इस स्वच्छता अभियान की लगाम जिनके हाथ है, पारदर्शिता के मामले में उनका रिकॉर्ड भारत में सबसे संदिग्ध है.
काला धन नकद में है या सोने में, जमीन में बोया गया है या फिर इमारतें बनकर खड़ा है, नोटबंदी से कितनी कालिख बाहर आएगी, इन कयासों के बीच इस पर भी चर्चा हो जानी चाहिए कि काला धन कहां बन रहा है और किस वजह से.
काली कमाई के मामले में हम निहायत दिलचस्प देश हो चले हैं. ईमानदार लोग अपनी बचत निकालने के लिए पुलिस से पिट रहे हैं जबकि दूसरी ओर सरकार के अभियान की लगाम जिनके हाथ है, पारदर्शिता के मामले में उनका रिकॉर्ड भारत में सबसे संदिग्ध है.
बैंक और टैक्स विभाग मोदी सरकार के स्वच्छता अभियान के शुभंकर हैं, लेकिन काले धन की पैदावार में सबसे बड़ी भूमिका टैक्स सिस्टम की है और इसे छिपाने या धुलाने में बैंकिंग व वित्तीय तंत्र सबसे कारगर है और यही दोनों ईमानदारी के सर्टिफिकेट बांट रहे हैं
सभी अध्ययन और काले धन पर 2012 का सरकारी श्वेत पत्र मानते हैं कि भारत का टैक्स सिस्टम काले धन की बुनियादी वजह है. ज्यादातर टैक्स खपत पर लगते हैं जो व्यापार पर आधारित है इसलिए ट्रेड काले धन का निर्माता भी है, धारक भी और शिकार भी. भारत में व्यापार का बहुत बड़ा हिस्सा नकद पर आधारित है, इसलिए अधिकांश अनअकाउंटेड नकद (जो पूरी तरह काला धन नहीं है) ट्रेड में है.
कुछ आंकड़ों पर गौर फरमाना जरूरी हैः
- व्यापार व उससे जुड़ी गतिविधियां, मसलन, ट्रांसपोर्ट व विभिन्न वित्तीय सेवाएं जीडीपी में 30-35 फीसदी हिस्सा रखती हैं. यह जीडीपी में खेती के हिस्से का दोगुना, उद्योग के हिस्से से 10 फीसदी ज्यादा है.
- 12 फीसदी अर्थव्यवस्था नकद पर चलती है. अधिकांश व्यापार नकद में है. कर्ज पर निर्भरता सीमित है इसलिए व्यापार का अपना क्रेडिट सिस्टम (उधारी) है, जिसमें थोक खरीद पहले होती है और भुगतान बाद में. इसके जरिए व्यापारी कैश फ्लो संतुलित करते हैं.
- राजस्व का बड़ा हिस्सा उपभोग पर लगने वाले टैक्सों से आता है. टैक्स की अधिकांश वसूली प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर व्यापार केंद्रित है.
भारत उपभोग पर सबसे अधिक टैक्स लगाने वाले देशों में है. आयकर की दरें भी ऊंची हैं. अधिकांश काला धन खपत यानी ट्रेड पर लगने वाले टैक्सों की चोरी से बनता है. व्यापारी टैक्स देना चाहते हैं लेकिन चोरी इसलिए होती है क्योंकि एक—कारोबारी लागत ऊंची है, टैक्स का बोझ लाभ के मार्जिन सीमित कर देता हैं, दो—खपत की विशालता के सामने टैक्स सिस्टम की क्षमताएं बहुत सीमित हैं और तीन—टैक्स नियमों के पालन की लागत यानी कंप्लाययंस कॉस्ट बहुत ज्यादा है. यही वजह है कि व्यापार का मुनाफा टैक्स चोरी से निकलता है, जिसमें भ्रष्ट टैक्स सिस्टम मददगार है.
बैंक और वित्तीय सेवाएं भी पीछे नहीं हैं. बैंक न केवल आम लोगों की जमा पूंजी को बड़े कॉर्पोरेट कर्जों में डुबाने के लिए कुख्यात हैं बल्कि नोटबंदी के बाद इन बैंकों में काले धन की धुलाई से रिजर्व बैंक भी परेशान है.
