रुपए की गिरावट पर भाजपा नेताओं के कंटीले चुनावी भाषण राजनेताओं के लिए नसीहत हैं कि अर्थव्यवस्था की कथा में राजनीति के ढोर-डंगर नहीं हांकने चाहिए. रुपये की लुढ़कन पर सरकारी बयान वीर बगलें झांक रहे हैं क्योंकि उनकी वैचारिक जन्मघुट्टी में रुपये की कमजोरी का अपराध बोध घुला हुआ है.
बाजार से पूछ कर देखिए, वहां एक नौसिखुआ भी कह देगा कि रुपये की कमजोरी पर स्यापा फिजूल है. इसके वजन में कमी से नुक्सान नहीं है.
जानना चाहिए कि पिछले ढाई दशक में रुपया आखिर कितना कमजोर हुआ है और इस कमजोरी से क्या कोई "तबाही'' बरपा हुई है?
पिछले 18 साल (2000-2018) में अमेरिकी डॉलर के मुकाबले रुपया करीब 2.2 फीसदी सालाना की दर हल्का हुआ है. यह गिरावट 1990 से लेकर 2000 की ढलान के मुकाबले कम है जब रुपया औसत सात फीसदी की दर से गिरा था. 2008 से 2018 के बीच रुपया 4.9 फीसदी सालाना की दर से कमजोर हुआ. पिछले चार साल में अन्य मुद्राओं के मुकाबले रुपया स्थिर और ठोस रहा है.
पिछले ढाई दशक में प्रत्येक दो या तीन साल बाद रुपये और डॉलर के रिश्तों में उतार-चढ़ाव का चक्र आता है, जिसमें रुपया कमजोर होता है. यह गिरावट किसी भी तरह से न तो आकस्मिक है और न चिंताजनक. भारतीय अर्थव्यवस्था जैसे-जैसे विश्व के साथ एकीकृत होती गई, रुपया खुद को अन्य मुद्राओं के मुकाबले संतुलित करता गया है.
रुपये की मांसपेशियां फुलाये रखने के स्वदेशी हिमायती किस तरह की विदेशी मुद्रा नीति चाहते हैं, यह उन्होंने कभी नहीं बताया अलबत्ता रुपये के गिरने से कोई तबाही बरपा होने के समाचार अभी तक नहीं मिले हैं. 1990 के विदेशी मुद्रा संकट और 1991 में पहले सोचे-विचारे अवमूल्यन के बाद अब तक भारत का निर्यात 21 गुना बढ़ा है. विदेशी मुद्रा भंडार जरूरत के हिसाब से बढ़ता रहा. विदेशी निवेश ने आना शुरू किया तो फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा और भारतीय कंपनियों ने विदेश में खूब झंडे गाड़े.
रुपये की ताजा गिरावट चक्रीय भी है, मौसमी भी. अगर कमजोरी को कोसना ही है तो तेल की कीमतों पर नजला गिराया जा सकता है. आने वाले महीनों में डॉलर मजबूत रहेगा इसलिए रुपये की सेहत भी चुस्त रहेगी. रुपया एकमुश्त नहीं क्रमशः अपना वजन गंवाएगा.
तो सरकार करे क्या? दरअसल, रुपया गिरते ही सरकार को मौका लपक लेना चाहिए था.
भारत का निर्यात, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ताबड़ तोड़ विदेश यात्राओं से कतई नहीं रीझा. यह पिछले चार साल से एड़ियां रगड़ रहा है, जबकि माहौल व्यापार के माफिक रहा है. रुपये की मजबूती निर्यात के लिए मुसीबत रही है. अब गिरावट है तो निर्यात को बढ़ाया जा सकता है. यह अमेरिका और चीन के व्यापार की जंग में भारत के लिए नए बाजार हासिल करने का अवसर है.
अभी-अभी सरकार छोड़कर रुखसत हुए अर्थशास्त्री अरविंद सुब्रह्मण्यम ने बजा फरमाया है कि अगर भारत निर्यात में 15 फीसदी की सालाना विकास दर हासिल नहीं करता तो भूल जाइए कि 8-9 फीसदी ग्रोथ कभी मिल पाएगी.
यकीनन यह सबको मालूम है कि ग्रोथ की मंजिल थुलथुल नहीं बल्कि चुस्त रुपये से मिल सकती है. गुजरात जो कि भारत के विदेश व्यापार का अगुआ है, वहां से आने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से बेहतर यह कौन जानता होगा कि संतुलित विनिमय दर निर्यात के लिए कितनी जरुरी है लेकिन पिछले चार साल में रुपया मोटाता गया और निर्यात दुबला होता गया.
रुपये की कमजोरी पर रुदाली की परंपरा आई कहां से?
इस मामले में दक्षिण, वाम और मध्य, सब एक जैसी हीन ग्रंथि के शिकार हैं. 1991 में रुपये का अवमूल्यन करते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव की "व्यथा'' का किस्सा इतिहास में दर्ज है.
रुपये की मजबूती का खोखला दंभ अंग्रेज सिखाकर गए थे. भारत उनके माल का (आयात) बाजार था. वह भारत को प्राथमिक उत्पादों का निर्यातक बनाकर रखना चाहते थे, औद्योगिक उत्पादों का नहीं. इसलिए आश्चर्य रुपये के गिरने पर नहीं बल्कि "स्वदेशियों'' पर होना चाहिए जो दशकों से ब्रिटिश औपनिवेशिक आर्थिक नीति का मुर्दा ढो रहे हैं.
दिलचस्प है कि 2013-14 में जिनकी उम्र से रुपये की गिरावट को नापा गया था उन्हीं डॉ. मनमोहन सिंह ने 1991 में पहली बार संसद को यह समझाया था कि थुलथले रुपये में कोई राष्ट्रवाद नहीं छिपा है. रुपये के अवमूल्यन में पाप या अपमान जैसा कुछ नहीं है. अगर बाजार में हैं तो आपको प्रतिस्पर्धी होना ही होगा.
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