मानसरोवर में राहुल, इंदौर की बोहरा मस्जिद में
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुसलमानों के बिना हिंदुत्व की संकल्पना को खारिज
करते राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत!
राजनीति की षड्यंत्र कथाओं में टूट कर विश्वास
करने वाला भी यह मानेगा कि सब कुछ वैसे ही नहीं हो रहा है, जैसे खांचे हम गढ़ कर बैठे थे.
क्या लोकतंत्र के ताप में विचारधाराओं
के ध्रुव नरम पड़ रहे हैं? ध्रुव
बहेंगे या फिर जम जाएंगे? इस
पर फिर कभी लड़ लेंगे. पहले तो इस दृश्य को उन सब लोगों को आंख भर देख लेना चाहिए
जो यह मानते हैं, चंद्र
टरै सूरज टरै लेकिन राष्ट्रीय स्वयं संघ या कांग्रेस विचारधाराओं का जीवाश्म बन
चुके हैं.
विचार और विचारधारा का संघर्ष सबसे
दिलचस्प है. विचार स्वतंत्र और नया होता है जो रूढ़ विचारधारा के सामने खड़ा होता
है. भारत के लोकतंत्र में एक गहरी अदृश्य आंतरिक जीवनी शक्ति है जो वैचारिक
ध्रुवों को नए विचारों से मुठभेड़ के लिए बाध्य
कर रही है. नए विचार इनपुराने ध्रुवों के भीतर से ही निकल रहे हैं
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने बाकायदा
तीन दिन का अधिवेशन बुलाकर उन सभी सवालों के जवाब खुद दिए जिनके जवाब तो दूर, उन्हें पूछने का अवसर भी उन्होंने कभी
नहीं दिया. संघ के अधिवेशन का मजमून 'भविष्य का भारत' था.
क्या यह भविष्य में प्रासंगिकता की
जद्दोजहद है जिसमें विचारधाराएं पुनर्मूल्यांकन कर रही हैं!
''यदि हम मुस्लिमों को स्वीकार नहीं करते तो या
हिंदुत्व नहीं है हिंदुत्व का अर्थ सर्व-समावेशी भारतीयता है.'' संघ के प्रमुख से यह सुनकर बहुतों को अपने कान साफ करने पड़े
होंगे.
भारत की दक्षिणपंथी राजनीति को जब लंबे
संघर्ष के बाद सत्ता मिली तो उसे वह रुढ़िवादी, कट्टर ऊंचाई भा नहीं रही है, जिस पर टिके रहकर ही वह यहां तक आई है.
संघ का मुस्लिम समावेशी हिंदुत्व का पक्षधर होना भारतीयता की पुरानी परिभाषाओं में
स्वाभाविक है लेकिन जिस भारतीय दक्षिणपंथ को हम जानते हैं और जिसकी कट्टरता के कई
आयाम देख चुके हैं उसका यह समावेशी विचार चाहे जितने राजनैतिक मंतव्य समेटे हो लेकिन
शुभ और मंगलमय है.
दूसरे ध्रुव यानी कांग्रेस, जिसे हम अब तक जानते रहे हैं उससे भी
यह उम्मीद नहीं की गई थी कि उसके नेता उन प्रतीकों को गर्व के साथ अपनाते नजर
आएंगे जो धर्मनिरपेक्षता की चिरंतन कांग्रेसी परिभाषा में वर्जित रहे हैं. राहुल
गांधी की मंदिर यात्राओं में चाहे जो प्रतीकवाद हो लेकिन कांग्रेस का तरल हिंदुत्व, संघ के समावेशी हिंदुत्व जितना ही ताजा, रोचक और संभावनामय है.
तो क्या भारतीय राजनीति के वैचारिक
ध्रुव लोकतंत्र की सर्वसमावेशी अदृश्य शक्ति का संदेश सुन रहे हैं? क्या दोनों ध्रुव यह मान रहे हैं भारत
बहुसंख्यक अल्पसंख्यकों का देश है जो भारत के भविष्य की राजनीति को निर्धारित
करेंगे.
क्या संघ को यह समझ में आ गया है कि
उनके बहुसंख्यकवाद के भीतर जातियों, भाषा, संबंधों, जीवन पद्धति पर आधारित असंख्य अल्पसंख्यक
हैं जिन्हें एक पहचान में समेटना राजनैतिक रूप से असंभव है. और क्या कांग्रेस को
यह एहसास हो गया है कि उसकी धर्मनिरपेक्षता, बहुसंख्यक भारतीयता की जड़ों से कटी
नहीं होनी चाहिए?
कांग्रेस का तरल हिंदुत्व और संघ का
समावेशी हिंदुत्व भारत में एक नई राजनीति मुख्यधारा बनाने की कोशिश है जो अतीत की
राजनैतिक मुख्यधाराओं से ज्यादा वृहत और व्यापक हो सकती है!
लेकिन इससे पहले हमें देखना होगा कि जब
कट्टरता सिर उठाएगी तब संघ का उदार हिंदुत्व क्या बोलेगा? चुनावों में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की
राजनीति बनी रहेगी या कांग्रेस का अल्पसंख्यकवादी मोह फिर सक्रिय होगा?
अभी हमें यह भी देखना है कि भारत में
कट्टरता अन्य द्वीप-अंतरीप (अल्पसंख्यक संगठन) इस नए उदारवाद पर अपनी जिदें छोड़ते
हैं या नहीं.
हम इस नए उदारवाद को खारिज कर सकते
हैं. हम इनमें चुनावी चालाकियां देख सकते हैं. हम संघ और कांग्रेस के अतीत को
कुरेद कर इसे नकली साबित कर सकते हैं. हम इन में षड्यंत्र तलाश सकते हैं.
लेकिन क्या ऐसे निष्कर्ष हमें वहीं
सीमित नहीं कर देंगे, संघ
और कांग्रेस जहां से आगे बढऩे की कोशिश कर रहे हैं! इस नए उदारवाद पर शक करते हुए
हम भारतीय लोकतंत्र की उस महाशक्ति को छोटा नहीं कर रहे होंगे जो सदियों से इस
वैविध्यपूर्ण राष्ट्र को संभालती-सहेजती आई है!
भारतीय लोकतंत्र में एक नया वैचारिक
महामंथन शुरू हो रहा है. नतीजों का इंतजार करना होगा.
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