सेबी के चेयरमैन म्युचुअल फंड उद्योग
की बैठक में मानो आईना लेकर गए थे. यह उद्योग अब 23.5 लाख करोड़ रुपए (2013 में
केवल 5 लाख करोड़ रु.) की निवेश संपत्तियों को संभालता है. इस उत्सवी बैठक में सेबी
अध्यक्ष ने पूछा, इस
कारोबार में केवल चार म्युचुअल फंड 47 फीसदी निवेश क्यों संभाल रहे हैं जबकि (एसेट
मैनेजमेंट) कंपनियां तो 38 हैं.
कारोबार तो बढ़ा पर प्रतिस्पर्धा क्यों
नहीं बढ़ी?
नियामकों को ठीक ऐसे ही सवाल पूछने
चाहिए.
लेकिन टीआरएआइ चेयरमैन ने यही सवाल
टेलीकॉम कंपनियों से क्यों नहीं पूछा जहां प्रतिस्पर्धा घिसते-घिसते तीन ऑपरेटरों
तक सीमित हो गई है. कभी हर सर्किल में तीन ऑपरेटर थे. अब 135 करोड़ के देश में तीन
मोबाइल कंपनियां हैं.
क्या पेट्रोलियम मंत्रालय यह पूछेगा कि
पूरा बाजार तीन सरकारी पेट्रोल कंपनियों के पास ही क्यों है?
2015 में एक दर्जन से अधिक ई-कॉमर्स
कंपनियों से गुलजार भारत का बाजार अब पूरी तरह दो अमेरिकी कंपनियों के पास चला गया
है. सबसे बड़े ई-रिटेलर फ्लिपकार्ट को अमेरिकी ग्लोबल रिटेल दिग्गज वालमार्ट ने उठा
लिया. अब वालमार्ट का मुकाबला ई-कॉमर्स बाजार की सबसे बड़ी कंपनी अमेजन से है जो
भारत में पहले से है. यानी देसी ई- कॉमर्स कंपनियों का सूर्य डूब रहा है.
क्या भारत की मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था
एडिय़ां रगडऩे लगी है?
प्रतिस्पर्धा जमने से पहले ही बेदखल
होने लगी है?
नए बाजारवादी एकाधिकार उभर रहे हैं?
क्या बाजार चुनिंदा हाथों में केंद्रित
हो रहा है?
दरअसल, जो सेबी चेयरमैन ने म्युचुअल फंड
उद्योग से पूछा,
अगर उसका विस्तार किया जाए तो ऊपर लिखे
सच को स्वीकारना होगा.
क्या सरकार बताना चाहेगी कि ऐप आधारित
टैक्सी सेवा में केवल दो ही कंपनियां क्यों हैं? जेट एयरवेज अगर बीमार हुई तो विमान
सेवाओं के अधिकांश बाजार पर तीन (दो निजी, एक सरकारी) कंपनियों का एकाधिकार हो
जाएगा!
स्टील, दुपहिया वाहन, प्लास्टिक रॉ मटीरियल, एल्युमिनियम, ट्रक और बसें, कार्गो, रेलवे, कोयला, सड़क परिवहन, तेल उत्पादन, बिजली वितरण, कुछ प्रमुख उपभोक्ता उत्पाद सहित करीब
एक दर्जन प्रमुख क्षेत्रों का अधिकांश बाजार एक से लेकर तीन कंपनियों (निजी या
सरकारी) के हाथ में केंद्रित है. केवल कार, कंप्यूटर, फार्मास्यूटिकल्स, मोबाइल का बाजार ही ऐसा है जहां
पर्याप्त प्रतिस्पर्धा दिखती है.
उदारीकरण के करीब दो दशक बाद प्रतिस्पर्धा
बढऩे, मंदी के झटके, नई तकनीकों की आमद, नए अवसरों की तलाश और पूंजी की कमी से
बाजार में पुनर्गठन शुरू हुआ. कंपनियों के अधिग्रहण और विलय हुए. वोडाफोन-आइडिया, वालमार्ट-फ्लिपकार्ट, अडानी-रिलायंस एनर्जी, मिंत्रा-जबांग, एमटीएस-रिलायंस कम्युनिकेशंस, रिलायंस-एयरसेल, कोटक-बीएसएस माइक्रोफाइनांस, फ्लिपकार्ट-ई बे, बिरला कॉर्प-रिलायंस सीमेंट...
फेहरिस्त लंबी है.
2017 में भारत में 46.5 अरब डॉलर के
निवेश से कंपनियां बेची और खरीदी गईं. यह विलय व अधिग्रहण अगले साल 53 अरब डॉलर से
ऊपर निकल जाएगा.
बैंक कर्ज में फंसी कंपनियों की बिक्री
और बंदी भी प्रतिस्पर्धा को मार रही है. करीब 34 निजी बिजली कंपनियां कर्ज में दबी
हैं. कर्ज की वसूली उन्हें बंदी या बिक्री के कगार पर ले आएगी. यानी बिजली बाजार
में भी कुछ ही कंपनियां ही बचेंगी.
प्रतिस्पर्धा कम होने से मोबाइल सेवाओं, स्टील, ई-कॉमर्स, विमानन में रोजगार में खासी कमी आई है.
उपभोक्ताओं पर मनमानी या खराब सेवाएं थोपी जा रही हैं. प्रतिस्पर्धा की कमी से कई
उत्पादों में नए प्रयोग भी सीमित हो रहे हैं.
मुक्त बाजार में सरकारों और नियामकों
की जिम्मेदारी होती है कि वे बाजार में प्रतिस्पर्धा बढ़ाएं, नई कंपनियों के प्रवेश का रास्ता खोलें, कार्टेल और एकाधिकार समाप्त करें.
गूगल-फेसबुक वाली नई दुनिया की सबसे
ताजा चिंता बाजार पर निजी एकाधिकार हैं. अमेरिका की 100 प्रमुख कंपनियां देश की
आधी अर्थव्यवस्था पर काबिज हैं. 1955 में अमेरिका की अर्थव्यवस्था में फॉच्र्यून 500 कंपनियों का हिस्सा 35 फीसदी था, आज यह 72 फीसदी है.
ताकत और अवसरों का केंद्रीकरण राजनीति
और बाजार, दोनों जगह खतरनाक है. लोकतंत्र में
सरकार और बाजार को एक दूसरे की यह ताकत तोड़ते रहना चाहिए लेकिन अब तो राजनीति
(सरकार) बाजार में एकाधिकारों को पोस रही है और बदले में बाजार राजनीति को सर्वशक्तिमान
बना रहा है. यह गठजोड़ हर तरह की आजादी के लिए, शायद सबसे बड़ा खतरा है.
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