आर-पार की ललकारों के बावजूद भारत का संयम, दरअसल, उस संतुलन
की तलाश है, जिसमें
कम से कम नुक्सान हो. भारत चाहे पाकिस्तान को सीधा सबक सिखाए या फिर कूटनीतिक
अभियान चलाए, दोनों
ही स्थितियों में मोदी को उन बड़ी सकारात्मक उम्मीदों का ध्यान रखना होगा जो उनके
आने के बाद तैयार हुई हैं.
अमेरिकी विचारक जेम्स
फ्रीमैन क्लार्क कहते थेः ''नेता हमेशा अगले चुनाव के बारे में सोचते हैं, लेकिन राजनेता
अगली पीढ़ी के बारे में." हमें उम्मीद करनी चाहिए कि नरेंद्र मोदी
इस संवेदनशील मौके पर राजनेता बनकर ही उभरेंगे.
अच्छा आकलन है सर...
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