Friday, January 31, 2020

29 बजटों का सवाल


 केंद्र सरकार का अकेला बजट मंदी का भाड़ फोड़ सकता होता तो फिर छहशानदारबजटों के बावजूद हम औंधे मुंह धंस गए होते? अथवा टैक्स या कर्ज रियायतों के ताजे पैकेज (ऑटोमोबाइल, हाउसिंग, कॉर्पोरेट के टैक्स में कमी, एनबीएफसी, लघु उद्योग) सिर के बल खड़े हो जाते.

2020-21 का बजट कुछ ऐसी वजहों से संवेदनशील होने वाला है जो अर्थव्यवस्था और सियासत, दोनों के लिए कीमती हैं. बजट जैसे ही संसद की दहलीज पार करेगा, एक बिल्कुल नई जद्दोजहद दिल्ली से निकलकर राज्यों की राजधानियों तक फैल जाएगी. राज्यों में विपक्ष का उभार, मंदी और केंद्र सरकार की राजकोषीय ढलान केंद्र और राज्यों के आर्थिक रिश्तों का नक्शा बदलने जा रही हैं. यह बजट उस नए मानचित्र की भूमिका हो सकता है.

बजट के समानांतर तीन बड़े प्रस्ताव वित्त मंत्रालय और वित्त आयोग के गलियारों में टहल रहे हैं, जो अगर लागू होने की तरफ बढ़ते हैं तो राजकोषीय गणि भी बदल जाएगा और देश की सियासत का समीकरण भी.

केंद्र सरकार राज्यों के केंद्रीय करों के सामूहिक संग्रह में मिलने वाले हिस्से (42 फीसद) को कम करना चाहती है. केंद्र का घाटा संभल नहीं रहा है. तर्क यह होगा कि राज्यों को जीएसटी से होने वाले घाटे की भरपाई की जा रही है.

केंद्रीय करों में राज्यों के हिस्से से राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए एक नया कोष बनाने की तैयारी है. यह कोष भारत की समेकित निधि‍ (कंसॉलिडेटेड फंड) से अलग होगा.

केंद्र प्रायोजित स्कीमों की संख्या में कमी का प्रस्ताव है. इन स्कीमों की संख्या सौ के करीब है. केंद्र-राज्य मिलकर इनका वित्त पोषण करते हैं. इनके विलय और समापन से 20,000 करोड़ रुपए काटे जाएंगे. इससे राज्यों को केंद्र से मिलने वाले संसाधनों में कमी आएगी.

मुख्यमंत्री से प्रधानमंत्री बनने वाले नरेंद्र मोदी की सरकार ने शुरुआत योजना आयोग को खत्म करने के साथ की थी जिसका मतलब राज्यों को आजादी और ताकत देना था लेकिन हुआ दरअसल उसका उलटा ही. 2015 में 14वें वित्त आयेाग की सिफारिश मानकर केंद्रीय करों के पूल में राज्यों का हिस्सा 32 से बढ़ाकर 42 फीसद तो कर दिया गया लेकिन इसके बदले

केंद्र से राज्यों को जाने वाले अनुदान संसाधनों में कटौती शुरू हो गई

केंद्र सरकार के कुछ बड़े मिशन राज्यों के गले बांध दिए गए, जिससे राज्यों की अपनी योजनाएं पिछड़ गईं

जीएसटी गया जिससे टैक्स लगाने की राज्यों की ताकत सीमित हो गई

और केंद्र ने सेस यानी उपकर के जरिए टैक्स जुटाना शुरू कर दिया, जिनको राज्यों के साथ बांटा नहीं जाता

2015 के बाद राज्यों ने अपने विकास (पूंजी) खर्च में बढ़ोतरी की जबकि केंद्र का व्यय कम होता गया. 2018 में पूंजी खर्च में राज्यों का हिस्सा 43 फीसद (2010 में 32 फीसद) हो गया है. अलबत्ता जीएसटी के साथ टैक्स लगाने के विकल्प सीमित हो गए लेकिन राजस्व संग्रह गिरने के कारण जीएसटी से नुक्सान की भरपाई (केंद्र से) नहीं हुई इसलिए कर्ज पर निर्भरता बढ़ती चली गई. 2018 में छह बडे़ राज्य कर्ज के खतरनाक बोझ में हैं जबकि करीब 15 राज्य राजकोषीय घाटे की निर्धारित सीमा पार कर चुके हैं. किसान कर्ज माफी और उदय स्कीम के तहत बिजली बोर्ड के घाटे बजट पर लेने से बजटों की हालत और खराब हो चुकी है. नतीजतन केंद्र और राज्यों का साझा राजकोषीय घाटा जीडीपी के अनुपात में दस फीसद पर है.

केंद्र सरकार जब वित्तीय ताकत अपने हाथ में समेट रही थी तब शायद सवाल इसलिए नहीं उठे क्योंकि राज्यों में भाजपा के मुख्यमंत्री थे अब जबाकि चार बड़े राज्यों (गुजरात, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक और बिहार) को छोड़कर शेष देश में विपक्ष का राज है तो अब राज्य वापस अपनी वित्तीय ताकत पाने की जद्दोजहद शुरू करेंगे. पिछली जीएसटी काउंसिल बैठक में मतविभाजन इसका सबूत है.

2020 के बजट के बाद आर्थि सियासत में एक नई रस्साकशी शुरू होने वाली है जिसमें केंद्र सरकार को यह तय करना होगा कि वह मंदी दूर करने के लिए राज्यों को ताकत देगी या फिर अपनी आर्थिक ताकत बढ़ाने का सिलसिला बनाए रखेगी. यही जद्दोजहद अगले एक साल में केंद्र राज्यों के रिश्तों का नया रसायन बनाएगी.

कभी-कभी कुछ चीजें करीब से देखने पर बहुत बड़ी लगती हैं जैसे कि केंद्र सरकार का बजट जो देश के विराट जीडीपी के ऊंट में मुंह में जीरा है. केंद्र का कुल समग्र खर्च जीडीपी में महज 13 फीसद का हिस्सेदार है लेकिन सुर्खियां ऐसे खाता है मानो यह हर मर्ज की शर्तिया दवा हो, जबकि मंदी से उबरने की राह राज्यों के 29 बजटों से निकलेगी जो केंद्र के साथ मिलकर जीडीपी में 27 फीसद खर्च के हिस्सेदार हैं.

मंदी दूर करने के लिए केंद्र को अपनी ताकत से समझौता करना होगा और सियासत के आग्रह छोड़कर राज्यों को मुहिम की कमान देनी होगी नहीं तो भारत के संघीय ढांचे मे आने वाली दरारें मंदी की सबसे बड़ी ताकत बन जाएंगी.


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