नत्थू हलवाई और डोनाल्ड ट्रंप दोनों एक ही भ्रम में थे कि हमें कोरोना कैसे हो सकता है? ट्रंप
ने शुरुआत में (अब
तक 1.5 लाख
मौतें) वायरस
को झूठा खौफ कहा था और वे भारत में (अब
तक 15 लाख
संक्रमण) तालियां
बटोरने गांधीनगर आ गए. दूसरी तरफ मास्क पूछने पर गाली बकने वाले नत्थू समोसे बेचते हुए खुद अस्पताल पहुंच गए और बहुतों को कोविड बांट दिया.
मास्क न पहनने
वाले, जूम
वीडियो की जगह जूम टेक्नो का शेयर खरीद लेने वाले और भारत-चीन
के मुखिया
की बीते छह बरस में 18 मुलाकातों
पर लहालोट होने वालों में अनोखी समानता है. सभी
आशावादी पूर्वाग्रह शिकार
हैं, जिससे
अभिभूत
असंख्य भारतीय मानते हैं कि आत्मनिर्भर पैकेज से मंदी यूं गई समझो या बैंकों में रखी उनकी बचत पूरी तरह सुरक्षित
है.
मनोविज्ञानियों ने आशावादी पूर्वाग्रह (ऑप्टिमिज्म बायस) की
खोज 1980 में
ही कर ली थी लेकिन हेल्थ और वेल्थ यानी सेहत और निवेश-बचत
पर इसके नुक्सानदेह असर के बारे में हाल में ही पता लगा. मानवीय
व्यवहारों के नए अध्ययन बताते हैं कि दुनिया के 80 फीसद
लोग इसके शिकार
हैं. वे
अपने ही दिमाग की चालबाजी समझ नहीं पाते. तथ्यहीन
आशाओं के कारण इस पूर्वाग्रह के मरीजों को हमेशा लगता है कि मुसीबत उन पर नहीं पड़ोसी पर आएगी. नतीजतन
वे गलत फैसले कर बैठते हैं.
संतुलित आशावाद रोगों से लड़ने में मदद करता है लेकिन आज अगर दुनिया में छह लाख लोगों ने कोविड से (1.65 करोड़
बीमार) जान
गंवाई हैं तो इसकी वजह यही दंभयुक्त
भ्रम है कि कोरोना हमें नहीं हो सकता. यूरोप-अमेरिका में भी बहुतों ने शारीरिक दूरी और मास्क की अहमियत समझने में लंबा वक्त जाया कर दिया.
मनोभ्रमों की दुनिया पुरानी है. आर्थिक या
शारीरिक (सेहत) जीवन पर इसके असर की पैमाइश अभी शुरू हुई है. इक्कीसवीं
सदी की दो आपदाओं ने यह साबित किया कि आशावादी पूर्वाग्रह के कारण तकनीक और ज्ञान से लैस देश भी आपदाओं का आकलन करने में चूक गए.
2008 में किसी को भरोसा नहीं था कि लीमन ब्रदर्स जैसा विराट बैंक डूब जाएगा, जैसे
कि 2018 में
कौन मान रहा था कि भारत में जेट एयरवेज डूब सकती है. ताली-थाली बजाने वाले दिनों में कोरोना से डराने और स्वास्थ्य सेवा पर सवाल उठाने वाले दुरदुराए जा रहे थे. इसी
तरह बहुत लोग आज यह नहीं मानेंगे कि कोविड बैंकों पर बहुत भारी पडे़गा या एलआइसी भी कभी डूब सकती है!
‘सब चंगा सी’ वाले भ्रमों-पूवाग्रहों का एक पूरा परिवार है जो गलत फैसले करने पर मजबूर करता है. जैसे सन्नाटों के सिलसिले (स्पाइरल ऑफ साइलेंस) नामक मनोभ्रम को ही लें. चीन कब संदिग्ध नहीं था पर छह साल में जब भारत-चीन समझौते या
चीनी कंपनियों के निवेश हो रहे थे तब सवाल पूछने की बजाए विदेश नीति की कामयाबी के ढोल बजाए जाने लगे. नतीजा
आज सामने आया.
