दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र और तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बहुप्रतीक्षित 2020 दहलीज
पर बेचैन और अनिश्चित मध्य
वर्ग के साथ कदम रखने जा रही है. वही
मध्य वर्ग जो भारत की आधुनिक जीवनी शक्ति का आधार है और अरस्तू ने जिसे लोकतंत्र का सबसे मूल्यवान समुदाय कहा था, जो
सत्ता को तर्कसंगत और संतुलित फैसलों पर विवश करता है.
भारतीय मध्य वर्ग सामाजिक-आर्थिक
पैमानों तक सीमित नहीं है. बीते
दो दशकों में भारत के हर क्षेत्र में एक मध्य वर्ग बना है, जो
संकट और संक्रमण में है. 21वीं
सदी के दूसरे दशकांत पर इस बदलाव को समझने के लिए जीडीपी या चुनावी आंकड़ों के पार जाना होगा.
· पिछले दो दशक में हर मिनट करीब 44 लोग
घोर गरीबी से बाहर निकले. ब्रुकिंग्स
के मुताबिक, देश 2030 तक घोर गरीबी (1.9 डॉलर
प्रति दिन यानी करीब 130 रुपएः
विश्व बैंक) से
निकल आएगा.
· 2011-2016
के बीच विभिन्न
शहरों के बीच हर साल करीब 90 लाख
लोगों ने प्रवास किया. यह
भारत का सबसे बड़ा आंतरिक प्रवास है. ( आर्थिक सर्वेक्षण 2017)
· भारत के मध्य वर्ग में अब 60 से 70 करोड़ लोग शामिल हैं, जिनमें
शहरों के छोटे हुनरमंद कामगार भी हैं. करीब 40 फीसद आबादी नगरीय हो चुकी है.
· इस बदलाव ने करीब 83 ट्रिलियन
रुपए की एक विशाल खपत अर्थव्यवस्था तैयार की है (बीसीजी). 2015 में उम्मीद की गई थी कि नया मध्य वर्ग अगले एक दशक में करीब 45 फीसद
खपत संभालेगा और रोटी, कपड़ा
और मकान के बाद शिक्षा
मनोरंजन, तकनीक
पर खर्च करेगा.
· इस भव्य आर्थिक-सामाजिक बदलाव की बुनियाद दो उभरते मध्य वर्गों ने बनाई है.
· सेवा क्षेत्र (जीडीपी
का 68%) ने
भारत की मझोली कंपनियों को नया आकाश दिया. क्रिसिल
के अनुसार, 2016 (जीएसटी से पहले) तक, मैन्युफैक्चरिंग की तुलना में सेवा क्षेत्र में छोटे-मझोले
उपक्रमों की संख्या 20 फीसद
की गति से बढ़ी. सेवाओं
में पांच करोड़ छोटी-मझोली
इकाइयां सक्रिय हैं. ताजा
स्टार्ट अप क्रांति भी इसी वर्ग का हिस्सा है. मंदी
ने यहां गहरी मार की है
· खपत और मांग की मदद से घरेलू व्यापार तेजी से बढ़ा. जीएसटी
के आंकड़े बताते हैं कि घरेलू व्यापार जीडीपी में 60 फीसद
का हिस्सेदार है
· डीलर, वितरक
और छोटे-मझोले
सेवा प्रदाताओं के नए तंत्र ने अर्थव्यवस्था की रीढ़ तैयार की है. जो
एक तरफ टैक्स जुटाता है और दूसरी तरफ खपत और रोजगार बढ़ाता है. नया
मध्य वर्ग इसी रीढ़ का सहारा लेकर खड़ा हुआ है
· जनसंख्या, उद्योग
और कारोबार का मध्य ही अब मंदी के बीच एक अभूतपूर्व संकट से मुखातिब है
· औद्योगिक मध्य वर्ग की मुसीबतें 2013 से
ही शुरू हो गई थीं. मंदी
गहराने के साथ तालाबंदी बढ़ी और कारोबारी हिस्सा बड़ी कंपनियों के हाथ पहुंच गया. 2013 के
बाद विभिन्न स्थानीय ब्रांडों की असमय मौत हुई. अब
भारतीय अर्थव्यवस्था एकाधिकार
रखने वाली बड़ी कंपनियों और असंख्य लघु प्रतिष्ठानों के बीच बंट रही है. नोटबंदी
और जीएसटी ने इस मध्य वर्ग पर चोट की है जहां सबसे ज्यादा रोजगार थे और इन्हीं कंपनियों के बड़े होने की संभावना थी.
· जीएसटी के घटिया क्रियान्वयन और बढ़ी लागत से स्थानीय और अंतरराज्यीय कारोबार के बिजनेस मॉडल टूट गए. डीलर
और वितरक कस्बाई अर्थव्यवस्था में खपत, मांग
व निवेश
का जरिया थे, जो
अकुशल और अर्धकुशल श्रमिकों को पनाह देते थे. 45 साल
की सबसे ऊंची बेकारी दर (2017-18) इसी
संकट की देन है
यही संकट मध्य वर्गीय आबादी की जेब और खपत में दिख रहा है जिस पर अगले कई दशकों के विकास का दारोमदार है.
· 1990 से 2015 के
बीच 50,000 रुपए
से अधिक सालाना उपभोग आय वाले लोगों की संख्या 25 लाख
से 50 लाख
हो गई थी. 2015 के
बाद आय बढ़ने की रफ्तार गिरी. स्टेट
बैंक रिसर्च के अनुसार, 2019 में ग्रामीण और कॉर्पोरेट आय बढ़ने की दर 1.2 फीसद
के स्तर पर रही है जो 2011-15 के
बीच 8 और 6 फीसद पर थी.
· 2011 के बाद भारत में निजी उपभोग खपत 7.2 से 6 फीसद की गति से बढ़ रही थी जो इस साल की शुरुआती तिमाही में 3 फीसद
पर आ गई. जीडीपी ढहने की यही बड़ी वजह है क्योंकि यह खपत जीडीपी में 60 फीसद
का हिस्सा रखती है.
· आम लोगों की बचत भी जीडीपी के अनुपात में बीस साल के न्यूनतम स्तर पर आ गई
है. दो
दशकों में पहला मौका है जब मध्य वर्ग की खपत और बचत, दोनों
एक साथ बुरी तरह गिरी हैं.
सनद रहे, अरस्तू ने कहा था कि बड़े और मजबूत मध्य वर्ग न हों तो सरकारें या लोकलुभावन हो जाएंगी या फिर अति धनाढ् य वर्ग के हाथ में पहुंच जाएंगी. ऐसी सरकारों के उत्पीड़क बन जाने का खतरा बढ़ जाता है. दुनिया के सबसे अच्छे संविधान हमेशा विराट और जीवंत मध्य वर्ग से नियंत्रित होने चाहिए.
भविष्य
में निर्णायक छलांग के मौके पर भारत की सबसे बड़ी ताकत छीज रही है. मध्य
वर्ग का सिकुड़ना राजनैतिक भविष्य के प्रति भी आशंकित
करता है
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