- पिछले महीने मध्य प्रदेश की विधानसभा के
सदस्यों की एक बड़ी आजादी जाते-जाते बची. राज्य विधानसभा में सवाल पूछने के अधिकार
सीमित किए जा रहे थे और माननीयों को पता भी नहीं था. प्रस्ताव चर्चा के लिए
अधिसूचित हो गया. लोकतंत्र की फिक्र की पत्रकारों ने. सवाल उठे और अंतत: पालकी को
लौटना पड़ा.
- एक और पालकी दिल्ली में लौटी. राजीव गांधी के
मानहानि विधेयक की तर्ज पर सूचना प्रसारण मंत्रालय ने गलत खबरों को रोकने के बहाने
खबरों की आजादी पर पंजे गड़ा दिए. विरोध हुआ और प्रधानमंत्री ने भूल सुधार किया.
- राजस्थान सरकार भी चाहती थी कि अफसरों और
न्यायाधीशों पर खबर लिखने से पहले उससे पूछा जाए. लोकतंत्र की बुनियाद बदलने की यह
कोशिश भी अंतत: खेत रही.
- और सबसे महत्वपूर्ण कि बहुमत के बावजूद विपक्ष
के अविश्वास प्रस्ताव से डरी सरकार ने संसद का पूरा सत्र गवां दिया लेकिन विपक्ष
को अविश्वास प्रस्ताव रखने के हक का इस्तेमाल नहीं करने दिया.
लोकतंत्र
बुनियादी रूप से सरकार से प्रश्न, उसकी आलोचना, विरोध और निष्पक्ष चुनाव (जिसमें इनकार या स्वीकार छिपा है)
पर टिका है. ऊपर की चारों घटनाएं इस बात का प्रमाण हैं कि लोकतंत्र की छाया में
पले-बढ़े लोग उन्हीं मूल्यों का गला दबाना चाहते हैं जो उन्हें सत्ता तक लाए हैं.
प्रश्न
मध्य प्रदेश
सरकार के चुने हुए प्रतिनिधि अपनी आजादी को सूली पर चढ़ाने जा रहे थे. सरकार चाहती
थी कि वे वीआइपी सुरक्षा (खास तौर से मुख्यमंत्री की सुरक्षा), सांप्रदायिक
राजनीति आदि पर सवाल न पूछें.
क्यों?
अगर जनता के
नुमाइंदे भी सवाल नहीं पूछेंगे, तो भला कौन पूछेगा?
अमेरिका के
अध्यक्षीय लोकतंत्र में प्रश्नोत्तरकाल नहीं है. अमेरिकी कांग्रेस इसे शुरू करने
पर चर्चा कर रही है ताकि सांसद सरकार से सीधे सवाल पूछ सकें. संसदीय लोकतंत्र इस
मामले में ज्यादा आधुनिक है. इसमें सदन का पहला सत्र ही प्रश्नकाल होता है यानी
दिन की शुरुआत सरकार को सवालों में कठघरे में खड़ा करने से होती है.
संविधान निर्माता
चाहते थे कि सरकारें हर छोटे-बड़े सवालों का सामना करें. उनसे मौखिक ही नहीं, लिखित जवाब भी
मांगे जाएं. सवालों पर कोई रोक न हो. संसद की एक (आश्वासन) समिति सवालों में सरकार
के झूठ सच पर निगाह रखती है.
अभी तक सरकारें ‘प्रश्न से जुड़ी
सूचनाएं अभी एकत्रित की जा रही हैं’ कहकर बच निकलती थीं लेकिन अब तो उन्हें सवालों से ही डर लग रहा है. कोई गारंटी नहीं कि
मध्य प्रदेश जैसी कोशिश फिर नहीं होगी.
शायद इससे हमारे
नुमाइंदों पर कोई फर्क नहीं पड़ता! उनके लिए लोकतंत्र का मतलब बदल चुका है.
विपक्ष
संसद में पहला
अविश्वास प्रस्ताव 1963 में नेहरू के
खिलाफ आया था. अब तक कुल 26 बार अविश्वास
प्रस्ताव आए हैं जिनमें 25 असफल रहे. सिर्फ
एक प्रस्ताव ऐसा था जिस पर मतदान से पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने
इस्तीफा दे दिया था.
इसके बावजूद संसद
की परंपरा है, सभापति अविश्वास
प्रस्ताव को किसी दूसरे कामकाज पर वरीयता देते हैं. यह सिद्ध करना संसद का दायित्व
है कि देश को सरकार पर भरोसा है. सरकारें भी इस प्रस्ताव पर मतदान में देरी नहीं
करतीं क्योंकि इसके गिरने से उन्हें ताकत मिलती है.
अचरज है कि इस
बार बहुमत वाली सरकार जिसे कोई खतरा नहीं था, वह अविश्वास प्रस्ताव का सामना करने से डर गई. उसने एक नई
परंपरा शुरू कर दी. अब अगली सरकारें अविश्वास प्रस्ताव को रोकने के लिए खुद ही
संसद नहीं चलने देंगी. दिलचस्प है कि विधायकों को सवाल पूछने से रोकने वाले मध्य
प्रदेश सरकार के प्रस्ताव में यह प्रावधान भी था कि सत्ता पक्ष के विधायक विपक्ष
के ‘अविश्वास
प्रस्ताव’ के खिलाफ ‘विश्वास प्रस्ताव’ ला सकते हैं.
हम विपक्ष या
विरोध के बिना लोकतंत्र की कल्पना भी नहीं कर सकते. यह समझना जरूरी है कि
जिन्होंने तेजतर्रार विपक्ष के तमगे जुटाए थे, वे ही अब हर विरोध में षड्यंत्र देखते हैं और सरकार पर उठे
हर सवाल को पाप मानते हैं.
सत्तारूढ़
राजनैतिक दलों के नेतृत्व को खुशफहमी की बीमारी सबसे पहले घेरती है. उन्हें वही
बताया या सुनाया जाता है जो वे सुनना चाहते हैं. यह बीमारी उन्हें अधिनायक में
बदलने लगती है. सवाल, आलोचनाएं, विरोध और
निगहबानी वे आईने हैं जिनमें हर सरकार को अपना अक्स बार-बार देखना चाहिए, इन्हें तोडऩे वाले तुझे ख्याल
रहे, अक्स तेरा भी बंट
जाएगा कई हिस्सों में.’
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