लेकिन कोई कंपनी या वही बैंक अपने शेयर धारकों या निवेशकों को हर छोटी-छोटी जानकारी क्यों देता है, स्टॉक एक्सचेंज से वह कोई सूचना क्यों नहीं छिपाता?
भारत में कारोबार के लिए धन जुटाने के तीन रास्ते हैं:
एक- उद्यमी की अपनी पूंजी,
दो- बैंक कर्ज
और तीन- जनता को हिस्सेदारी देना यानी शेयर बेचना.
देश में कंपनियां तो हजारों हैं. उनमें से कुछ ही स्टॉक मार्केट में सूचीबद्ध हैं तो बाकी बड़ी-बड़ी निजी कंपनियों को कारोबार के लिए धन कहां से मिलता है?
जाहिर है बैंक से! कर्ज के तौर पर!
तो बैंक जमाकर्ता कंपनी के कारोबार में अगर सीधे नहीं तो परोक्ष हिस्सेदार तो हुए न?
जब देश में हर काम बैंक के कर्ज से होना है और कर्ज के तौर पर दरअसल लाखों लोगों की बचत बांटी (या लुटाई) जा रही है तो बैंक जमाकर्ताओं को उतनी तवज्जो या सूचनाएं क्यों नहीं मिलनी चाहिए जो कंपनी के शेयर धारकों को मिलती हैं?
कोई फर्क नहीं पड़ता कि कंपनी का मालिक एक है या कई, फर्क इससे पडऩा चाहिए कि उसके कारोबार की पूंजी कहां से आ रही है?
इन सवालों पर अब भारत में बैंकिंग की साख निर्भर है, क्यों?
आइए, दो ताजे बैंक घोटालों या कर्ज डिफॉल्ट को करीब से देखते हैं.
देश को पीएनबी घोटाले का पता कैसे चला?
बैंक को दिसंबर में ही अनुमान हो गया था कि नीरव मोदी और मेहुल चौकसी कर्ज नहीं चुकाने वाले हैं. जनवरी में दोनों देश से निकल लिए. एफआइआर जनवरी के अंत में हुई लेकिन भ्रष्टाचार पर जीरो टॉलरेंस की नींद 14 फरवरी के बाद टूटी जब बैंक ने स्टॉक एक्सचेंज को बताया कि उसे एक घोटाले में 11,000 करोड़ रु. का चूना लग गया है. शेयर गिरे, कोहराम मचा और फिर शुरू हुआ स्यापा.
फिर भी ले-देकर पंद्रह दिन के भीतर पूरा घोटाला सामने आ ही गया.
अब दूसरा घोटाला देखिए.
रोटोमैक को दिए गए कर्ज का डिफॉल्ट (या धोखाधड़ी) 2015 में हो गई थी. सात महीने पहले डेट रिकवरी ट्रिब्यूनल का आदेश भी आ गया लेकिन सीबीआइ को कार्रवाई करने के लिए दो साल तक मोदी के घोटाले का इंतजार करना पड़ा. सिंभावली शुगर्स लि. में बैंक कर्ज की लूट शुरू हुई 2013 में और एफआइआर हुई 2018 में.
हम पारदर्शिता के दो ध्रुवों के बीच खड़े हैं.
पीएनबी का घोटाला पंद्रह दिन के भीतर इसलिए खुल गया क्योंकि सेबी के नियमों के तहत कोई सूचीबद्ध कंपनी (जैसे कि पंजाब नेशनल बैंक) जरूरी जानकारी जनता यानी (शेयर बाजार) से छिपा नहीं सकती.
लेकिन रोटोमैक का घोटाला इसलिए दो साल तक छिपा रहा कि वह एक प्राइवेट लिमिटेड कंपनी है. उसे अपनी सूचना छिपाने और बैंकों को उसकी कारगुजारी गोपनीय रखने की छूट है.
भारत में कारोबारी पारदर्शिता का हाल अजीबोगरीब है. स्टॉक मार्केट में सूचीबद्ध कंपनी विस्तृत पारदर्शिता नियमों से बंधी होती है लेकिन एक प्राइवेट लिमिटेड कंपनी (कितनी भी बड़ी हो) कंपनी रजिस्ट्रार के पास एक सालाना रिटर्न भर कर नक्की हो जाती है. हमें यह पता नहीं चलता, वह क्या और कैसे कर रही है?
बैंक कर्ज पर आधारित कारोबारों की तादाद बढऩे से यह अपारदर्शिता महंगी पडऩे लगी है. देश में दस-दस हजार करोड़ रु. के कारोबार वाली निजी कंपनियां हैं जो बैंकों से भारी कर्ज (रोटोमैक या मोदी की फायरस्टार) लेती हैं लेकिन लोगों को कर्ज डूबने के बाद ही पता चलता है कि उनके भीतर क्या हो रहा था.
इलाज क्या है
- बैंक कर्ज पर चलने वाले कारोबारों के लिए पारदर्शिता के नए नियम तय किए जाएं. जमाकर्ताओं को पता रहे कि उनका बैंक किसे और कहां कर्ज दे रहा है.
- कंपनियों के लिए पारदर्शिता नियम इस तथ्य पर आधारित होने चाहिए कि उनके निवेश का स्रोत क्या है?
- 75 करोड़ रु. से ऊपर की कंपनियों को शेयर बाजार में सूचीबद्ध कराया जाए ताकि उनका कामकाज सबकी निगाह में रहे.
बैंकिंग और वाणिज्यिक कर्ज में पारदर्शिता लाने के लिए घोटालों के तमाचे चाहिए तो यकीन मानिए हमारे गाल लाल हो चुके हैं. घोटालों (हर्षद मेहता और केतन पारेख) से सबक लेकर 2001 के बाद, सेबी ने जनता से पूंजी जुटाने, बेचने और शेयर ट्रेडिंग के नियमों को बला का सख्त और पारदर्शी कर दिया. कर्ज लेने वाली कंपनियों और बैंकों के साथ इसी तरह का कुछ करना होगा. बैंक में पैसा रखने वालों की तादाद शेयर बाजार में निवेश करने वालों से बहुत बड़ी है. कर्ज की लूट के चलते अगर उनका भरोसा डिगा तो अर्थव्यवस्था की चूलें हिल जाएंगी.
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