Monday, May 28, 2018

... मुक्त भारत !

 
एच.डी. कुमारस्वामी की ताजपोशी के लिए बेंगलूरू में जुटे क्षत्रपों को यह समझने में लंबा वक्त लगा कि युद्ध प्रत्यक्ष शत्रु से लड़े जाते हैंसियासत तोदरअसलकिसी को निशाना बनाकर किसी को निबटा देने की कला है.

कर्नाटक तक देश की सियासत इसी कला का अनोखा विस्तार थी. इसलिए यह बात साफ होने में देर लगी कि कौन खतरे में है और किसे डराया जा रहा थारणनीति के मोहरों पर छाई धुंध अब छंटने लगी है. पाले ख‌िंच रहे हैं. भारतीय राजनीति की वास्तविक जंग का बिगुल बेंगलूरू में बजा है.

शाह-मोदी की फौज पिछले चार साल से कांग्रेस मुक्त भारत बनाने की मुहिम में मुब्तिला है मानो मरी और लद्धड़ कांग्रेस कभी भी ड्रैगन की तरह जग उठेगी और भाजपा की भीमकाय चुनावी फौज को पलक झपकते निगल जाएगी. हकीकतन, 2014 के बाद भाजपा ने खुद ही कांग्रेस के प्रतिनायकत्व को महिमामंडित कियानहीं तो वोटर इस बुजुर्ग पार्टी को कभी का 10, जनपथ में समेट चुके थे.

नेता और रणनीतिदोनों में बौनी हो चुकी कांग्रेसभाजपा के चुनावी और राजनैतिक लक्ष्यों में बाधा नहीं बल्कि सुविधा है. यह कांग्रेस ही तो है जो अध्यक्षीय तौर-तरीके वाले दो दलीय काल्पनिक भाजपाई लोकतंत्र में एक फंतासी दुश्मन की भूमिका निभा सकती है. भाजपा को खतरा तो असंख्य क्षेत्रीय ताकतों व पहचानों से हैकांग्रेस की ओट में जिन्हें समेटने की कोशिश चल रही थी. यही पैंतरा अब नुमायां हो चला है.

शत्रुताओं का अध्ययनव्यक्त‌िगत और सामूहिक शास्त्रीय मनोविज्ञान का प्रिय शगल है. किसी बम या बंदूक को बनाने से पहले उससे मरने वाले शत्रु की संकल्पना करनी होती है. यह अवधारणा आजकल प्रेरक मनोविज्ञान का हिस्सा भी है. यानी एक ऐसी ताकत की कल्पना जो हमेशा हमारे खिलाफ साजिश में लगी है और जिसे लगातार धूल चटाते रहना सफलता के लिए जरूरी है.

भाजपा ने सत्ता में आने के बाद दो काल्पनिक शत्रु गढ़ेएक था वामपंथ जो पहले ही ढूंढो तो जाने की स्थिति में पहुंच चुका था और दूसरा था कांग्रेस मुक्त भारत.

वैसेभारत को कांग्रेस से मुक्त करने का बीड़ा उठाने की कोई जरूरत नहीं थी क्योंकि यह काम काफी हद तक कांग्रेस ने खुद ही कर लिया था. 2004 के आम चुनाव के बाद से 2014 तक कांग्रेस ने करीब 60 चुनाव हारे (2009 के बाद सर्वाधिक तेज रफ्तार से) और 29 चुनाव जीते. 2009 की लोकसभा जीत और 2014 की भव्य हार इनके अलावा है.

हार के आंकड़ों में कई बड़े राज्य (उत्तर प्रदेशबिहारपश्चिम बंगालतमिलनाडुगुजरातमध्य प्रदेशओडिशा) भी हैंजहां की नई पीढ़ी को गूगल से पूछना होगा कि आखिरी बार कांग्रेस ने वहां कब राज किया था.

2014 के बाद भाजपा को जो कांग्रेस मिली थीवह तो ठीक से विपक्ष होने के बोझ से भी मुक्त हो चुकी थी. 

दुश्मनों का खौफसेनाओं के प्रेरक मनोविज्ञान का हिस्सा होता है फिर चाहे वह जंग चुनावी ही क्यों न हो. अलबत्ता कांग्रेस को उसकी हैसियत से बड़ा प्रतिद्वंद्वी बनाने में भाजपा का सिर्फ यही मकसद नहीं था कि उसकी सेना हमेशा कांग्रेस के खिलाफ युद्ध के ढोल-दमामे बजाती रहे बल्कि इससे कहीं ज्यादा बड़ा मकसद उन क्षेत्रीय दलों को डराना या सिमटाना है जो उसके वास्तविक शत्रु हैं और जिन पर सीधा आक्रमण भविष्य की जरूरतों (गठबंधन) के हिसाब से मुफीद नहीं है.

अखिल भारतीय भाजपा बनाम क्षेत्रीय दलों का यह मुकाबलाअखिल भारतीय कांग्रेस बनाम क्षेत्रीय दल जैसा हरगिज नहीं है. भाजपा जिस एकरंगी राजनैतिक राष्ट्रवाद की साधना में लगी हैउसमें सबसे बड़े विघ्नकर्ता क्षेत्रीय दल हैं जो उप राष्ट्रवादी पहचानों की सियासत पर जिंदा हैं.

भाजपा के सांस्कृतिक धार्मिक राष्ट्रवाद में भी यही दल कांटा हैं जो जातीय अस्मिताओं को चमकाकर हर चुनाव को हिंदू बनाम हिंदू बना देते हैं. ध्यान रहे कि भाजपा को कर्नाटक में कांग्रेस ने नहींजनता दल (एस) ने रोका. बिहार में लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमारबंगाल में ममता बनर्जीओडिशा में नवीन पटनायक उसकी राह में खड़े हो गए.

कर्नाटक में पिटी कांग्रेस को, अतीत के बोदे अहंकार पर फूलने के बजाय 1995-96 की भाजपा बनना होगा. जब भाजपा क्षेत्रीय पहचानों की छाया में गैर कांग्रेसवाद का फॉर्मूला सिंझा रही थी.

क्षत्रपों को सड़क की धूप और धूल से मिलना होगा क्योंकि भाजपा बड़ी और बहुत बड़ी हो चुकी है और उसकी कांग्रेस मुक्त भारत मुहिम का निशाना राहुल गांधी नहीं बल्कि उन सभी क्षेत्रीय दलों का अस्तित्व है जिनके नेता कुमारस्वामी के सिर पर ताज रखने के लिए बेंगलूरू आए थे.




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