एक राजा था. उसके सिपहसालार धुरंधर थे.
वे राजा के लिए जीत पर जीत लाते रहते थे. राजा नए सूबेदारों को जीते हुए सूबे सौंप
कर अगली जंग में जुट जाता था.
फिर शुरू हुई सबसे बड़ी जंग की तैयारी.
कवच बंधने लगे. सिपहसालारों ने जीते हुए मोर्चों का दौरा किया और थके से वापस लौट
आए. राजा ने पूछा कि माजरा क्या है? एक
पके हुए सलाहकार ने कहा कि हुजूर, यह
जंग अब सिपहसालारों की नहीं रही. लोग अब सूबेदारों से जवाब मांग रहे हैं.
इस कहानी के पात्र रहस्यमय नहीं हैं.
सरकारी पार्टी में यह किस्सा अलग-अलग संदर्भों के साथ बार-बार कहा-सुना जा रहा है.
गुजरात से गोरखपुर तक वाया राजस्थान, मध्य प्रदेश सत्ता विरोधी तापमान बढऩे लगा है. पेशानी
पर पसीना सवालों की इबारत में छलक रहा है. सूबेदार दिल्ली तलब होने लगे हैं.
तो सरकार से नाराजगी ने दिग्विजयी
भाजपा को भी घेर लिया!
लोकसभा चुनाव की भव्य जीत लेकर गुजरात
तक, जीत पर जीत (बिहार व दिल्ली को छोड़कर)
में झूमती भाजपा में किसी ने नहीं सोचा था कि लोग उनकी सरकारों से भी नाराज हो
सकते हैं. गुजरात की हार जैसी जीत और उपचुनावों में बेजोड़ हार के बाद सरकार में
ऐसे सवाल घुमड़ रहे हैं जिनका सामना हाल के वर्षों में किसी पार्टी ने नहीं किया.
जाहिर है, इस तरह की निरंतर चुनावी विजय भी तो
दुर्लभ थीं.
आर्थिक उदारीकरण के बाद पहली बार देश
ने यह देखा कि पांच सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं यानी कि क्लब फाइव (महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु, गुजरात और कर्नाटक) में तीन और उभरते
हुए तीनों प्रमुख राज्यों (राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश) पर उस पार्टी का शासन है जो केंद्र में भी
राज कर रही है. भारत के जो 11 राज्य (महाराष्ट्र, गुजरात, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, राजस्थान, केरल, बिहार, ओडिशा और संयुक्त आंध्र) 2020 तक देश
की जीडीपी में 76 फीसदी के हिस्सेदार होंगे, उनमें सात (आंध्र प्रदेश अभी तक एनडीए
में था) पर भाजपा का शासन है. इसके बाद तीन प्रमुख छोटी अर्थव्यवस्थाएं झारखंड, हरियाणा और असम भी भाजपा के नियंत्रण
में हैं.
यह ऐसा अवसर था, जिसके लिए यूपीए सरकार दस साल तक तरसती
रही. सुधारों के कई अहम प्रयोग इसी वजह से जमीन नहीं पकड़ सके क्योंकि बड़े और
संसाधन संपन्न राज्यों से केंद्र के राजनैतिक रिश्तों में गर्मजोशी नहीं थी.
लेकिन क्या केंद्र व राज्यों में
राजनैतिक रिश्तों के रसायन से मोदी सरकार के मिशन परवान चढ़ सके? मोदी सरकार पिछले एक दशक की पहली ऐसी
सरकार है जिसने 'स्वच्छता' से 'उड़ान' यानी जमीन से लेकर आसमान तक
कार्यक्रमों और मिशनों की झड़ी लगा दी, फिर भी सरकारों से नाराजगी ने घेर ही लिया!
क्यों नहीं उम्मीदों पर खरी उतरी मोदी
की टीम इंडिया?
1. राज्यों में पहले से ही मुख्यमंत्रियों
के पास खासी ताकत थी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पीएमओ केंद्रित राजनैतिक
गवर्नेंस राज्यों का आदर्श बन गई. सत्ता का विकेंद्रीकरण न होने से जमीनी
क्रियान्वयन और संवाद जड़ नहीं पकड़ सका जबकि दूसरी तरफ घोषणाओं का अंबार लगा दिया
गया. अब बारी मोहभंग की है. उदाहरण के लिए गोरखपुर.
2. राज्यों का प्रशासनिक ढांचा थक चुका
है. इसे कहीं ज्यादा कठोर और नए सुधारों की जरूरत है. लेकिन पिछले चार साल में
किसी राज्य में कोई नया बड़ा क्रांतिकारी सुधार या प्रयोग नजर नहीं आया. योजना आयोग
को समाप्त करने से फायदा नहीं हुआ. राज्यों के आर्थिक फैसलों में आजादी मिलने की
बजाए नया स्कीम राज मिला जिसे पुराने ढांचे पर लाद दिया गया.
3. पिछले तीन साल में राज्यों की वित्तीय स्थिति बिगड़ी है. बिजली घाटों की भरपाई, कर्ज माफी और राजस्व में कमी के कारण
राज्यों का समेकित घाटा बारह साल और बाजार कर्ज दस साल के सर्वोच्च स्तर पर है. यह
हालत चौदहवें वित्त आयोग से अधिक संसाधन मिलने के बाद है.
जीएसटी की असफलता ने राज्यों के खजाने की हालत और बिगाड़ दी है.
केंद्र व 20 राज्यों और करीब 60 फीसदी जीडीपी
पर शासन के बाद भी भाजपा को अगर अपनी सरकारों से नाराजगी का डर है और कुछ राज्यों
में सूबेदारों की तब्दीली के जरिए नाराजगी को कम करने की नौबत आन पड़ी है तो मानना
चाहिए कि लोकतंत्र मजबूत हो रहा है. सरकारों से नाराजगी लोकतंत्र की परिपक्वता का
प्रमाण है.
गुजरात से गोरखपुर तक मतदाता यह एहसास कराने लगे हैं कि प्रत्येक
चुनावी जीत अगली जीत की गारंटी नहीं है. क्या लोग सियासत और सरकार का फर्क समझने
लगे हैं अगर ऐसा है तो फिर याद रखना होगा कि इन लाखों अनाम लोगों की एक उंगली में
बला की ताकत है.
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