चीनी कंपनियों के निवेश हो रहे थे तब सवाल पूछने की बजाए विदेश नीति की कामयाबी के ढोल बजाए जाने लगे. नतीजा
आज सामने आया.
वित्तीय बाजारों के शुक्राचार्य कभी मान ही नहीं सकते थे कि लाइबोर (दुनिया
में ब्याज दर तय करने का अंतरराष्ट्रीय पैमाना) को
चुराया जा सकता है. लेकिन
उनके सामने बैंक डूबे और लाइबोर की फिक्सिंग
हो गई. वे
सब उपलब्ध तथ्यों के पार देखने को (अवेलेबिलिटी
बायस) राजी
नहीं थे. तभी
तो ज्ञानी जानवरों के झुंड (हर्ड
बिहेवियर) इस
साल मार्च में जूम वीडियो की जगह जूम टेक्नो के शेयर खरीदने दौड़ पड़े थे.
जीएसटी की तैयारी अधूरी थी लेकिन आशावादी पूर्वाग्रह (ऐसा मनोभ्रम जिसमें तथ्यों को ही नकार कर, पहले
ही नतीजे तय कर दिए जाते हैं) पूरा
था. सो, भारत की कथित
आर्थिक क्रांति तीन माह में ही ध्वस्त हो गई.
आशावादी पूर्वाग्रहों से ग्रसित लोगों की भीड़, सामूहिक
अज्ञान (प्लुरलिस्टिक
इग्नोरेंस) में
फंस जाती है. इस
तरह के समाज तथ्यों और अतीत के अनुभवों को नकार कर पूर्वाग्रहों के आधार पर सूचनाओं की व्याख्या की आदत डाल लेते हैं और एक मनगढ़ंत सहमति (फॉल्स
कन्सेंसस) जन्म
लेती है. कुटिल
राजनीति के लिए
यह सबसे बड़ी मन्नत पूरी होने जैसा है. जैसे
कि बुनियादी अर्थशास्त्र समझने वाले किसी भी व्यक्ति को पता था कि नोटबंदी के दौरान 95 फीसद
मुद्रा बाजार से खींच लेने के बाद अर्थव्यवस्था ध्वस्त हो जाएगी पर लोग सवाल उठाने की बजाए पालकी उठाने में लग गए.
मुश्किल
यहां तक बढ़ चुकी है कि आर्टिफिशियल
इंटेलिजेंस और मशीन लर्निंग के निर्माताओं के पूर्वाग्रह उनके प्रोग्राम में घुसकर नतीजों को प्रभावित कर रहे हैं.
माया को सत्य की छाया मानने वाला भारतीय दर्शन, संदेह (जैन दर्शन का स्यादवाद) को ज्ञान के केंद्र में रखता है. संशय यानी जागरूकता सेहत और संपत्ति दोनों के लिए लाभदायक है. सरकारी दावों और सूचनाओं को नमक चाटकर निगलने वाले हमेशा फायदे में रहे हैं. सवाल उठाने वाले नकारात्मक नहीं हैं. वह उस सुरक्षा चक्र का हिस्सा हैं जो अंधी श्रद्धा को तर्कसंगत विश्वास में बदलता है.
जागते रहिए, कहीं
कोई मसीहा नहीं है जो मौके पर प्रकट होकर आपका सब कुछ बिखरने से बचा लेगा.
फिलहाल अज्ञानता को मिटाने वाले आप जैसे लोग ही भारतीय समाज के मसीहा हैं
ReplyDeleteकाश दो चार और मसीहा होते तो चीजें उतनी नहीं बिगड़ती
हमेशा की तरह बहुत ही सामान्य तरीके से विषय को समझाने का आपका तरीका प्रशंसनीय है, तार्किकता और सार्थकता के साथ विषय को परिभाषित करने के लिए आप बधाई के पात्र हैं
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