बहुत बड़े पैमाने पर काला धन कानूनी गतिवधियों के जरिये बनता है. कॉर्पोरेट, सेल्स और कारोबारी एकाउंटिंग में दर्जनों रास्ते छिपे हैं. कागजी कंपनियां, आउट ऑफ बुक ट्रांजैक्शान, कैश इन हैंड, कई एकाउंट बुक, उत्पादन कम दिखाकर, खर्च में बढ़ोतरी, बिक्री की रसीदों में हेरफेर करके बहुत-सा काला धन घुमाया, खपाया और छिपाया जाता है. अकाउंटिंग का यह मकडज़ाल बैंकों की निगाह में है क्योंकि अधिकतर कारोबारी गतिविधियों का कोई न कोई हिस्सा बैंकों के नेटवर्क में है.
टैक्स चोरी और फर्जी अकाउंटिंग से बने काले धन के नेता व अधिकारियों तक पहुंचने की यात्रा दिलचस्प है. भारत का अधिकांश भ्रष्टाचार सेवाओं व सुविधाओं की कमी से उपजा है. उदारीकरण के बाद इनकी मांग बढ़ी, आपूर्ति नहीं. रेलवे रिजर्वेशन से लेकर अनापत्ति प्रमाण पत्र तक, स्कूल दाखिले से लेकर मकान बनाने तक हर जगह सेवाओं की मांग व आपूर्ति में भारी अंतर है. जहां यह अंतर घटा, वहां भ्रष्टाचार (टेलीफोन, गैस, कारें) खत्म हो गया.
इस किल्लत के बीच अफसर और नेताओं की एक छोटी-सी जमात के पास अकूत ताकत है, जो बेहद सामान्य सुविधाएं देने से लेकर हक और न्याय बांटने तक फैली है.
भ्रष्टाचार पर कई सर्वे बताते रहे हैं कि भारत में 76 फीसदी रिश्वत 2.5 लाख रु. से कम की होती है. 77 फीसदी रिश्वत काम वक्त पर कराने या कारोबारी नुक्सान से बचने के लिए दी जाती है. कारोबारी हानि बचाने और प्रतिस्पर्धा में बढ़त लेने की सबसे ज्यादा नियमित जरूरत उद्योग व व्यापार को है. यही वजह है कि टैक्स चोरी से बना काला धन नेता-अधिकारियों तक पहुंचता है, जो अवसर बांटने के अधिकारों से लैस हैं. ईज आफ डूइंग बिजनेस रैंकिंग में 189 देशों के बीच भारत की रैंकिंग 130वीं है और टैक्स के मामले में 187वीं. यही कठिनाइयां रिश्वतों का आधार बनती हैं.
भारत में सरकारें बेतकल्लुफ खर्च करती हैं. उन्हें खूब ऊंची दर पर टैक्स और खूब कर्ज चाहिए. यही वजह है कि बैंक और टैक्स पूरे तंत्र की सबसे महत्वपूर्ण लेकिन घटिया कड़ी हैं.
बड़े नोट बंद करने से अर्थव्यवस्था इसलिए ठप है क्योंकि ट्रेड बंद है जो अर्थव्यवस्था का इंजन है और इस इंजन का ईंधन नकदी (कैश जीडीपी रेशियो) है. हमें पता नहीं कि भारत का विशाल व्यापार तंत्र जो बीजेपी का वोटर भी है वह सरकार के फैसले पर कैसी प्रतिक्रिया करेगा लेकिन इतना जरूर पता है कि
- व्यापार अर्थव्यवस्था बुरी तरह टूट गई है. इसके कैश और क्रेडिट फ्लो को भारी नुक्सान हुआ है.
- इस फैसले के साथ आयकर, उत्पाद शुल्क के छापे शुरू हो गए हैं. आने वाले वक्त में इंस्पेक्टर राज कई गुना बढ़ सकता है.
- कई टैक्स दरों और दर्जनों रजिस्ट्रेशन पंजीकरण से लैस जीएसटी आश्वस्त करने के बजाए डराने लगा है.
बड़े नोट बंद होने से काला धन घटने की गारंटी नहीं है. इसके लिए तो बैंकिंग सिस्टम की सफाई और टैक्स में कमी व सहजता जरूरी है. नहीं तो रिश्वतें चलती रहेंगी और काला धन बनता-खपता रहेगा. फिलहाल तो नोटबंदी ने सिर्फ व्यापार, खपत और रोजगार को बुरी तरह भींच दिया है. मंदी दरवाजा खटखटा रही है.
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