Friday, November 15, 2019

क्रांति का शोकांत


दस साल के भीतर करोड़ों हाथों में मोबाइल देने वाले टेलीकॉम उद्योग की प्रतिस्पर्धा (दो कंपनियां बचींमृत्यु शैया पर हैबची हुई सरकारी कंपनियों के मुंह में गंगा जल डाला जा रहा हैनेटवर्क लाइलाज हैं और मोबाइल सेवा महंगी हो रही है.

देश की सबसे चमकदार क्रांति एड़ियां रगड़ रही है.

भारत जैसे किसी देश में ऐसा कम ही हुआ होगा जब एक दशक के भीतर सरकारों के नीतिगत अंधत्व ने देश की सबसे बड़ी सफलता को नेस्तनाबूद कर दिया.

सबसे पहले सबसे ताजा उदाहरण...

अगर दूरसंचार कंपनियों को राहत ही दी जानी थी तो फिर दूरसंचार विभाग 2005 से नई लाइसेंस फीस की नई परिभाषा लागू करने का मुकदमा क्यों लड़ रहा था जिसके तहत देश की प्रमुख निजी टेलीकॉम (खासतौर पर एयर टेल  वोडाफोन-आइडियाकंपनियों पर करीब एक लाख करोड़ रुकी देनदारी निकली हैअब इस बोझ से डूब रही कंपनियों को बचाने के लिए आला अफसरों की एक कमेटी बिठा दी गई हैजो नया राहत पैकेज लेकर आएगी.

मार्च, 2015 में मोदी सरकार ने भारत के इतिहास की तथाकथि सबसे सफल स्पेक्ट्रम नीलामी की थीकैमरों के सामने डटे मंत्री दावे कर रहे थे कि इस नीलामी से 1.10 लाख करोड़ रुमिलेंगेऔर सरकार ने 2जी घोटाले के कथित नुक्सान की भरपाई कर ली है.

मार्च 2018 आते-आतेऊंची कीमत पर स्पेक्ट्रम खरीदने वाली टेलीकॉम कंपनियां 7.7 लाख करोड़ रुके कर्ज में दब गईंकंपनियों की चीत्कार (लामबंदीसे पिघलते हुए सरकार ने तय किया कि अब वे दस साल की जगह 16 साल में स्पेक्ट्रम की फीस देंगीयानी मार्च 2015 की महान ‘उपलब्धि’ तीन साल के भीतर कंपनियों पर 550 अरब रुकी मेहरबानी में बदल गई.

आप फिर पूछ सकते हैं कि अगर माफी ही देनी थी तो इतना महंगा स्पेक्ट्रम बेचने की जरूरत क्या थीसरकार को कुछ मिला नहींकंपनियों का कुछ गया नहींबस बैंक (आम लोगों की बचतकट गएजो स्पेक्ट्रम के बदले कंपनियों कर्ज दे बैठे थे.

गलतियों से  सीखने की जिद इस उद्योग से जुड़ी सरकारी नीतियों का स्थायी भाव बन चुकी है. 1999 में दूरंसचार कंपनियों को भारी लाइसेंस फीस की जकड़ से आजाद करने से लेकर आज तक सरकार यह तय नहीं कर पाई है कि वह कंपनियों को फलने-फूलने देना चाहती है या उनको निचोड़ लेना चाहती हैसुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद एक बार फिर सरकार का एक हाथ कंपनियों को निचोड़ लेना चाहता है जबकि दूसरा उसके लिए उद्धार पैकेज गढ़ने में लगा है.

टेलीकॉम क्षेत्र का गला घोंट देने वाली नीतिगत धुंध की शुरुआत उस 2जी घोटाले से हुई जो अदालत में कभी साबित नहीं हुआसभी आरोपी बरी हो गएजांच एजेंसियों ने हाइकोर्ट के फैसले के खिलाफ ऊंची अदालत में जाने की जहमत नहीं उठाई लेकिन आरोपियों पर फैसला आने से पांच साल में 122 कंपनियों के लाइसेंस रद्द हो गएअरबों का निवेश डूबाहजारों की नौकरियां गईं और दूरसंचार बाजार का चेहरा बदल गया.

उद्योग में प्रतिस्पर्धा खत्म हो गईकार्टेल और एकाधिकार उभरने लगेनिजी कंपनियों की लामबंदी में उलझी सरकार अपने उपक्रमों (बीएसएनएल-एमटीएनएलको प्रतिस्पर्धात्मक बनाना तक भूल गईआज दोनों सरकारी कंपनियां इतिहास बनने की तरफ अग्रसर हैं.

पहले मोटी लाइसेंस फीस या महंगा स्पेक्ट्रम और फिर माफी (बेलआउट)  ... भारत के टेलीकॉम सेक्टर में यह इतनी बार हुआ है कि भंवर में फंस कर पूरा का पूरा उद्योग तबाह हो गया.

कहना मुश्कि है घोटाला 2जी आवंटन में हुआ या उसके बादलेकिन आज हम यहां खड़े हैं:

·       पूरा बाजार दो कंपनियों के हाथ में सिमट रहा हैउसमें भी एक (एयरटेलबुरी हालत में है और दूसरी (वोडाफोन-आइडियाअब गई कि तब. 

·       बैंकों के नए एनपीए टेलीकॉम क्षेत्र में उग रहे हैं

·       मोबाइल नेटवर्क बद से बदतर हो गए

·       5जी का क्रियान्वयन मुश्कि हैइसमें अब एकाधिकार का खतरा हैक्योंकि स्पेक्ट्रम किराया देने की क्षमता केवल रिलायंस जिओ में है

·       अब बारी महंगी टेलीकॉम सेवा की है

टेलीकॉम क्रांति की यह दुर्दशा प्राकृतिक संसाधनों को बाजार में बांटने की नीति में असमंजस के कारण हुई हैराजस्व को बढ़ता हुआ दिखाने के लिए सरकार ने ऊंची कीमत पर स्पेक्ट्रम की नीलामी (या फीसकी और करोड़ों उपभोक्ताओं के बाजार को राजनैतिक रसूख वाली दो-तीन कंपनियों को सौंप दियाइन कंपनियों ने बैंकों से कर्ज (जमाकर्ताओं का पैसाउठाकर सरकार के खाते में रख दिया और फिर बाद में फीस भुगतान में मोहलत भी ले लीयही सुप्रीम कोर्ट के ताजा निर्णय के बाद होने वाला है.

जरूरत दरअसल यह थी कि संसाधनों का सही मूल्यांकन किया जाएउन्हें सस्ता रखा जाए ताकि उनके इस्तेमाल से निवेशमांगनौकरियां और प्रतिस्पर्धा बढ़े और उपभोक्ता के लिए दरें कम रहें.

अब हम टेलीकॉम क्रांति के शोकांत के करीब हैंजहां 2015 के बाद से करीब एक लाख से ज्यादा नौकरियां जा चुकी हैं.

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