चाची आग बबूला थीं. राजनैतिक प्रकोष्ठ वाले किसी व्हाट्सऐपिये ने महंगाई का ताजा सरकारी आंकड़ा चमकाते हुए उन्हें चुनौती दी थी. हर तरह का तेल, कपड़ा, दवा सब में आग लगी थी लेकिन इस आंकड़े में सितंबर की खुदरा महंगाई आठ माह में सबसे कम (4.35%) पर थी. बाजार को रसोई की तरह समझने वाली चाची बड़बड़ा रही थीं, बस बातें करा लो इनसे, हमारे पास तो पांच साल के पर्चे हैं, कुछ सस्ता हुआ है कभी?
है एक महंगाई, जो कभी कम नहीं होती. जो मरहम की तरह ट्यूब से निकलने के बाद भीतर नहीं लौटती. महंगाई के शास्त्र को, चाची से बेहतर कोई नहीं समझता. चाची हिसाब की डायरी में वह बुनियादी (कोर इन्फ्लेशन) महंगाई गुर्राती दिखती है जो हमेशा बढ़ती जाती है. बुनियादी महंगाई यानी फल, सब्जी, अनाज और पेट्रोल-डीजल की कीमतों को निकालने के बाद नापी जाने वाली महंगाई. सरकारी आंकड़े इसी को छिपाते हैं और हमें फल-सब्जी की मौसमी या स्थानीय कीमतों में कमी-बेसी से भरमाते हैं.
कोर इन्फ्लेशन ही है जिसके आधार पर खपत और कमाई की पैमाइश होती है. यही महंगाई लोगों की कमाई की स्थायी दुश्मन है.
खुदरा महंगाई में कमी का जो मोटा आंकड़ा चाची के सामने चमकाया गया वह अगस्त महीने में कीमतों में कमी बताता है. इस प्रचार के पीछे छिपी है बुनियादी महंगाई, जो बीते एक साल में छह फीसद से ऊपर रही रही. यही वजह थी कि इस बार रिजर्व बैंक ने भी इसी महंगाई पर दर्द का इजहार किया है.
कभी न घटने वाली महंगाई
खुदरा महंगाई के सूचकांक फॉर्मूले में दो डिब्बे हैं. एक कोर महंगाई (54.1%) और दूसरी गैर बुनियादी (45.9%). दूसरे डिब्बे में मौसमी खाद्य अनाज और ईंधन आते हैं जबकि पहले में आती है फैक्ट्री और सेवाएं आदि.
ज्यादा उठापटक दूसरे वाले डिब्बे में होती है, जहां फल-सब्जी के दाम मौसमी आपूर्ति के मुताबिक बदलते हैं और पेट्रोल-डीजल की कीमतें चुनावी संभावनाओं के आधार पर डोलती रहती हैं, अलबत्ता बुनियादी महंगाई वाले पहले हिस्से में बढ़त जारी रहती है.
बीते बरस जब भारतीय अर्थव्यवस्था पच्चीस मीटर (-25%) गहरे गर्त में गिर गई थी तब भी यह महंगाई नहीं टूटी. बल्कि 2019 में (4.4%) के मुकाबले महामारी के बरस बढ़कर 5.3 फीसद हो गई.
बुनियादी महंगाई थोक कीमतों में बढ़त से सीधे प्रभावित होती है. थोक महंगाई इस साल अप्रैल के बाद दस फीसद बनी हुई है.
महंगाई नापने के मीटर का एक और हिस्सा भी हमेशा अपने दांत पैने करता रहता है. सूचकांक में करीब 28.3 फीसद की जगह घेरने वाले इस वर्ग में स्कूल, परिवहन, अस्पताल, मनोरंजन, टेलीफोन आदि सभी सेवाएं आती हैं. इनकी महंगाई चिरंतन छह-सात फीसद से ऊपर रहती है. बीते एक बरस में यह सब लगातार महंगे हुए हैं.
सरकार मौसमी खेल पर कीमतें कम बताकर तालियां बटोरती है जबकि कमाई को खाने वाली जिद्दी महंगाई कभी कम नहीं होती.
महसूस न होने वाली राहत
चाची को महंगाई कम होती महसूस नहीं होती, इसकी एक और वजह है जो बेदर्द सरकारें नहीं समझतीं. जिंदगी जीने की लागत हमेशा, कमाई के सापेक्ष होती है. भारत चिरंतन महंगाई वाला देश है. यहां महंगाई की आधी-अधूरी सरकारी दर भी हमेशा आर्थिक विकास दर या बहुसंख्य आबादी की आय बढ़ने से ज्यादा रहती है.
महंगाई बढ़ने और कमाई घटने से बीते एक बरस में देश की 97 फीसद आबादी 'गरीब’ हो गई (सीएमआइई). सीएसओ ने बताया कि 2020-21 में प्रति व्यक्ति आय करीब 8,637 रुपए कम हुई. निजी और असंगठित कारोबारों में बेकारी व वेतन कटौती से कुल आय में 16,000 करोड़ रुपए की कमी आई है (एसबीआइ रिसर्च).
जबकि बीते एक बरस में उपभोग खर्च में दवा-इलाज पर खर्च का हिस्सा 3 से बढ़कर 11 फीसद हो गया. कोविड में इलाज पर लोगों ने 66,000 करोड़ रुपए ज्यादा खर्च किए. महंगे पेट्रोल-डीजल व इलाज के कारण जिंदगी आसान करने वाले उत्पाद और सेवाओं पर लोगों का खर्च बीते छह माह में करीब 60 फीसद कम हुआ (एसबीआइ रिसर्च).
चाची की चिढ़ जायज है कि वास्तविक महंगाई न कम होती है न महसूस होती है. आंकड़े सच नहीं बताते. रिजर्व बैंक भी, ब्याज दरें व मुद्रा आपूर्ति तय करने के लिए खुदरा महंगाई के उसी आंकड़े का पाखंड मानता है जो मौसमी आपूर्ति या पेट्रोल-डीजल की सरकार प्रेरित कीमतों पर चलती है.
दुनिया के करीब पंद्रह प्रमुख देश (अमेरिका, कनाडा, स्वीडन, जापान, कोरिया, थाईलैंड, नीदरलैंड) बुनियादी महंगाई मौद्रिक व सरकारी फैसलों का आधार बनाते हैं यानी वह महंगाई जिसमें फल-सब्जियां या ऊर्जा ईंधन कीमतें शामिल नहीं होती.
महंगाई की सही पैमाइश आर्थिक प्रबंधन में पारदर्शिता की बुनियादी शर्त हैं क्योंकि हमारी आय, बचत और खपत इसी पैमाने से तय होती है. इसी कसौटी पर हम यह माप सकते हैं कि जिंदगी बेहतर हो रही है या बदतर. जिसकी पैमाइश ही सही नहीं उसका प्रबंध कैसे हो सकेगा. हमारी सरकारें महंगाई से बचाना तो दूर हमें यह बताना भी नहीं चाहतीं कि हम रोज कितने 'गरीब’ होते जा रहे हैं.
I love your commentary. Thanks Mr Anshuman
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