राजनीति का चुनावी तदर्थवाद किसानों पर भारी पड़ रहा है जो उत्पादक तंत्र के आखिरी छोर पर खड़े हैं
अन्य लोगों का तो पता नहीं लेकिन किसानों के लिए केंद्र की सरकार कई चेहरों वाले निजाम में बदल चुकी है. एक चेहरा चुनाव से पहले मुनाफे वाले समर्थन मूल्य के वादे में दिखा था लेकिन भूमि अधिग्रहण के साथ दूसरा चेहरा सामने आ गया, किसानों के नाम पर टैक्स तीसरा चेहरा था तो कर्ज माफी का वादा अलग ही सूरत की नुमाइश थी.
सरकार का यह चेहरा बदल उस चुनावी कौतुक का हिस्सा है जो गवर्नेंस की सबसे बड़ी चुनौती बन रहा है. पिछले तीन साल के बड़े और हिंसक आंदोलनों (पाटीदार, मराठा, जाट, किसान) को गौर से देखिए, सभी चुनाव वादों और उनसे मुकर जाने के खिलाफ खड़े हुए हैं.
सरकारें इस कदर दीवानगी के साथ सब कुछ दांव पर लगाकर चुनाव लड़ती पहले नहीं देखी गई थीं. मध्य प्रदेश में फसल का मूल्य मांग रहे किसानों को जब पुलिस की गोलियां मिल रहीं थीं उस वक्त भाजपा छत्तीसगढ़ व तेलंगाना में चुनावी वादों की जुगत में लगी थी. ठीक इसी तरह बीते बरस जब लाखों मराठा किसान महाराष्ट्र की सड़कों पर थे तब उस समय भाजपा उत्तर प्रदेश में चुनावों के लिए कर्ज माफी के वादे की तैयारी कर रही थी.
अपनी बुनियादी जटिल और मौसमी समस्याओं के बावजूद तात्कालिक तौर पर खेती ने ऐसा बुरा प्रदर्शन नहीं किया जिसके कारण किसानों को सड़क पर गोली खानी पड़े. यह कृषि नीतियों में चुनावी छौंक का ही नतीजा है कि तीन साल में कृषि के नीतिगत अंतरविरोध बदहवास किसानों को सड़क पर ले आए हैं.
भाजपा से किसी ने यह नहीं कहा था कि वह चुनाव प्रचार के दौरान फसलों के समर्थन मूल्य पर 50 फीसदी मुनाफे का वादा करे. इतने बड़े नीतिगत बदलाव का दम भरने से पहले, भाजपा के भीतर सब्सिडी, फसल पैटर्न, उपज के उतार-चढ़ाव का कोई अध्ययन हरगिज नहीं हुआ था.
सत्ता में आने के बाद सरकार को समर्थन मूल्य कम करने की नीति ज्यादा बेहतर महसूस हुई. अगस्त 2014 में संसद को बताया गया कि राज्य अब समर्थन मूल्य पर मनमाना बोनस नहीं दे सकेंगे क्योंकि सरकार कृषि का विविधीकरण करना चाहती है और समर्थन मूल्यों की प्रणाली जिसमें सबसे बड़ी बाधा है.
अलबत्ता मौसम की मार से जब फसल बिगड़ी और भूमि अधिग्रहण पर किसान गुस्साए तो समर्थन मूल्य सुधारों को किनारे टिकाकर सरकार पुराने तरीके पर लौट आई.
भारतीय खेती में कमजोर और भरपूर उपज का चक्र नया नहीं है. पिछले साल दालों का आयात हो चुका था इस बीच समर्थन मूल्य बढऩे से उत्साहित किसानों ने पैदावार में भी कोई कमी नहीं छोड़ी. नतीजतन दलहन की कीमतें बुरी तरह टूट गईं. लागत से कम बाजार मूल्य और नकदी के संकट के बीच समर्थन मूल्य पर 50 फीसदी मुनाफे का वादा याद आना लाजिमी है.
समर्थन मूल्य पर पहलू बदलती सरकार चुनावों की गरज में कर्ज के घाट पर बुरी तरह फिसल गई. किसान की कर्ज माफी के नुक्सानों पर नसीहतों का अंबार लगा है लेकिन उत्तर प्रदेश चुनाव के दौरान भाजपा नेता इस कदर मुतमइन थे कि मानो उनके हाथ कर्ज माफी का कोई ऐसा गोपनीय फॉर्मूला लग गया हो जो सरकारों के बजट व बैंकों को इस बला से महफूज रखेगा. हकीकत ने पलटवार में देरी नहीं की. बेसिर-पैर के चुनावी वादे के कारण कर्ज माफी को लेकर बड़ा दुष्चक्र शुरू हो रहा है, जिसमें राज्य सरकारें एक-एक कर फंसती जाएंगी.
क्या आपको मंडी कानून खत्म करने की कोशिशें याद हैं जो मोदी सरकार आने के साथ ही शुरू हुई थीं. देश में निर्बाध कृषि बाजार बनाने की पहल सराहनीय थी लेकिन प्रधानमंत्री अपनी ही सरकारों को इस सुधार के फायदे नहीं समझा सके इसलिए कृषि के बाजार में कोई बड़ा बदलाव नहीं हुआ.
याद रखना भी जरूरी है कि गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए नरेंद्र मोदी ने भारतीय खाद्य निगम के पुनर्गठन की जो सिफारिश की थी उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद पता नहीं कहां गुम हो गई.
चिरंतन चुनावी अभियानों के बीच किसान सरकार के कई चेहरे देखकर बेचैन हैं जबकि टैक्स चुकाने वाले यह समझ नहीं पा रहे हैं कि खेती के हितों के लिए उनसे वसूला जा रहा टैक्स (कृषि कल्याण सेस - 2016-17 और 2017-18 में करीब 19000 करोड़ रुपये का संग्रह का अनुमान) आखिर किस देश के किसानों के काम आ रहा है.
अतीत से ज्यादा डराता है भविष्य क्योंकि चुनावों की कतार अंतहीन है और हम चुनाव से चुनाव तक चलने वाली गवर्नेंस में धकेल दिए गए हैं. चुनाव जीतने के लिए होते हैं लेकिन हमें यह तय करना होगा इस जीत को पाने की अधिकतम कीमत क्या होगी?
चुनाव गवर्नेंस का साधन हैं साध्य नहीं. अगर सब कुछ चुनावों को देखकर होने लगा तो नीतियों की साख और सरकार चुनने का क्या मतलब बचेगा?
याद रखना जरूरी हैः
राजनेता अगले चुनाव के बारे में सोचते हैं और राष्ट्र नेता अगली पीढ़ी के बारे में: जेम्स फ्रीमैन
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