Sunday, October 8, 2017

सोचा न था...


सरकारें आक्रामक हों यह जरूरी नहीं है, लेकिन उन्हें सूझ-बूझ भरा जरूर होना चाहिए.
वे ताबड़तोड़ फैसले भले ही न करें, लेकिन उनके फैसले सधे हुए और सुविचारित जरूर होने चाहिए.
लोगों की जिंदगी में संकटों की कमी नहीं है, सुधार संकट दूर करने वाले होने चाहिए उन्हें बढ़ाने वाले नहीं.
राजनैतिक पेशबंदी चाहे जो हो लेकिन सरकार का तापमान यह बता रहा है कि उसे दो बड़े फैसलों के चूक जाने का एहसास हो चला है. नोटबंदी अपने सभी बड़े लक्ष्य हासिल करने में असफल रही है. जाहिर है कि इनकम टैक्स रिटर्न फाइल करने वालों की संख्या बढ़ाने के लिए तो इतना बड़ा जोखिम नहीं लिया गया था. 
और जीएसटी ! इसे तो एक जुलाई की आधी रात को संसद के केंद्रीय कक्ष में भारत का सबसे  क्रांतिकारी आर्थिक सुधार घोषित किया माना गया था, तब संसद में दीवाली  मनाई गई थी लेकिन तीन माह के भीतर ही यह संकटकारी और लाल फीता शाही बढ़ाने वाला लगने लगा। याद नहीं पड़ता कि हाल के वर्षों में कोई इतना बड़ा सुधार तीन माह बाद ही पूरी तरह सर के बल खड़ा हो गया हो।  
जीएसटी और नोटबंदी को एक साथ देखिए, उनकी विफलताओं में गहरी दोस्ती नजर आएगी.
दोनों ही गवर्नेंस के बुनियादी सिद्धांतों की कमजोरी का शिकार होकर सुधार की जगह खुद संकट बन गएः

1. गवर्नेंस अंधेरे में तीर चलाने का रोमांच नहीं है. प्रबंधन वाले पढ़ाते हैं जिसे आप माप नहीं सकते उसे संभाल नहीं सकते. सवाल पूछना जरूरी है कि क्या नोटबंदी से पहले सरकार ने देश में काली नकदी का कोई आंकड़ा भी जुटाया था? आखिरी सरकारी अध्ययन 1985 में हुआ और सबसे ताजा सरकारी दस्तावेज वह श्वेत पत्र था जो 2012 में संसद में रखा गया. दोनों ही नकद में बड़ी मात्रा में काला धन होने को लेकर बहुत आश्वस्त नहीं थे.

नकदी और बैंक खातों में जमा रकम को लिक्विड वेल्थ माना जाता है. वित्तीय शोध फर्म कैपिटलमाइंड ने हिसाब लगाया कि भारत में कुल लिक्विड वेल्थ में नकदी का हिस्सा केवल 14 फीसदी (1950 में 50 फीसदी) है, जिसका 99 फीसदी हिस्सा बैंकों से गुजरकर हाथों में वापस पहुंच रहा है. अगर सरकार काले धन के लिए सोना या जमीनों पर निगाह जमाती तो उत्साहजनक नतीजे मिल सकते थे. कम से कम अर्थव्यवस्था का दम घुटने से तो से बच जाता.

जीएसटी दस साल से बन रहा है लेकिन इसकी जरूरत, कारोबारी हालात और तैयारियों का एक अध्ययन या जमीनी शोध तक नहीं हुआ. छोटे उद्योग कितनी टैक्स चोरी करते हैं, यह बताने के लिए सरकार के पास कोई आंकड़ा नहीं है.किस कारोबार पर इसका क्‍या असर होगा? सरकार से लेकर कारोबार तक कौन कितना तैयार है? सरकार ने तो यह भी नहीं आंका कि जीएसटी से राजस्व का क्या नुक्सान या फायदा होगा. इसलिए जीएसटी तीन माह में बिखर गया. हम ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, मलेशिया के तजुर्बों से सीखकर पूरे सुधार को सहज व पारदर्शी बना सकते थे.

2. यदि संकट सिर पर न खड़ा हो तो कोई आर्थिक सुधार में नुक्सान-फायदों की सही गणना जरुरी होती है. नोटबंदी के समय सरकार ने शायद यह हिसाब भी नहीं लगाया कि एटीएम नए नोटों के साथ कैसे काम करेंगे? रिजर्व बैंक कितने नोट छाप सकता है ? करेंसी कहां और कैसे पहुंचेगी? नियम कैसे बदलने होंगे? जीडीपी में गिरावट, रिजर्व बैंक व बैंकों को नुक्सान, कंपनियों को घाटा, रोजगारों में कमी—नोटबंदी ने 12 लाख करोड़ रु. की चपत (एनआइपीएफपी का आकलन) लगाई है. 

जीएसटी के नुक्सानों का आंकड़ा आना है अलबत्‍ता सरकार ने इस जिस तरह वापस लिया है वह संकेत ददेता है कि जीएसटी ने भी राजस्व, जीडीपी और कंपनियों के मुनाफों में बड़े छेद किये हैं.

3. सुधार कैसे भी हों लेकिन उनसे सेवाओं सामानों की किल्‍लत पैदा नहीं हो चा‍हिए। मांग व आपूर्ति की कमी कुछ लोगों को हाथ में अकूत ताकत दे देती है, यही तो भ्रष्‍टाचार है. नोटबंदी और जीएसटी, दोनों ही भ्रष्टाचार के नए नमूनों के साथ सामने आए. नोटबंदी ने बैंक अफसरों को दो माह के लिए सुल्तान बना दिया. नोटों की अदला-बदली में बैंकिंग तंत्र भ्रष्ट और जन धन ध्व‍स्त हो गए. जीएसटी की किल्लतों के वजह से कच्चे बिल और नकद के कारोबार की साख और मजबूत हो गई. जीएसटी में ताजी तब्‍दीलियों के बाद अब वही पुराना दौर लौटने वाला है जिसमें टैक्‍स चोरी और भष्‍टाचार एक साथ चलता था. 

कमजोर तैयारियां, खराब डिजाइन और बदहाल क्रियान्वयन,  गवर्नेंस के स्थायी रोग हैं. लेकिन हमने दुनिया को दिखाया है कि अर्थव्यवस्था को उलट-पलट देने वाले निर्णय, अगर इन बीमारियों के साथ लागू हों तो दुनिया की सबसे तेज दौड़ती अर्थव्यवस्था को भी विकलांग बनाया जा सकता है.
सरकारों की मंशा पर शक नहीं होना चाहिए वह हमेशा अच्‍छी ही होती है मुसीबत यह है कि सरकारी फैसलों की परख उनकी मंशा से नहीं, नतीजों से होती है. नोटबंदी और जीएसटी सुधार होने का तमगा लुटा चुके हैं. अब तो कवायद इनके असर से बचने और उबरने की है.  

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