चुनावों में भव्य जीत जमीन से जुड़े होने की गारंटी नहीं है. यह बात किसी उलटबांसी जैसी लगती है लेकिन यही तो जीएसटी है.
जीएसटी की खोट, नाकामी और किरकिरी इसकी राजनीति की देन हैं, इसके अर्थशास्त्र या कंप्यूटर नेटवर्क की नहीं.
दरअसल, अगर कोई राजनैतिक दल किसी बड़े सुधार के वक्त जमीन से कट जाए तो उसे तीन माह में दो बार दीवाली मनानी पड़ सकती है. पहले जीएसटी लाने की दीवाली (1 जुलाई) और इससे छुटकारे की (6 अक्तूबर).
जीएसटी मुट्ठी भर बड़ी कंपनियों का नहीं, बल्कि भाजपा के बुनियादी वोट बैंक का सुधार था. यह देश के लाखों छोटे उद्योगों और व्यापार के लिए कारोबार के तौर-तरीके बदलने का सबसे बड़ा अभियान था. 1991 से अब तक भारत ने जितने भी आर्थिक सुधार किए, वह संगठित क्षेत्र यानी बड़ी कंपनियों के लिए थे. जीडीपी में करीब 50 फीसदी और रोजगारों के सृजन में 90 फीसदी हिस्सा रखने वाले असंगठित क्षेत्र को सुधारों की सुगंध मिलने का संयोग नहीं बन सका.
टैक्स सुधार के तौर पर भी जीएसटी भाजपा के वोट बैंक के लिए ही था. बड़ी कंपनियां तो पहले से ही टैक्स दे रही हैं और आम तौर पर नियमों की पाबंद हैं. असंगठित क्षेत्र रियायतों की ओट में टैक्स न चुकाने के लिए बदनाम है. उसे नियमों का पाबंद बनाया जाना है.
अचरज नहीं कि छोटे कारोबारी जीएसटी को लेकर सबसे ज्यादा उत्साहित भी थे क्योंकि यह उनकी तीन मुरादें पूरी करने का वादा कर रहा थाः
1. टैक्स दरों में कमी यानी बेहतर मार्जिन और ज्यादा बिक्री
2. आसान नियम यानी टैक्स कानून के पालन की लागत में कमी अर्थात् साफ-सुथरे कारोबार का मौका
3. डिजिटल संचालन यानी अफसरों की उगाही और भ्रष्टाचार से निजात
छठे आर्थिक सेंसस (2016) ने बताया है कि भारत में खेती के अलावा, करीब 78.2 फीसदी उद्यम पूरी तरह संचालकों के अपने निवेश पर (सेल्फ फाइनेंस्ड) चलते हैं. उनकी कारोबारी जिंदगी में बैंक या सरकारी कर्ज की कोई भूमिका नहीं है. जीएसटी के उपरोक्त तीनों वादे, छोटे कारोबारियों के मुनाफों के लिए खासे कीमती थे. जमीन या किराये, ईंधन और बिजली की बढ़ती लागत पर उनका वश नहीं है, जीएसटी के सहारे वह कारोबार में चमक की उम्मीद से लबालब थे.
2015 की शुरुआत में जब सरकार ने जीएसटी पर राजनैतिक सहमति बनाने की कवायद शुरू की तब छोटे कारोबारियों का उत्साह उछलने लगा.
यही वह वक्त था जब उनके साथ सरकार का संवाद शुरू होना चाहिए था ताकि उनकी अपेक्षाएं और मुश्किलें समझी जा सकें. गुरूर में झूमती सरकार ने तब इसकी जरूरत नहीं समझी. कारोबारियों को उस वक्त तक, जीएसटी की चिडिय़ा का नाक-नक्श भी पता नहीं था लेकिन उन्हें यह उम्मीद थी कि उनकी अपनी भाजपा, जो विशाल छोटे कारोबार की चुनौतियों को सबसे बेहतर समझती है, उनके सपनों का जीएसटी ले ही आएगी.
2016 के मध्य में सरकार ने मॉडल जीएसटी कानून चर्चा के लिए जारी किया. यह जीएसटी के प्रावधानों से, छोटे कारोबारियों का पहला परिचय था. यही वह मौका था जहां से कारोबारियों को जीएसटी ने डराना शुरू कर दिया. तीन स्तरीय जीएसटी, हर राज्य में पंजीकरण और हर महीने तीन रिटर्न से लदा-फदा यह कानून भाजपा के वोट बैंक की उम्मीदों के ठीक विपरीत था. इस बीच
जब तक कि कारोबार की दुनिया के छोटे मझोले , जीएसटी के पेच समझ पाते, उनके धंधे पर नोटबंदी फट पड़ी.
उत्तर प्रदेश की जीत, भाजपा के दंभ या गफलत का चरम थी. जीएसटी को लेकर डर और चिंताओं की पूरी जानकारी भाजपा को थी. लेकिन तब तक पार्टी और सरकार ने यह मान लिया था कि छोटे कारोबारी आदतन टैक्स चोरी करते हैं. उन्हें सुधारने के लिए जीएसटी जरूरी है. इसलिए जीएसटी काउंसिल ने ताबड़तोड़ बैठकों में चार दरों वाले असंगत टैक्स ढांचे को तय किया, उनके तहत उत्पाद और सेवाएं फिट कीं और लुंजपुंज कंप्यूटर नेटवर्क के साथ 1 जुलाई को जीएसटी की पहली दीवाली मना ली गई.
जीएसटी आने के बाद सरकार ने अपने मंत्रियों की फौज इसके प्रचार के लिए उतारी थी लेकिन उन्हें जल्द ही खेमों में लौटना पड़ा. अंतत: अपने ही जनाधार के जबरदस्त विरोध से डरी भाजपा ने गुजरात चुनाव से पहले जीएसटी को सिर के बल खड़ा कर दिया. यह टैक्स सुधार वापस कारीगरों के हवाले है जो इसे ठोक-पीटकर भाजपा के वोट बैंक का गुस्सा ठंडा कर रहे हैं.
ग्रोथ, आसान कारोबार या बेहतर राजस्व, जीएसटी फिलहाल अपनी किसी भी उम्मीद पर खरा नहीं उतरा क्योंकि इसे लाने वाले लोकप्रियता के शिखर पर चढ़ते हुए राजनैतिक जड़ों से गाफिल हो गए थे. चुनावों में हार-जीत तो चलती रहेगी, लेकिन एक बेहद संवेदनशील सुधार, अब शायद ही उबर सके.
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