भारत में यह फर्क अब खासा महत्वपूर्ण होने वाला है कि आप किस राज्य
में रहते हैं और रोजगार का मौका कौन से राज्य में मिलता है. यह बात हरियाणा या
झारखंड में राज्य के निवासियों को रोजगार (निर्धारित वेतन सीमा से नीचे) देने की
शर्त तक सीमित नहीं है बल्कि रोजगारों और लोगों के जीवन स्तर में बेहतरी भविष्य
में इस तथ्य से तय होगा कि विभिन्न राज्य मंदी के बाद आने वाले सबसे बड़े वित्तीय
उलट-फेर को कैसे संभाल पाते हैं.
राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में मंदी की बहस से निकलकर अब राज्यों की तरफ
देखने की जरूरत है, लॉकडाउन ने जिनकी अर्थव्यवस्थाओं की बुरी गत बना दी है. राज्यों के
अपने राजस्व नुक्सान तो अलग हैं, ऊपर से उन्हें जीएसटी के हिस्से में इस वित्त वर्ष में केंद्र से करीब
तीन लाख करोड़ रुपए कम मिले. अगले साल भी इतनी ही कमी रहनी है.
जोर का झटका
राज्यों की कमाई या राजस्व को बहुत बड़ा झटका लगने वाला है. केंद्र ने
राज्य सरकारों को जीएसटी में नुक्सान की भरपाई की जो गारंटी दी है, वह 2023 में खत्म हो जाएगी. 15वें वित्त आयोग ने अपनी ताजा रिपोर्ट
में इसे बढ़ाने की कोई सिफारिश नहीं की है. इस गारंटी के खत्म होने से राज्यों के
राजस्व का पूरा संतुलन बदल जाएगा और नुक्सान की भरपाई का इंतजाम उन्हें खुद करना
होगा.
यही नहीं, वित्त आयोग ने केंद्रीय करों में राज्यों की हिस्सेदारी का फॉर्मूला
भी बदल दिया है. नई व्यवस्था में जनसंख्या नियंत्रण, स्वास्थ्य व शिक्षा और पर्यावरण के
क्षेत्र में बेहतर प्रदर्शन के पैमाने भी जोड़े गए हैं. इंडिया रेटिंग्स की
रिपोर्ट के अनुसार, केंद्रीय करों में आठ राज्यों (आंध्र, असम, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, ओडिशा, तेलंगाना और उत्तर प्रदेश) का हिस्सा 24 से लेकर 118 (कर्नाटक) फीसद तक घट जाएगा.
महाराष्ट्र, गुजरात, अरुणाचल के हिस्से में उल्लेखनीय बढ़ोतरी हो रही है.
केंद्र के टैक्स में सेस और सरचार्ज का हिस्सा बढ़ता जा रहा है, जिनमें राज्यों को हिस्सा नहीं मिलता.
केंद्रीय टैक्स राजस्व में इनका हिस्सा 2012 में 10.4 फीसद से बढ़कर 2021 में 19.9 फीसद हो गया है.
वित्त आयोग ने केंद्र से राज्यों को जाने वाले अनुदानों में बढ़ोतरी
की सिफारिश की है लेकिन शिक्षा, बिजली और खेती के लिए केंद्रीय अनुदान बेहतर प्रदर्शन की शर्त पर
मिलेंगे. बेहतर काम के लिए राज्यों को ज्यादा खर्च या निवेश करना होगा जबकि खजाने
और ज्यादा खाली हो जाएंगे.
कर्ज का अंबार
कोविड की मंदी ने केवल केंद्र के बजट को ही ध्वस्त कर सरकार को बैंकों
व सरकारी संपत्तियों की सेल लगाने पर बाध्य नहीं किया है, राज्यों की हालत और ज्यादा खराब है.
मौजूदा वित्त वर्ष में (7 अप्रैल से 16 मार्च तक) 28 राज्य और 2 केंद्र शासित प्रदेश मिलकर बाजार से रिकॉर्ड 8.24 लाख करोड़ रुपए का कर्ज उठा चुके
हैं. यह कर्ज पिछले वित्त वर्ष से 31 फीसद ज्यादा है.
मध्य प्रदेश, झारखंड और सिक्किम पिछले साल की तुलना में दोगुने से ज्यादा कर्ज उठा
चुके हैं. कर्ज पर ब्याज की दर ज्यादातर राज्यों के लिए 7 फीसद से ऊपर हैं.
जीएसटी में नुक्सान की भरपाई पर केंद्र के इनकार के बाद अगले साल
राज्यों को 2.2 लाख करोड़ रु. अतिरिक्त कर्ज उठाने होंगे. अगले साल राज्यों के कुल
कर्ज दस लाख करोड़ रु. से ऊपर निकल सकते हैं.
अगले दो साल में संघीय अर्थव्यवस्था में दो बड़े बदलाव होने हैं:
■ जीएसटी की क्षतिपूर्ति खत्म होने और केंद्रीय करों के हिस्से में
कटौती कई बड़े राज्यों में जिंदगी और कारोबारी लागत बढ़ाएगी. सरकारों को बिजली, रोड ट्रांसपोर्ट, भूमि पंजीकरण की दरें बढ़ानी होंगी, जरूरी खर्चे काटने होंगे और निजीकरण
तेज करना होगा.
■ राज्यों पर कर्ज की देनदारी का नया चक्र शुरू होगा जिसके लिए संसाधन
नाकाफी हैं.
नई दुनिया में (अपवादों को छोड़कर) सफलता केवल प्रतिभा या क्षमता से
तय नहीं होती है बल्कि इससे बहुत बड़ा फर्क पड़ता है कि वह अमेरिका में पैदा हुआ
है या तीसरी दुनिया के किसी देश में. यही वह ओवेरियन लॉटरी (जन्म स्थान का
सौभाग्य) है जिसे मशहूर निवेशक वारेन बफे की जीवनी द स्नोबॉल में दिलचस्प ढंग से
समझाया गया है. यह सिद्धांत भारत के राज्यों पर भी लागू होने वाला है क्योंकि तेज
विकास के पिछले वर्षों में क्षेत्रीय असमानता बढ़ती चली गई है.
डबल इंजन की सरकारों के दावों को चुनावी नमक के साथ निगलना चाहिए क्योंकि
कोविड 2016-20 के बीच केवल हरियाणा, कर्नाटक, गुजरात और तेलंगाना की विकास दर राष्ट्रीय औसत से ऊपर रही थी (इंडिया
रेटिंग्स रिपोर्ट 2021) बाकी सब के जस के तस रहे.
चिरंतन चुनावी चौकसी से निकल कर केंद्र सरकार को मंदी से उबरने के लिए
राज्यों के साथ साझा रणनीति बनानी होगी क्योंकि मंदी के बाद किस राज्य में रहने
में फायदा होगा यह डबल इंजन की सरकार से नहीं बल्कि टैक्स, कारोबारी, सुविधाओं जीवन की लागत और स्थानीय
अर्थव्यवस्था में मांग पर निर्भर होने वाला है.
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